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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Tuesday, January 28, 2014

स्वाह होने के रास्ते-हिन्दी व्यंग्य कविता(swah hone raste-hindi vyangya kavita)



दिखाते हैं हमदर्दी पर दर्द से उनका संबंध नहीं है,
रोज नये वादे करने के महाराथी पर वफा के पाबंद नहीं है।
वाक्पटुता के लिये मशहूर है वह पर शब्द सृजन नहीं करते,
इधर उधर से चुराकर कविता अपनी जुबान में  ही भरते।
रेतीली जमीन पर आम उगाने की हमेशा वह करेंगे बात,
दिन में लोगों के दर्दे पर बोलते पर  भुला देती उनको रात।
चलता रहेगा लोगों के जज़्बात से खेलने का सिलसिला,
लोग सौंप रहे शातिरों को दान पेटी किससे करेंगे गिला।
कहें दीपक बापू धोखे की आग के उनको कभी जलना ही होगा
टूटे इंसानों की आह से उनके स्वाह होने के रास्ते बंद नहीं है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  'Bharatdeep',Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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Wednesday, January 22, 2014

तुलसी दास दर्शन-छल कपट से राज्य करने वाले का पतन जल्दी होता है(tuslidas darshan-Chal kapat se rajya karne wale ka patan jaldi hot hai)



      पूरे विश्व में आधुनिक लोकतंत्र ने राजनीति शास्त्र का अध्ययन न करने वाले लोगों को भी राजकीय कर्म में आने के अवसर दिये हैं यह अलग बात कि उससे अनेक तरह के विरोधाभासी दृश्य देखने को मिलते हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली में राजसी कर्म के लिये पद प्राप्त करने के लिये योग्यता से अधिक चुनाव जीतने की कला का महत्व है। विभिन्न देशों में संविधान के अनुसार एक स्थाई राज्य व्यवस्था तो रहती है जिसे स्थाई तथा अस्थाई वेतनभोगी कर्मचारी स्वाभाविक रूप से चलाते हैं। उन्हें न तो चुनाव लड़ना है न जनता के प्रति जवाबदेही का भाव रखना है। वह स्थाई रूप से कार्य करते हैं यह अलग बात है कि सर या साहब बदलता रहता है। व्यवस्था की कार स्वतः चलती है पर उसमें बैठने वाला सर प्रजाजन अपने मत से तय करते हैं। यही कारण है कि अनेक ऐसे लोग जो व्यवस्था से परिचित नहीं होते वह भी तमाम तरह के वादे तथा दावे लोगों के सामने  जताकर चुनाव जीत जाते हैं। पद पर प्रतिष्ठत होने के पश्चात् राजनीति तथा प्रशासन की समझ न होने के कारण वह कोई काम नहीं कर पाते पर जनता में अपनी छवि बनाये रखने के लिये गरीबों, बीमारों, बच्चों, वृद्धों और स्त्रियों का उद्धारक बने रहने के लिये अनेक तरह के स्वांग रचते हैं।  भाषण करते हैं पर उनके दावों को कभी अमल में आते देखा नहीं जाता।  यही कारण है कि हम देख रहे हैं कि अनेक देशों में लोकतांत्रिक प्रणाली के बावजूद वहां की जनता में फैला असंतोष दिखाई देता है।
संत तुलसीदास कहते हैं कि
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सारदुल को स्वांग करि, कूकर की करतूति।
तुलसीता पर चाहिए, कीरति विजय विभूति।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-लोग सिंह की खाल ओढ़कर भी श्वान जैसा स्वांग करते हैं उस पर भी प्रतिष्ठा, विजय तथा ऐश्वर्य चाहते हैं।
राज करत बिनु काजहीं, करहि कुचालि कुसाजि।
तुलसीते दसकंध ज्यों, जइहैं सहित समाजि।।
          सामान्य हिन्दी में भावार्थ-बिना किसी विशेष कार्य किये छल कपट के साथ राज्य करने वाले का अतिशीघ्र पतन हो जाता है।
      राजकीय कर्म शुद्ध रूप से राजसी प्रकृत्ति का परिचायक है। तय बात है कि उसके लिये राजसी बृद्धि से काम लेना होता है जबकि देखा यह  गया है कि एक बार पद मिलने पर उच्च पदस्थ लोग अपने को मिलने वाली सुविधाओं के भोग तथा सम्मान में के मोह में फंस जाते हैं।  बौद्धिक रूप से आलस्य करते हुए तामसी वृत्ति का शिकार हो जाते हैं।  वह अपने पद का अधिक से अधिक अपने लिये उपयोग करते हैं जिससें चुनाव के दौरान उनकी धवल छवि बाद में मलिन होने लगती है।  इससे जनता में भारी निराशा व्याप्त होती है और कभी कभी उसका उग्र रूप भी प्रकट होता है।
      विश्व में लोकतांत्रिक प्रणाली होने हमारी सभ्यता का जहां एक आभूषण है अतः उससे दूर तो हुआ नहीं जा सकता पर यह आवश्यक है कि राजकीय पद पर प्रतिष्ठत होने के लिये उत्सुक लोग चुनाव मैदान में उतरने से पहले अर्थशास्त्र तथा प्रबंध शास्त्र के साथ राजनीति शास्त्र का अध्ययन भी कर लें। जब तक उनकी समझ में राजकीय कर्म के मूलतत्व न आयें तब तक वह उससे दूर ही रहें। इससे उनका तथा जनता दोनों का भला होगा।


लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
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Monday, January 13, 2014

नये नायक, नये गायक-हिन्दी व्यंग्य कविता(naye gayak, naye gayak-hindi satire poem)


खबर को खींचते रबड़ की तरह
उबाऊ बहसों के बीच
पर्दे पर सामानों के विज्ञापन
यूं ही चलाये जाते हैं,
शय खरीदने की सोचें
या करें हम  चिंत्तन यही भूल जाते हैं।
कहें दीपक बापू
बाज़ार के नये उत्पादों को बेचने के लिये
रोज नये नायक चाहिये,
प्रचार में उनके गीत बजवाने के लिये
नये गायक चाहिये,
सौदागर के कब्जे में है पूरा ज़माना,
जिनको आता है बस कमाना,
नित्य नये नये चेहरे रखते सामने
पैसे लेकर बुत करते उनका काम
कोई नाचकर
कोई गाकर
आम इंसानों की जेब
दिल बहलाते हुए खाली किये जाते हैं।


लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Wednesday, January 1, 2014

लोकतंत्र में बाज़ार और प्रचार समूहों की शक्ति अधिक-ईसवी संवतः 2014 पर एक संदेशपूर्ण चिंत्तन लेख (loktanta mein bazar aur prachar samoohon ki shakti adhik- a massege and thought article on new year 2014)



            ईसवी संवत् 2014 प्रारंभ हो गया है।  वैसे देखा जाये तो हमारे यहां हिन्दू संवत् अध्यात्मिक रूप से हमारे हृदय के अधिक निकट होता है पर उसका राजकीय महत्व न होने से उसे केवल सामाजिक उत्सव मनाया जाता है जिसे बाज़ार और प्रचार माध्यम अधिक समर्थन नहीं देते। आजकल समाज पर बाज़ार और प्रचार का अधिक प्रभाव है और इससे सामाजिक संस्कार और संस्कृति निश्चित रूप से प्रभावित हो रही है।  देखा जाये तो जब तक पारंपरिक पर्वों से बाज़ार का लाभ होता था तब तक प्रचार माध्यम अपने विज्ञापन स्वामियों के लिये भारतीय संस्कृति का बोझ ढोते रहे।  अब पश्चिमी संस्कृति से बाज़ार में  विदेशी प्रभाव से परिष्कृत उत्पादों का प्रभाव बढ़ा है। खान पान, रहन सहन तथा मनोरंजन के साधन अब स्वदेशी रूप का प्रभाव खो चुके हैं। इसलिये वैलंटाईन डे तथा ईसवी नव संवत् पर नये उपभोग के रूपों के निर्मित  उत्पाद बेचने के लिये प्रचार माध्यम अपनी रणनीति बनाते हैं।
            एक बात हमारे समझ में नहीं आती कि आनंद में यह उत्तेजना क्या होती है? टीवी पर बर्फीले इलाके में घूम रहे पर्यटक ने साक्षात्कार में कहा कि यहां बहुत एक्साईटमेंट हो रहा है।’’
            हमें अंग्रेजी कम आती है पर एक्साईटमेंट का आशय उत्तेजना से होता है।  आनंद की यह उत्तेजना शराब से अधिक मिलती है।  इस तरह की उत्तेजना मनुष्य के विवेक का हरण करती है। शराब के बाद दूसरा आंनद तब आता है जब उसके चरम पर होते ही आदमी  किसी से लिपट जाता है। मां अपने बच्चे की लीला से जब आनंदित होती है तब वह उसे गले से लिपटा देती हैं। पिता जब बेटी से प्रसन्न होता है तो उसके सिर पर हाथ फेरता है।  कहने का आशय यह है कि आदमी आनंद की उत्तेजना में किसी दूसरे देह का स्पर्श करता है।  इस तरह बर्फ पर पांव रखकर चलना या उसे उछालना किस तरह आनंद के चरमोत्कर्ष पर पहुंचाता है यह कहना कठिन है।  बहरहाल बाज़ार के प्रचारक आदमी को आनंद के चरमोत्कर्ष पर पहुंचाने का तीव्र प्रयास करता है जिसमें विवेक के हृास के साथ  परंपरा और संस्कारों की मूल्यहीनता प्रकट होने की संभावना अधिक रहती है।
            बाज़ार और प्रचार समूहों की शक्ति के आगे समाज किस तरह नाचता है यह हम देख ही चुके हैं।  जिसे समाज पर नियंत्रण करना हो वह बाज़ार के सौदागरों सांठगांठ कर प्रचार प्रबंधकों के दम पर ढेर सारी लोकप्रियता हासिल कर सकता है। देश में उदारीकरण के बाद मध्यमवर्गीय समाज बुरी तरह से बिखरा है। खासतौर से लड़कों को रोजगार और लड़कियों के विवाह की समस्या इस वर्ग के लिये जटिल हुई है।  सबसे बड़ी बात यह कि रोजगार में असुरक्षा का भाव पैदा हुआ है।  एक अर्थशास्त्री के नाते हम देखें तो आज से पंद्रह बीस वर्ष पूर्व तक एक स्थिर समाज था जो स्वयं को अस्थिर अनुभव कर रहा है।  बड़ी कंपनियों के आगमन से नौकरियों का सृजन हुआ है पर लघु तथा व्यवसायों में लगे मध्यम वर्ग के लिये अब अस्तित्व बचाने का संकट सामने हैं। कंपनी नामक दैत्य समाज को खाता जा रहा है। छोंटे व्यवसायी का सम्मान लगभग खत्म हो चुका है।
            अभी हाल ही में राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य पर एक नये दल का उदय हुआ है। अन्ना हजारे जी ने एक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन प्रारंभ किया जिससे उनके कुछ भक्तों को विशेष प्रचार मिला।  उन्होंने एक राजनीतिक दल बनाया और सफल रहे। इस दल को पूरी तरह से प्रचार समूहों का सहारा मिला इसमें संशय नहीं है। अन्य स्थापित दल इससे विचलित हो गये हैं क्योंकि अब देश के युवा इस दल की तरफ आकर्षित हो रहे हैं।  इसका कारण भी वाली है। इस दल ने भले ही दंत तथा नखहीन अल्पमत वाली सरकार बनायी है पर उसके मंत्री एकदम आम आदमी रहे हैं।  पच्चीस छब्बीस साल की लड़की मंत्री बन गयी है। अनेक युवा मंत्री बने है। इससे पहले स्थापित राजनीतिक दलों में युवाओं को कभी इस तरह उभरने का अवसर नहीं मिला।  सच बात तो यह है कि आज कोई भी आम परिवार अपने युवा पुत्र तथा पुत्री को राजनीतिक क्षेत्र में जाने की सलाह नहीं देता। यह एक तरह स्थापित रजनीतिक दलों में व्याप्त जड़ता के भाव के अनेक ऐसे प्रमाण है कि युवाओं के नाम राजनीतिक दलों में परिवारवाद के आधार पर चयन को प्राथमिकता दी। नये दल ने राजनीति मे ंव्याप्त इस जड़भाव के स्थान पर आशावाद का संचार किया है।  इससे वही लोग समझते हैं जिन्होंने कभी किसी राजनीतिक दल से नाता नहीं रखा।  दूसरी बात यह कि इसके मंत्री आम आदमी के बीच जिस तरह विचर रहे हैं उससे लोगों में उत्सुकता का भाव पैदा हो रहा है। आधुनिक लोकतंत्र में प्रचार के सहारे ही चुनाव में जीत या हार मिलती है ऐसे में आम आदमी का इस नये के प्रति रुझान एक या दो नहीं वरन् समस्त राजनीतिक दलों के संकट का कारण बन सकता है, एक सामान्य निरपेक्ष लेखक के रूप में हमारा तो ऐसा ही मानना है।
            आज 1 जनवरी 2014 को इसी नये दल के हमने कुछ जगह सदस्यता अभियान के लिये स्टॉल लगे देखे।  ऐसा लगा कि किसी कंपनी का प्रचार हो या जैसे एक नयी दुकान खुल गयी है। हमें पता नहीं इस दल के पीछे कौनसे वास्तविक तत्व हैं पर जब अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चल रहा था तब हमने कहा था कि वह प्रायोजित किया गया हो सकता है। विश्व में चल रहे असंतोष का प्रभाव भारत में परिलक्षित न हो इसलिये बाजार तथा प्रचार समूही इसे प्रायोजित कर रहे हैं। दूसरा यह भी कि बाज़ार तथा प्रचार समूहों के शिखर पुरुष विदेश में अपने समकक्ष लोगों के सामने सीना तानकर कह सकते होंगे कि उनके यहां भी इस तरह का आंदोलतन चल रहा है। इस तरह के ंसदेह का  कारण यह था कि इस अंादोलन के समाचारों तथा बहसों के बीच बाज़ार के उत्पादों का ही विज्ञापन हो रहा था। नया दल इसी आंदोलन की देन है और संभव  है कि वही आर्थिक ताकतें राजनीतिक प्रभाव बनाये रखने के लिये इस आशा के साथ मदद कर रही हों ताकि लोगों का आज की राजनीति के प्रति खत्म हो रहा रुझान बना रहे। इस तरह का अनुमान इसलिये भी किया जा सकता है कि इस दल के पर्दे पर दिख रहे कर्णधार पेशेवर समाज सेवक यानि चंदा लेकर लोगों का भला करते रहे हैं।  संभव है पर्दे के पीछे कुछ उत्साही, निष्कर्मी, तथा विद्वान इसे सहायता कर रहे हों क्योंकि उनका लक्ष्य समाज हित करना ही रहता है। कम से कम हम जैसे बौद्धिक लोग तो यह मानते हैं कि इस दल का उदय होना ही चाहिये था।  देश के निर्जीव होते जा रहे लोकतंत्र के लिये यह आवश्यक भी था।  संभव है कि हम जैसी सोच अनेक लोगों की हो बाज़ार और प्रचार समूहों ने इसे समझा हो इसलिये ही इस दल के अभ्युदय में जुटे हों।  इस दल को ढेर सारे सदस्य और चंदा मिल जायेगा इसमें संदेह नहीं है पर सवाल यह है कि देश में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्र मेें जो समस्यायें उनके निराकरण में यह दल कितना सहायका होगा? दिल्ली देश नहीं है पर वहां से कोई  निकले हल्के आशावादी संदेश पर लोगों का ध्यान जाता है।  संभव है कि कि हम जैसे लोगों यह सोच भी  बाज़ार तथा प्रचार समूहों के संयुक्त समाज नियंत्रण की रणनीति के प्रभाव में फंसने के कारण बनी हो। हमारे पास अपना कोई साधन तो है नहीं इसलिये वर्तमान सक्रिय प्रचार माध्यमों के आधार पर ही अपना चिंत्तन लिखते हैं।
            हमें सबसे अधिक चिंता अस्थिर समाज को लेकर है।  जाति, भाषा, वर्ण, धर्म तथा अन्य आधारों पर बने समाज टूट चुके हैं पर नया कुछ नहीं बन रहा है।  उम्मीद है नये ईसवी संवत् में कुछ नया होगा।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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