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Wednesday, April 28, 2010

ज़माने की मजबूरी या कुदरत की मंजूरी-हिन्दी शायरी (zamane ki mazboori ya kudrat ki manjoori-hindi shayari)

ऊंचे सिंहासन पर बैठने से
चरित्र ऊंचा नहीं हो जाता,
अगर हो इंसान ईमानदार तो
ऊंचा सिंहासन नसीब में नहीं आता।
पर मजबूरी है चारणों की जो स्तुति करते हैं,
शब्दों में स्वामी के काल्पनिक गुण भरते हैं,
ज़माने की मजबूरी कहें,
या कुदरत की मंजूरी कहें,
सिंहासन पर बैठे राजा का
फरिश्ते जैसा दिखना जरूरी है,
शैतान भी आकर बैठ जाये तो
उसको ईमानदार बताना मज़बूरी है
शायद इसलिये ही चंद टुकड़ों की खातिर
लिखे गये चमत्कारी अफसाने
दिखाये कातिलों के बहादुरी के कारनामे
लूट लिया जिन्होंने जमाने को
पर नायकों जैसा उनका वजूद बताया जाता।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Friday, April 23, 2010

मोटर साइकिल, मोबाईल और मां-बहिनःहिन्दी आलेख (motor cycle, mobil and mother -sister:hindi article

गरमी के दिनों में शाम को पार्क जाना अच्छा लगता है। दिन भर पंखे तथा कूलर की कृत्रिम सर्दी शरीर में उमस पैदा कर देती है। फिर दिन भर चाहरदीवारी में गर्मी की उष्मा से परे देह में बैठा मन कहीं अन्यत्र ऐसी जगह जाने को करता है जहां प्रकृति की थोड़ी अधिक कृपा हो। मन को न तो गर्मी लगती है न सर्दी! उसका सामना तो देह ही करती है पर मन एक जगह खड़ा नहीं रह सकता वह उसे भगाता है।
उस दिन हमारे एक मित्र अपना किस्सा सुना रहे थे। उनके अनुसार शाम को पार्क में ऐसा कोई दिन नहीं आता जब किसी ऐसे शख्स को देखने का सौभाग्य न मिलता हो जो मोबाईल पर गालियां न बकता हो।
उनके अनुसार कई कई लड़के तो पचास शब्दों में चालीस गालियों सें भरते हैं तो अनेक के वार्तालाप में दस गालियों के बाद उनका कोई एक सार्थक शब्द आता है जिसका मतलब समझा जा सके। कभी कभी तो लगता है कि उनके ‘वार्तालाप समय के मूल्य का अधिकतर हिस्सा गालियां पर खर्च होता होगा।

उस दिन अवकाश के दिन हम अपने एक मित्र के साथ एक पार्क में गये। दरअसल वह मित्र वहां चल रहे एक धार्मिक कार्यक्रम में शामिल होने आये थे पर वह उनको वहां मजा नहीं आया। वह बाहर निकले तो हमसे सामना हो गया। जब हमने उनको बताया कि पार्क में घूमने जा रहे हैं तो वह भी साथ हो लिये। अंदर घुसते ही हमारे कानों में क्रूरतम गालियां सुनाई दीं। अरे, बाप रे! लोग दूसरे की मां बहिनों को क्या समझते हैं!
संभवत लड़का लाईन पर मौजूद व्यक्ति की बजाय किसी तीसरे पक्ष को गााली दे रहा था। ‘हारे हुए पैसे’ शब्द भी सुनाई दिये। मित्र ने कहा-‘कहीं, यह क्रिकेट पर सट्टा लगाने वाला आदमी तो नहीं है।’
उसकी बात पूरी भी नहंी हो पायी कि एक सज्जन वहां से निकले और हमारी तरफ देखते हुए बोले-‘देखिए, अपने देश का आदमी कितना पागल हो जाता है। वह लड़का कैसे जोर जोर से गालियां बक रहा है। उसे लग रहा है कि पार्क उसके पिताजी ने अकेले उसके लिये बनाकर दिया है।’
हम दोनों मुस्करा दिये। हमारे मित्र ने कहा-‘लगता है कि तुम्हारा ब्लाग पढ़ता है! इसलिये मोटर साइकिल वाला शब्द मोबाईल पर चिपका कर गया है।’
दरअसल हमारा वह मित्र ब्लाग नहीं पढ़ता पर उसका अनुमान रहा था कि ऐसा वाक्य हमने कहीं लिखा जरूर लिखा होगा। इस लेखक के एक व्यंग्य में पिता अपने पुत्र से कहता है कि ‘बेटा, याद रखना मैंने तुम्हें मोटर साइकिल खरीद कर दी है, पर यह सड़क मेरी नहीं है।’
हमारा यह व्यंग्य उसने पढ़ा था। इसका आशय यही था कि लड़के मोटर साइकिलों पर ऐसे चलते हैं जैसे कि उनके पालकों ने गाड़ी के साथ सड़क भी खरीद कर दी हो जिस पर उनको अकेले चलने का अधिकार प्राप्त है।
उसी मित्र के साथ हम पार्क के दूसरे हिस्से में गये। वहां एक अन्य युवक भी दनादन गालियां बके जा रहा था। हमने देखा उसके पास भी मोबाइल है। मां बहिन कितना अच्छा शब्द है पर उनके साथ गालियां जोड़ना बड़ा भयानक है। शायद लोगों को मोबाइल और मोटर साइकिल की तरह यही लगता है कि हमारी मां बहिन ही मां बहिन हैं बाकी के लिये चाहे जो बक दो। उस लड़के के गालियां बकने के दौरान ही उसके पास से दो युवतियों के साथ एक महिला भी निकल रही थी। उसके कटु स्वर उन्होंने भी सुने।
थोड़ी दूर जाकर एक युवती ने अपनी संगिनियों से कहा-‘यहां भी गंदे लोग पहुंच ही जाते हैं।
महिला ने कहा-‘क्या करें, घर पर अपनी मां बहिन के सामने गालियां बक नहीं सकता। रास्ते में कोई दूसरा सुन लेगा तो टोक देगा। इसलिये पार्क में आया है गालियां देने।’
उन तीनों नारियों की आंखों में नफरत झलक रही थी जो वहां मौजूद ठंडक में भी झुलसा देने वाली लगी। ऐसा लगा कि जेठ की गरम दोपहर की तपिश भी इससे कम होगी। सच कहते हैं कि कटु वाणी तकलीफदेह होती है चाहे भले ही वह आपसे न बोली गयी हो। प्रसंगवश वह लड़का भी किसी तीसरे पक्ष को गालियां दे रहा था। मतलब सामने किसी की हिम्मत नहीं होती गाली देने की। हर कोई एक दूसरे के लिये पीछे ही बकता है।
कहीं सुनने में आता है कि ‘मैंने उससे ढेर सारी गालियां सुनाई।’ भले ही प्रत्यक्ष उसने गाली न सुनाई हो।
इन सबका फायदा किसे है! टेलीफोन कंपनियों को चिंता नहीं करना चाहिए। भारत में मां बहिन की गालियां देने वाले बहुत हैं इसलिये उनका धंधा कभी मंदा नहीं हो सकता। अब यह आंकलन कौन कर सकता है कि टेलीफोन कंपनियों की आय में इन गालियों का योगदान कितना है?
एक किस्सा आज मोटर साइकिल का भी नज़र आया। एक लड़की पास से दुपहिया पर निकली थी। हमारा ध्यान नहीं जाता अगर उसी समय पास से ही मोटर साइकिल पर गुज़र रहे दो लड़कों ने उस पर फिकरा कसा नहीं होता।
लड़के आगे निकले क्योंकि उनकी मोटर साइकिल तो उड़ रही थी। फिर उन्होंने गति कम की। लड़की फिर आगे निकली तो फिर उसके पास से तेजी से निकले। सड़क पर दूसरे भी वाहन चल रहे थे। कहीं मोटर साइकिल फंसी या फिर लड़कों ने खुद गति कम की। शायद दो किलोमीटर तक ऐसा हुआ होगा। आखिर लड़की सड़क के दायीं गली में मुड़ी जहां शायद उसे पहले नंबर के मकान में जाना था। वहां रुककर उसने लड़कों को घूर कर देखा तो वह बहुत तेजी से वहां से भाग गये।
पूरे प्रसंग में लड़कों की मनस्थिति आश्चर्यजनक लग रही थी। वह क्या किसी फिल्म का काल्पनिक अभिनय कर रहे थे जिसमें नायक ही ऐसी हरकतें कर सकते हैं। उनको दूसरे लोग दिख ही नहीं रहे थे। सच है सुविधायें आदमी को अक्ल ही अंधा बना देती हैं अलबत्ता गूंगा और बहरा भी बनाती।
आंखों से मतलब के अलावा कुछ दिखता नहीं। बोलता ऐसी बात है जो समझ में नहीं आती और सुनता कुछ दूसरा है समझता दूसरा है। अपने भारत में अधिकतर लोग सुंविधाओं को भोगना नहंी बल्कि लूटना चाहते हैं-यह अलग बात है कि दूसरे को ऐसा करते हुए देखकर मन वितृष्णा से भर जाता है-‘उसकी शर्ट मेरी शर्ट से सफेद कैसे’ की तर्ज पर।
सच है खाना पचने की दवाईयां हैं, पर सुविधाएं पचा सके ऐसा कोई दवा नहीं बनी। सबसे बड़ी बात यह है कि नैतिकता और मधुर वाणी सिखा सके ऐसी कोई किताब ही न बनी। दूसरी बात यह कि इस संस्कारहीनता के लिये जिम्मेदारी किस पर डाली जानी चाहिये।
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Friday, April 16, 2010

क्रिकेट और चैरिटी-हिन्दी हास्य कविता (cricket and charity-hindi hasya kavita)

हांफता हुआ आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू
तुमने अपनी पूरी जिंदगी
क्रिकेट मैच देखने में गंवाई,
कुछ धंधे पानी की सोचते तो
पर कभी ‘चैरिटी’ (समाज सेवा) करने पर
अपनी अक्ल न चलाई,
करते तुम भी लोगों का भला
हो जाती तुम्हारी भी कमाई।’
सुनकर दीपक बापू हुए हैरान फिर बोले
‘अगर ‘चैरिटी’ के नाम पर
धंधा करना होता तो
फिर क्रिकेट ही क्या जरूरी है,
नहीं कोई ऐसी मजबूरी है,
चाहे चुनो कोई भी काम
‘चैरिटी’ की आड़ में करो सबका काम तमाम
जैसे अनाथ बच्चों की सेवा,
या फूंको वह मुर्दे जिनका नहंी कोई नामलेवा,
चल निकलता है धंधा,
कभी नहीं आता मंदा,
मुश्किल यह है कि भले आदमी को
अब अच्छे काम करने नहीं दिये जाते,
सारे काम
शातिरों के हिस्से में आते,
साठ बरसों से देश में गरीबी बढ़ी है,
वह दूर न हो सकी
पर बन गये उनके महल जिन्होंने
उसे हटाने की लड़ाई लड़ी है।
समाज सेवा का धंधा पुराना है,
करना नहीं किसी का भला
बस करते सभी को सुनाना है,
कभी चैरिटी के नाम पर होता था
फिल्मों का प्रदर्शन,
कभी नकली कुश्ती का दिखता था मंचन,
आजकल कहीं गरीबों, मजदूरों और बेबसों की चैरिटी के लिये
चल रही गोलियों और फट रहे बम,
कहंी क्रिकेट खेल दिखा रहा है दम,
सभी जगह दलालों ने खोल ली है
समाज सेवा की दुकान,
कमाई उनका लक्ष्य होता है
चाहे देश का हो नुक्सान,
सोचते सभी है अमीर बनने की
पर यह संभव नहीं है कि
समाज सेवा से हर कोई करे कमाई,
भलाई करने के लिये अब
सज्जन होना भी जरूरी नहीं है
चालाकी हो तो ही जीत सकते हो लड़ाई।
इसमें सारे काम करना ठीक है
छोड़कर किसी की सच में भलाई।
दूर रहे इसलिये हमेशा इससे
यह बात पहले ही हमारी समझ में आई
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Sunday, April 11, 2010

इंसानों की अदाओं के खदीददार-हिन्दी शायरी (insan ki adaon ke khariddar-hindi shayri)

सिंहासन पर अब लायक इंसान
नहीं पहुंच पाते हैं,
जिनमें काबलियत है बुतों की तरह चलने की
हुक्मरान बन कर सज जाते हैं।
उनकी उंगलियां इशारे करती आती हैं नज़र
कभी कभी जुबां पर बोल भी आते हैं।
पर सच यह है कि
इरादे कोई दूसरा करता
सोचता कोई और है
जमाना तो गुलाम है उनका
दौलत और ताकत है जिनके पास
वही बाकी इंसानों की अदाओं के खरीददार बन जाते हैं।
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Wednesday, April 7, 2010

पैंतरेबाजी-हिन्दी शायरी

पैंतरेबाजी से प्रसिद्धि भी जल्दी मिल जाती है,
सीधी राह में भी अड़चन कम न आती है।
शादी पर बारात निकले, या गमी में शवयात्रा
खुशी और गमी भी बाजार में अब बेची जाती है।
हम बैठे देख रहे परदे पर, सब नाटक है सच नहीं
मुफ्त नहीं है, विज्ञापन की कीमत से शय बढ़ जाती है।
कहें दीपक बापू शादी से तलाक तक देखते रहो
बिके पात्रों के अभिनय में गज़ब की सच्चाई नज़र आती है।
कुछ मज़हब की बातें होती, कुछ शायरी भी देती सुनाई
जहां है दौलत का खजाना, वहां की गाथा गायी जाती है।
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Sunday, April 4, 2010

पश्चिम के विज्ञान सिद्धांत तथा भारतीय अध्यात्म दर्शन-हिन्दी लेख (western science and indian thought-hindi article)

हमारे ब्लाग लेखक मित्र उन्मुक्त अपने आप में एक रहस्यमय व्यक्त्तिव के स्वामी हैं। उनके निज व्यक्त्तिव को लेकर कयास लगाते हुए अनेक ब्लाग लेखकों ने कुछ पाठ भी लिखें हैं। कुछ ब्लाग लेखक ऐसे हैं जो अब उनके बारे में कोई कयास नहीं लगाते। इसका कारण यह है कि उनके निज रहस्यों पर अनुमान करने की बजाय उनके लेखन के आधार पर बहुत कुछ समझ गये हैं। कोई आदमी अपना नाम गुप्त रखते हुए निवास अदृश्य स्थान पर बना सकता है पर अगर वह अपने हाथों से लिखकर बाहर शब्द भेजेगा तो वह उसकी पूरी कहानी बयान कर देंगे। इसके लिये यह जरूरी है कि उसका लिखा कोई पढ़े और फिर समझे। यकीनन उन्मुक्त अपने नाम के अनुरूप उन्मुक्त भाव से लिखते हैं और सच्चाई यह है कि उन जैसे पचास या सौ लेखक अगर इस इंटरनेट पर हिन्दी लिखने आ जायें तो भले ही हमारी भाषा के पाठों की संख्या कम हो पर उसका प्रभाव बहुत दूर तक रहेगा।
उनका ‘डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत’ की अवधारणाओं को भारत के प्राचीन हिन्दू धर्मग्रथों में ढूंढने का प्रयास एकदम नया है। सृष्टि के संबंध में इस लेखक द्वारा लिखे गये एक पाठ का उन्मुक्त जी ने उल्लेख करते हुए ‘डार्विन के विकासवाद’ के सिद्धांत को पतंजलि योग दर्शन में देखने का आग्रह करने के साथ ही एक पाठ लिख डाला।
यहां उन्मुक्त जी के उस पाठ की एक बात का उल्लेख करना जरूरी लगता है जिसमें उन्होंने भगवान विष्णु के चौदह अवतारों में मानव विकास के सिद्धांत को स्थापित करने का प्रयास किया है। उनके इस प्रयास ने हैरान कर दिया। पतंजलि योग दर्शन में विकास वाद के सिद्धांत को ढूंढने का उनका आग्रह अभी तक इस लेखक को समझ में नहीं आया पर यह अकारण या अतार्किक नहीं हो सकता जिस पर कभी विचार अवश्य करेंगे।
यह लेखक कभी विज्ञान का विधार्थी नहीं रहा पर भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों के वर्णनों को नये संदर्भों में देखने का प्रयास किया-वह भी इसलिये क्योंकि अंतर्जाल पर उस पर लिखने में मजा आने लगा। उन्मुक्त संभवतः आयु में इस लेखक से छोटे होंगे पर अंतर्जाल पर वरिष्ठ हैं और कहना चाहिए कि उनका विशद अध्ययन पहले ही प्रारंभ हो गया होगा। उन्मुक्त जी के डार्विन के विकासवाद बहुत सारे लेख देखने को मिले। भारत के प्राचीन ग्रंथों को नये संदर्भों में देखने की इच्छा के विषय में इस लेखक और उन्मुक्त जी की दिलचस्पी समान हो सकती है पर जहां पाश्चात्य विज्ञानियों के सिद्धांतों की तुलना की बात आयेगी वहां उन्मुक्त जी की बात का जवाब देना बहुत कठिन है क्योंकि उसके लिये आधुनिक विज्ञान का व्यापक अध्ययन होना आवश्यक है।
इस लेखक ने पश्चिमी वैज्ञानिक के विकासवाद के सिद्धांत के बारे में यह पढ़ा है कि ‘मानव पहले एक बंदर या उस जैसा जीव था। जिसकी पूंछ धीरे धीरे लुप्त होती गयी।’
उनके इसी सिद्धांत के कारण पूरा विश्व मानता है कि मनुष्य के पूर्वज बंदर थे।
यह लेखक उनके सिद्धांतों से असहमत होता है। वैसे इस लेखक ने एक पाश्चात्य विज्ञानी का ही एक लेख पढ़ा था जिसमें सभ्यता के विकास का वर्णन दिलचस्प था। उसमें बताया गया था कि मनुष्य अफ्रीका (शायद दक्षिण अफ्रीका) में प्रकट हुआ पर वहां उसे सभ्यता का ज्ञान नहीं था। वहां से वह भारत गया जहां उसका बौद्धिक परिष्कृतीकरण हुआ। फिर भारत से फिर वह मध्य एशिया गया जहां उसे अधिक ज्ञान मिला-एक तरह से कहें तो इस मायावी संसार की जानकारी। वह फिर भारत लौटा तथा धीमे धीमे बौद्धिक रूप से समृद्ध होकर पूरे विश्व में फैला। हम इन दोनों सिद्धांतों के बीच में खड़े होकर विचार करते हैं। इस लेखक का मानना है कि किसी भी सर्वमान्य सिद्धांत का अगर अवलोकन करना हो तो उसके साथ बहने की बजाय उसे बाहर निकलते हुए दृष्टा की तरह बहते हुए देखना चाहिये। हम किसी वैज्ञानिक के सिद्धांतों के प्रतिपादन के समर्थन में दिये तथ्यों के साथ बहते जायें अच्छी बात है, पर एक बार अपनी जगह पर मस्तिष्क स्थिर कर उसे सामने से आते देखें और फिर निष्कर्ष निकालें। जब डार्विन का सिद्धांत देखते है और आज का मनुष्य पर दृष्टिपात करते हैं तो लगता है कि अगर यह सही है कि मनुष्य कभी बंदर था पर सभी जगह उसका रूप बदल गया यह सही नहीं लगता। आखिर मनुष्य में दैहिक आधार पर अभी भी गोरे, काले, नाटे, लंबे, मोटे और पतले के आधार पर विभाजन दिखाई देता है वह क्यों नहीं समाप्त हुआ। मनुष्य देह तथा पांच तत्वों से बनी है-यह भारतीय अध्यात्म कहता है जबकि पाश्चात्य विज्ञान का यह मानना है कि अनेक प्रकार के छोटे अणु मिलकर इस संसार को बनाते हैं। हम पाश्चात्य ज्ञान को आधुनिक मानते हैं पर कभी पंच तत्वों का अवालोकन किया है! प्रथ्वी, आकाश, अग्नि, वायु तथा जल छोटे अणुओं या बूंदों के समूह से बनते हैं इसके लिये किसी विस्तार की आवश्यकता नहीं है। भारतीय दर्शन में इसका उल्लेख नहीं हुआ तो इसका कारण यह है कि इसकी जरूरत नहीं है। कहने का अभिप्राय यह है कि भारतीय ज्ञान परंपरा सभ्यता प्रारंभ होते ही निर्मित हो गयी थी। भारत में बौद्धिक रूप से समृद्ध होकर मनुष्य पूरे विश्व में फैला क्योंकि यहां ज्ञान की धारा में वह नहा चुका था। इधर जब पाश्चात्य समाज की शक्ति बढ़ी तो उसने अपने ढंग से सोचना प्रारंभ किया। जब वहां रहे मनुष्यों की स्मृति पीढ़ियों के साथ शनैः शनैः विलुप्त होती गयी तब वहां आधुनिक विज्ञान का प्रारंभ हुआ। उन्होंने खोज शुरु की पर यह सभ्यता प्रारंभ होने तथा आधुनिकता के चरम के बीच की थी। जबकि भारत में वेद जैसे महाग्रंथों की रचना तो मनुष्य जीवन के साथ ही प्रारंभ हो गयी थी। इसलिये ही जब भी कोई पाश्चात्य सिद्धांत सर्वमान्य होता है तो उसके तत्व भारतीय धर्मग्रंथों में मिलते हैं। विश्व सभ्यता के विकास का दूसरा सिद्धांत हम देखें तो इससे इस बात की पुष्टि होती है। भारतीय खोज प्राचीन है जबकि पाश्चात्य खोज नवीनतम है पर इससे मूल तत्व नहीं बदलते। हां, भाषा, भाव तथा संप्र्रेषण के तरीके में थोड़ी भिन्नता हो सकती है। खासतौर से तब जब भारतीय ग्रंथों की रचना के समय उसमें साहित्य का पुट देने का प्रयास किया गया तो उसमें व्यंजना विद्या के साथ अनेक प्रकार के शाब्दिक अलंकरण भी सजायें गये जिसमें चमत्कार होने का आभास भी होता है।
अब आते हैं उक्त पश्चिमी वैज्ञानिक के विकासवाद के सिद्धांत के सिद्धांत पर। उसमें दम नज़र नहीं  आता। मनुष्य यानि कोई एक नहीं बल्कि पुरा समुदाय। यह संभव नहीं है कि पूरे विश्व के मनुष्यों की पूंछ लापता हो जाये। अगर हम उनकी यह बात मान लें तो फिर यह सवाल भी आता है कि पूरे विश्व के मनुष्यों का रंग या कद काठी एक जैसी क्यों नहीं है! एक ही परिवार में रहने वाले व्यक्तियों के रंग, कद तथा चाल में अंतर कैसे होता है? अगर बंदर के रूप से मनुष्य का स्वरूप बदला तो फिर देह के अन्य हिस्सों में समानता क्यों नहीं  आयी?
कहने का अभिप्राय यह है कि यह सिद्धांत कल्पित लगता है। उन्मुक्त जी ने अवतारों की बात मानव विकास के सिद्धांतों से जोड़ने का प्रयास किया है। अच्छा और भावपूर्ण लगा। पर यहां भी याद रखने लायक यह बात है कि मत्स्यावतारहो या नरसिंह अवतार, जिस काल में हुए उस समय वर्तमान काल जैसी ही देहवाले ही मनुष्य थे। इसका आशय यह है कि उस समय तक मनुष्य का विकास हो चुका था। ऐसे में चाहे मत्स्यावतार हो या नरसिंह अवतार वह उस समय के समूचे मनुष्य समुदाय की दैहिक स्थिति का प्रतिबिम्ब नहीं कहे जा सकते।
मनुष्य के पूर्वज अगर बंदर होते तो पूरे विश्व में उनकी पूंछ लुप्त नहीं हो सकती थी। रीढ़ के हड्डी एकदम नीचे बने उभरे ठोस तत्व को देखकर वहां पूंछ होने की बात बेमानी है क्योंकि दरअसल पूरी देह का आधार स्तंभ है और हम यह मानते हैं कि सृष्टि ने हर चीज सोच समझकर बनायी है ताकि जीवन की धारा यहां बह सके। दूसरा यह भी कह सकते हैं कि बनी तो ढेर सारी चीजें होंगी पर जिनका वैज्ञानिक आधार मजबूत रहा वही आगे जीवन यात्रा जारी रख पायीं जैसे कि मनुष्य की रीढ़ की हड्डी का वह मूलाधार चक्र जहां पूंछ होने की कल्पना की जाती है।
आखिरी बात अगर मनुष्य बंदर था तो अभी भी इस धरती पर इतने सारे बंदर क्यों है? एक बदंर ने इस लेखक से हनुमान जी के मंदिर में प्रसाद इस तरह छीन ले गया था कि जैसे कि उसका उस पर अधिकार हो, यह सरासर लूट थी पर बंदर तो कानून के दायरे से बाहर हैं। उस समय यह लेखक सोच रहा था कि क्या पूरी धरती पर जब मनुष्य धीरे धीरे अपनी पूंछ की लंबाई खो रहा था-कहा जाता है कि कुछ बंदर कपड़े पहनने लगे थे और इसके कारण उनकी पीढ़ियों का शनै शनै परिवर्तन हो रहा था-तब क्या बंदरों का एक समुदाय मनुष्य होने से बचने के लिये प्रयास कर रहा था ताकि भविष्य में सभ्य कानून उस पर लागू न हों और वह चाहे जैसी लूट करे कहलायेगा बंदर ही और बच जायेगा। शुरुआती दौर में मनुष्य और बंदरों मे अंतर अधिक नहीं रहा होगा पर धीरे धीरे संवाद की कमी के कारण ऐसा भी हो गया कि दोनों का संपर्क टूट गया। इस सिद्धांत पर यकीन न करने का कारण यह भी है कि इस धरती पर ऐसा कहीं सुनने को नहीं मिलता कि कोई मनुष्य कपड़े सिलवाने के लिये किसी दर्जी के पास गया हो और पूंछ वाली जगह पर छेद रखने का आग्रह करता हो। अगर बंदर से मनुष्य बना है तो एक नहीं ऐसे लाखों उदाहरण होते। जैसे मनुष्य अब काले, गोरे, नाटे, लंबे, मोटे, पतले तथा आदिवासी और आधुनिक वर्ग में बंटा हुआ, वैसे ही यहां पूंछ वाले और बिना पूंछ वाले दोनों प्रकार के मनुष्य होते। इतना ही नहीं विवाहों के अवसर पर यह तो देखा ही जाता कि हर दंपति पुंछ या बिना पूंछ वाला ही होना चाहिये वरना दोनों एक दूसरे की मजाक उड़ायेंगे। पूंछ की लंबाई भी देखी जाती। दूसरी बात यह कि अगर मनुष्य पूंछ वाले होते तो एक दूसरे की पूंछ खींचकर लड़ मर गये होते। उनकी इतनी बड़ी संख्या नहीं होती। चाहे कोई कितना भी कहें मानवीय स्वभाव जैसा आज है वैसा पहले भी था। यह बदल नहीं सकता। कुछ बातें व्यंग्य में लिखी है कुछ गंभीर हैं पर सच यह है कि यह सब इस लेखक के मन में बहुत समय से चलता रहा है। सो लिख दिया। इस विषय पर आगे भी लिखेंगे पर फिलहाल इतना ही।
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Saturday, April 3, 2010

भूख और हवस-हिन्दी शायरी (bhookh aur havas-hindi shayri)

अपनी तबाही खुद करने पर
जब आमादा होता है इंसान,
हवस में ढूंढता है अमृत
चंद लफ्ज हमदर्दी के जताने वाले को
फरिश्ता समझ लेता है।
पेट की भूख तो मिटा देती है रोटी
पर हवस में अंधा इंसान
अपनी तकदीर अपने हाथ से बिगाड़ लेता है।
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रोटी के भूखे को एक टुकड़ा भी
खुश कर जायेगा,
आधा पेट भरने पर भी
वह खुश हो जायेगा।
मगर अपनी हवस में ढूंढते हैं तकदीर
वह हमेशा रहेगा भूखा
जब तक सामने से आकर कोई
आंख में नश्तर न चुभा जायेगा।
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