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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, July 5, 2018

दूसरे की फिक्र से कमाते हैं-दीपकबापूवाणी (Doosre ki Fikra se kamate hain-DeepakBapuWani)


बेकारी के जो सताये हैं,
राजमार्ग पर चले आये हैं।
‘दीपकबापू’ दिल बहला लेते
वादों का पिटारा जो वह लाये हैं।
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वादों के व्यापारी हमदर्द वेश धरेंगे,
धोखे से अपने घर भरेंगे।
कहें दीपकबापू लाचार और लालची
इंसान ठगी पर यूं ही मौन करेंगे।
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दूसरे की फिक्र से कमाते हैं,
हमदर्दी की दुकान जमाते हैं।
कहें दीपकबापू अंग्रेजी के गुलाम
हिन्दी में साहब बन जाते हैं।
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जिंदगी में दर्द होना है जरूरी,
हर रस पीना दिल की है मजबूरी।
कहें दीपकबापू डर लगता
जब सोच से हो जाती चिंता की दूरी।
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सिंहासन मिलते ही नया चेहरा लगा,
मित्र छोड़े घर पर पहरा लगा।
कहें दीपकबापू वीर हुए कायर
महल में छिपे राज गहरा जगा।
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सर्वांग संपन्न फिर भी बेबस बनते,
धन मद में सीने भी तनते।
कहें दीपकबापू भ्रष्ट राह मिले
चलें फिर तन मन से उफनते।
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Sunday, April 15, 2018

चौराहों पर वफादारी की दुकानें सजी हैं-दीपकबापूवाणी (Chaurahon par Vafadari ki Dukan-DeepakBapuWani)

सजे कक्ष में बैठे काजू के साथ जाम पीते, मजा लेकर सवाल पूछें गरीब कैसे जीते।
‘दीपकबापू’ अंग्रेजी से न शिक्षित रहे न गंवार, फ टे अर्थतंत्र में भ्रष्टाचार के पैबंद सीते।।
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माया के बंधक इंसानों पर भरोसा न करें, बेवफाई और दगा पर किसे कोसा न करें।
‘दीपकबापू’ फरिश्ते का मुखौट पहनते हैं, कहें अपने मन में शैतान पालापोसा न करें।।
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चौराहों पर वफादारी की दुकानें सजी हैं, दागदारों के घर चैर की बंसियां बजी हैं।
‘दीपकबापू’ अपने कंधे बनाते किसी की सीढ़िया, लात पड़ने से जमीन पर सजी हैं।।
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राम का नाम जपते ओटने लगे कपास, ऐसे भक्तों से क्या करें अपने भले की आस।
‘दीपकबापू’ जमा करते रहे बरसों ईंट पत्थर, ऊंची दीवारों के बीच बनाया अपना वास।।
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Sunday, April 1, 2018

दर पर जज़्बात के सौदागर आ ही जाते हैं-दीपकबापूवाणी jazbaat ke saudagar ghar aahi jate hain-DeepakapuWani)

जैसा मंजर सामने वैसा दिल होता,
इश्क देख मचले कत्ल से रोता।
कहें दीपकबापू रसों का स्वाद जानो
लगाओ हास्य रस में गोता।
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काम करो ढेर सवाल उठते हैं,
नाकामी पर बवाल उठते हैं।
कहें दीपकबापू चादर ढंककर सोयें
लालची लोग लोभ में लुटते हैं।
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बाज़ार नये नये सामाज से सजे हैं,
उधार पैसा ले लो मजे ही मजे हैं।
कहें दीपकबापू कर्ज में डूबी सोच
हाथ में मोबाईल पूछें कितने बजे हैं।
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अपने रास्ते चलना भी नहीं है तय,
आगे पीछे चलता हादसे का भय।
कहें दीपकबापू जमाना बदहवास
धूमिल चरित्र  टूटी चाल की लय।
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हम न कभी उनसे पैसा मांगें न प्यार,
फिर भी दर पर जज़्बात के सौदागर आ ही जाते हैं।
न गुलाब न कमल उनके पास
सुगंध के वादे साथ लाते हैं।
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उपाधि बड़ी पर प्रतिभा पर शक है,
नकल से भी जो मिल रहा हक है।
कहें दीपकबापू अंग्रेजी पढ़े बेकार
उनकी दौड़ केवल नौकरी तक है।
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भ्रष्टाचार पर इतना ही झगड़ा हैं,
आपस में हिस्सा बांटने मुद्दा तगड़ा है।
कहें दीपकबापू वह ईमानदार दिखे
जिसने अकेले नियम को रगड़ा है।
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मत पूछना हिसाब में बच्चे हैं,
नारों के खिलाड़ी अंकों में कच्चे हैं।
कहें दीपकबापू डंडे थामे हैं वह
डर के बोलें सभी आप सच्चे हैं।
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Thursday, January 18, 2018

जनतंत्र में तख्त की जंग है जारी-दीपकबापूवाणी (Jnatantra mein takhta ki jung jari hai-DeepakBapuWani)

पत्थरों के शहरों में
जज़्बातों के मेले लगे हैं।
गले से गले भी मिलते
पर दिल से नहीं सगे हैं।
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रंगों से मन खाली
सभी चेहरा चमका रहे हैं।
सुरक्षित गुफा में बैठे कायर
धूप के वीरों का धमका रहे हैं।
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कामयाबी चाहते बढ़ा देती है,
दौलत भी चिंता चढ़ा देती है।
‘दीपकबापू’ महलों में बस गये जब
आशंका डर का पाठ पढ़ा देती है।
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जनतंत्र में तख्त की जंग है जारी
हर रोज नये मुखौटे की है बारी।
दीपकबापू भ्रष्टाचार विरोधी नहीं
बहस केवल बंटवारे की है सारी।
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चंदन के पेड़ से सांप लिपटे हैं,
राजप्रसाद ठगों के झुंड से पटे हैं।
‘दीपकबापू’ झूठ में लगे सोने के पांव
बेईमान सस्ते में ही निपटे हैं।
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दुश्मन को बाहर बुला लेते,
घर को डराकर सुला देते।
‘दीपकबापू’ किताब महंगी हुईं
ज्ञानी रूप धर सीना फुला देते।
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