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Saturday, May 25, 2013

क्रिकेट मैचों में फिक्सिंग का भूत फिर बाहर आया-हिन्दी व्यंग्य लेख (cricket matchon mein fising ka bhoot fir samne aaya-hind vyangya lekh,satire article on cricket match)



       मामला अगर रुपये को हो तो कोई भी बिक सकता है।  कोई गेंद बेचकर गेंद फैक सकता है तो कोई बिककर बल्ला रोक सकता है।  कैच पकड़ने के लिये मेहनत होती है पर छोड़ने के लिये केवल हाथ रोकना है इसलिये कोई भी उंगलियों में फंसी गेंद टपका सकता है।  बल्ले से गेंद लगने पर एक सिरे से दूसरे सिरे पर खिलाड़ी पहुंचते ही हैं पर जिसने कदम बेचे हों वह रन आउट भी हो सकता है। जीतना सहज है पर आत्मसम्मान जिसने बेचा हो वह हार भी सकता है। क्रिकेट में कई ऐसे मैच भी सुनने को मिले हैं जिसमें आपस में जीत के लिये जूझती दिख रही टीमें वास्तव में हार के लिये खेल रही थीं।  उन्होंने अपनी हार बेची थी इसलिये जीतकर अपनी रकम खोना नहीं चाहती थीं।
         गेंद और बल्ले से खेले जाने वाले क्रिकेट को प्रचार की जरूरत नहीं है पर उसके विकास के नाम पर चलता हुआ खेल सट्टे की तरफ मुड़ गया है। कुछ लोग कह रहे हैं कि क्रिकेट बदनाम हो रहा है। एक दम हास्यास्पद बात है।  दरअसल क्रिकेट के नाम पर चल रही संस्थायें बदनाम हो रही है। उनकी साख बर्बाद हो रही है। यह संस्थायें केवल सार्वजनिक मैचों का आयोजन कर सकती हैं पर गली मोहल्लों में चलने वाले खेल पर उनका कोई नियंत्रण नही है। अगर इस तरह की संस्थाओं से खेल चलते तो कबड्डी खेलते हुए लोग कहीं नहीं दिखते।  अनेक मैदानों और पार्कों में कबड्डी खेलते हुए लोग मिल जायेंगे।  हमारा मानना है कि भारत में अनेक संस्थायें खेलों को बर्बाद ही अधिक करती हैं।  हाकी की बात करें। जब तक सामान्य प्राकृतिक मैदान पर हाकी खेली जाती थी तब तक सभी जगह उसके मैच होते थे।  दूसरे देशों से संपर्क बनाये रखने के प्रयास में हॉकी को कृत्रिम मैदान पर लाया गया।  उसके लिये विशेष मैदान होना जरूरी है जिनका हमारे देश में हर आम जगह पर होना संभव नहीं है। हॉकी बर्बाद हो गयी। इससे तो अच्छा होता तो विश्व स्तर पर हमारा देश हॉकी खेलना छोड़ देता तब लोग इसके पुराने संस्करण को स्वयं ही इसे ढोते रहते जैसे कबड़डी और खोखो को ढो रहे हैं।  विश्व के हाकी खेल नक्शे परं भारत का नाम नहीं होता पर भारत में हाकी खेली जा रही होती।
       बहरहाल क्रिकेट में हारजीत का रोमांच अब खत्म हो गया है।  भारतीय प्रचार माध्यम जबरन इसे जनता पर थोप रहे हैं। सट्टा और फिक्सिंग की खबरों में अब कोई नयापन नहीं है। सभी जानते हैं इंडियन प्रीमियर लीग में पैसे का खेल चल रहा है।  क्रिकेट खेल एक मंच की तरह है और खिलाड़ी उसमें बेजान पुतले बन गये हैं। मुख्य बात यह कि क्रिकेट खेल के अंतर्राष्ट्रीय मैचों होने वाला हार्दिक रोमांच इसमें अब  नहीं है। जब था तब मजा लिया। बाद में पता लगा कि वह भी नकली खेल था।  बड़े बड़े खिलाड़ियों के नाम फिक्सिंग में आये। एक खिलाड़ी ने तो अपने कप्तान पर उस पाकिस्तान के विरुद्ध कमतर प्रदर्शन करने के लिये दबाव डाला जिसे दुश्मन देश समझा जाता है।  उस समय भी इसी तरह फिक्सिंग की खबरों का क्रम चला। तब खेल में रोमांच के साथ ही देशभक्ति के भाव पर भी विचार करना पड़ा।  यह प्रचार माध्यम अपने बाज़ार के सौदागरों के लिये चाहे जब खेल के रोमांच को बिना देशभक्ति के भाव के बेचते हैं और चाहे जब उसमें से उसे निकाल देते हैं। ठीक उसी तरह जैसे दही की लस्सी में चाहे नमक मिलाओ या शक्कर ग्राहक तो पियेगा ही, झकमारकर पियेगा।
      जब क्रिकेट के रोमांच का भ्रम टूटा तब हृदय में  देशभक्ति के तत्व भी विचलित हुए।  उस समय हालत यह हो गयी थी कि हम सोचते थे कि क्या फिल्मी गानो को सुनना और उन पर झूमना ही देश भक्ति है? दूसरी बात यह भी कि हम देशभक्ति दिखायें तो किस तरह? लोग कहते हैं कि देशभक्त बनो।  क्या बीसीसीआई की टीम को भारत का प्रतिनिधि मानकर  उसकी टीम की जीत पर नाचना ही देशभक्ति का प्रमाण है? उस समय कुछ स्थानों पर पाकिस्तान की जीत पर सांप्रदायिक तनाव होने की संभावनाओं की बात सामने आती थी।  समुदाय विशेष के लोगो को संदेह की नज़र से देखा जाता था। खिलाड़ी के कप्तान के आरोप के बाद हमें लगा कि ऐसी खबरें भी प्रायोजित थी ताकि दूसरे समुदाय के लोग धर्म के नाम ही सही इस खेल को देखते रहें।  यह बाज़ार और प्रचार समूहों का संयुक्त प्रयास था।  अब जब बीसीसीआई को आरटीआई कानून से बाहर रखने के लिये उसके निजत्व का हवाला दिया जा रहा है तब मन ही मन यह बात तो उठ ही  सकती है कि हम अपने अंदर किसके लिये देशभक्ति का भाव लाते रहे थे। सबसे बड़ी बात तो यह कि एक तुच्छ खेल को देश का धर्म बताया जा रहा है। यकीनन हमारे जैसे लोग क्रिकेट को तुच्छ ही मानते हैं। केवल समय पास करने वाला खेल जीवन में सब कुछ नहीं हो सकता।
            हमें तो फिक्सिंग की खबरें प्रचार माध्यमों पर देखकर संदेह होता है कि कहीं वह भी तो प्रायोजित तो नहीं है।  कुछ पैदल मार कर शतरंज की बाजी जीतने का दावा कोई खिलाड़ी नहीं करता जब तक वह  को परास्त न करे।  यहां तो पैदल पकड़ ही क्रिकेट खेल को शुद्ध करने की बात कही जा रही है। एक बात बता दें कि शतरंज मे राजा मरता नहीं है, वह फसता हैं। हमने क्रिकेट खेलते थे और अब  शतरंज खेलते है। मालुम है जब फिक्सिंग का राजा नहीं फंसेगा तब कोई शुचिता नहीं आ पायेगी। तेरह साल पहले भी फिक्सिंग की खबरें आयी थीं तब दिल टूटा था।  अब जो खबरे आ रही हैं उसमें हम शायद दिलचस्पी नहीं लेते अगर उसमें जांच एजेंसियां और पुलिस शामिल नही होती।  पहले मामला ऊपर ही खत्म हो गया पर इस बात पुलिस राशन पानी लेकर फिक्सरों के पीछे पड़ी है। पहले बुकी जाते थे अब खिलाड़ी भी जेल गये हैं। भद्र लोग पर्दे के पीछे जमकर अभद्रता करते रहे। पुलिस का खौफ नहीं था।  अब पुलिस वाले घुसे हैं जिनके मारे अच्छे खासे की पेंट ढीली हो जाती हैं।  आमतौर से परंपरागत अपराध करने वाले मजबूत होते है जिनके साथ पुलिस सख्ती से पेश आकर ही अपराध उगलवा पाती है मगर क्रिकेट के भद्र पुरुषों के साथ पुलिस को अधिक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।  पुलिस उनके साथ सख्ती कर भी नहीं सकती। धनवानों की सहनशक्ति कम होती है और पुलिस यह जानती है। एक डंडा देखकर ही भद्र पुरुष सब उगले दे रहे हैं।  क्रिकेट को भद्रजनों का खेल कहा जाता रहा है इसलिये पूरा देश इसमें लगा रहा। अब इसकी नाम पर पर्दे के पीछे खेले जाने वाले अभद्र खेल को देखकर सभी सोचने को मजबूर होंगे।  दूसरी बात यह कि भद्र खेल के नियंत्रणकर्ता अभी तक बेफिक्र थे कि कोई पुलिस वाला उनके घर में नहीं झांकेगा।  अब यह  भ्रम टूट गया है। लोगों को लगता है कि अब भी कुछ नहीं होगा मगर  हमारा मानना है कि पुलिस की घुसपैठ का प्रभाव पड़ेगा।  फिर जिस तरह पुलिस के हवाले से समाचार आये हैं कि किस तरह एक खिलाड़ी को हर दो घंटे में नींद से उठाती हैं।  उसे सोने नहीं देती है। न पकड़े गये राज्य रूपी भद्र लोगों की नींद हराम करने के लिये ऐसी खबरें पर्याप्त हैं। यह भद्र पुरुष प्रकटतः चाहे जो कुंछ कहें मगर कहीं न कहीं पुलिस का खौफ उनके दिमाग में हैं और आगे भी बना रहेगा।  तब संभव है कि फिक्सिंग पूरी तरह खत्म न हो पर उसे बड़े स्तर पर संरक्षण देना मुश्किल होगा।  पुलिस ने कुछ खिलाड़ियों पर फिक्सिंग के नहीं वरन् सट्टेबाजी के साथ ही धोखाधड़ी का आरोप लगाया है। एक धारा के अनुसार इस मामले में उनको उम्रकैद तक हो सकती है। हालांकि न्यायालय ने पुलिस को इसके लिये लताड़ा है पर भद्र पुरुषों के लिये पुलिस का व्यवहार ही डरावना है और यह डर इतना अधिक होगा कि उन्हें यह बात याद भी नहीं रहेगी कि न्यायालय में पुलिस का फटकारा है। ऐसे में भद्र पुरुष अब इस धंधे  को आगे कितना जारी रख पायेंगे, पता नहीं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  'Bharatdeep',Gwalior
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Sunday, May 5, 2013

गर्मी में वाणी का मौन ही बरफ का काम कर सकता है-ग्रीष्म ऋतु पर हिन्दी लेख (Garmi mein vani ka maun he baraf ka kam kar sakta hai-greeshma ritu par hindi lekh)



    उत्तर भारत में अब गर्मी तेजी से बढ़ती जा रही है। जब पूरा विश्व ही गर्म हो रहा हो तब नियमित रूप से गर्मी में रहने वाले लोगों को  पहले से अधिक संकट झेलने के लिये मानसिक रूप से तैयार होना ही चाहिये।  ऐसा नहीं है कि हमने गर्मी पहले नहीं झेली है या अब आयु की बजह से गर्मी झेलना कठिन हो रहा है अलबत्ता इतना अनुभव जरूर हो रहा है कि गर्मी अब भयानक प्रहार करने वाली साबित हो रही है।  मौसम की दूसरी विचित्रता यह है कि प्रातः थोड़ा ठंडा रहता है जबकि पहले गर्मियों में निरंतर ही आग का सामना होता था।  प्रातःकाल का यह मौसम कब तक साथ निभायेगा यह कहना कठिन है।
   मौसम वैज्ञानिक बरसों से इस बढ़ती गर्मी की चेतावनी देते आ रहे हैं।  दरअसल इस धरती और अंतरिक्ष के बीच एक ओजोन परत होती है  जो सूर्य की किरणों को सीधे जमीन पर आने से रोकती है।  अब उसमे छेद होने की बात बहुत पहले सामने आयी थी।  इस छेद से निकली सीधी किरणें देश को गर्म करेंगी यह चेतावनी पहुत पहले से वैज्ञानिक देते आ रहे हैं।  लगातार वैज्ञानिक यह बताते आ रहे हैं कि वह छेद बढ़ता ही जा रहा है। अब कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि विश्व में विकास के मंदिर कारखाने ऐसी गैसें उत्सजर्तित कर रहे हैं जो उसमें छेद किये दे रही हैं तो कुछ कहते हैं कि यह गैसे वायुमंडल में घुलकर गर्मी बढ़ा रही हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि ओजोन पर्त के बढ़ते छेद की वजह से गर्मी बढ़ रही है या फिर गैसों का उपयोग असली संकट का कारण है या फिर दोनों ही कारण इसके लिये तर्कसंगत माने, यह हम जैसे अवैज्ञानिकों के लिये तय करना कठिन है ।  बहरहाल विश्व में पर्यावरण असंतुलन दूर करने के लिये अनेक सम्मेलन हो चुके हैं। अमेरिका समेत विश्व के अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्ष उनमें शािमल होने की रस्म अदायगी करते हैं। फिर गैस उत्सर्जन के लिये विकासशील देशों को जिम्मेदार बताकर विकसित राष्ट्रों के प्रमुख अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। यह अलग बात है कि अब इस असंतुलन के दुष्प्रभाव विकसित राष्ट्रों को भी झेलनी पड़ रहे है।
        एक बात तय है कि आधुनिक कथित राजकीय व्यवस्थाओं वाली विचाराधारायें केवल रुदन तक ही सभ्यता को ले जाती हैं।  लोकतंत्र हो या तानाशाही या राजतंत्र कोई व्यवस्था लोगों की समस्या का निराकरण करने के लिये राज्यकर्म में लिप्त लोगों को प्रेरित करते नहीं लगती। दरअसल विश्व में पूंजीपतियों का वर्चस्प बढ़ा है। यह नये पूंजीपति केवल लाभ की भाषा जानते हैं। समाज कल्याण उनके लिये निजी नहीं बल्कि शासन तंत्र का विषय  है। वह शासनतंत्र जिसके अनेक सूत्र इन्हीं पूंजीपतियों के हाथ में है।  यह पूंजीपति यह तो चाहते है कि विश्व का शासनतंत्र उनके लाभ के लिये काम करता रहे। यह वर्ग तो यह भी चाहता है कि  शासनतंत्र आम आदमी तथा पर्यावरण की चिंता करता तो दिखे, चाहे तो समस्या हल के लिये दिखावटी कदम भी उठाये पर उनके हितों पर कुठाराघात बिल्कुल न हो। जबकि सच यह है कि यही इन्हीं पूंजीपतियों  के विकास मंदिर अब वैश्विक संकट का कारण भी बन रहे हैं। सच बात तो यह है कि वैश्विक उदारीकरण ने कई विषयों को  अंधरे में ढकेल दिया है।  आर्थिक विकास की पटरी पर पूरा विश्व दौड़ रहा है पर धार्मिक, सामाजिक तथा कलात्मक क्षेत्र में विकास के मुद्दे में नवसृजन का मुद्दा अब गौण हो गया है।  पूंजीपति इस क्षेत्र में अपना पैसा लगाते हैं पर उनका लक्ष्य व्यक्तिगत प्रचार बढ़ाना रहता है। उसमें भी वह चाटुकारों के साथ ही ऐसे शिखर पुरुषों को प्रोत्साहित करते हैं जो उनकी पूंजी वृद्धि में गुणात्मक योगदान दे सकें।  अब वातानुकूलित भवनों, कारों, रेलों तथा वायुयानों की उपलब्धता ने ऐसे पूंजीपतियों को समाज के आम आदमी सोच से दूर ही कर दिया है।
          बहरहाल अगले दो महीने उत्तरभारत के लिये अत्ंयंत कष्टकारक रहेंगे।  जब तक बरसात नहीं आती तब तक सूखे से दुर्गति के समाचार आते रहेंगे।  यह अलग बात है कि बरसात के बाद की उमस भी अब गर्मी का ही हिस्सा हो गयी है।  इसका मतलब है कि आगामी अक्टुबर तक यह गर्म मौसम अपना उग्र रूप दिखाता रहेगा।  कुछ मनोविशेषज्ञ मानते हैं कि गर्मी का मौसम सामाजिक तथा पारिवारिक रूप से भी तनाव का जनक होता है। यही सबसे बड़ी समस्या हेाती है। सच बात तो यह है कि कहा भी जाता है कि तन की अग्नि से अधिक मन की अग्नि जलाती हैं संकट तब आता है जब आप शांत रहना चाहते हैं पर सामने वाला आपके मन की अग्नि भड़काने के लिये तत्पर रहता है।  ऐसे में हम जैसे लोगों के लिये ध्यान ही वह विधा है जो ब्रह्मास्त्र का काम करती है।  जब कोई गर्मी के दिनों में हमारे दिमाग में गर्मी लाने का प्रयास करे ध्यान में घुस जायें।  वैसे भी गर्मी के मार से लोग जल्दी थकते  लोग अपनी उकताहट दूसरे की तरफ धकेलने का प्रयास करते हैं।  उनसे मौन होकर ही लड़ा जा सकता है।  वहां मौन ही बरफ का काम कर सकता है           

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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