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Thursday, October 30, 2008

धमाकों से शब्द उदास हो जाते हैं-हिन्दी कविता

जब बमों की आवाज से
शहर काँप जाते हैं
बाज़ार में सड़कों पर
फैले खून के दृश्य
आखों के सामने आते हैं
तब बैठने लगता है दिल
लड़खडाने लगती है जुबान
हाथ रुक जाते हैं
तब अपने शब्द लडखडाते नजर आते हैं

लगता है कि कोई
मुस्करा रहा है यह बेबसी देखकर
क्योंकि बुलंद आवाज और
बोलते शब्द उसे पसंद नहीं आते हैं
उसके चेहरे पर है कुटिलता का भाव
लगता है उसी ने दिया है घाव
आजादी देने के बहाने
अपने पास बुलाकर
मन में खौफ भरकर
लोगों को गुलाम बनाने के बहाने उसे खूब आते हैं

क्या बाँटें दर्द अपना
किससे कहें हाल दिल का
लोगों के खून के साथ होली खेलने वाले
चुपके से निकल जाते हैं
अपना उदास चेहरा किसे दिखाएँ
कही अपने कदम न लडखडायें
यहाँ खंजर लिए है कौन
पता नहीं चलता
पीठ में घोंपने के लिए सब तैयार नजर आते हैं

ज़माने में अमन और चैन बेचने का भी
व्यापार होता है
भले ही मिल नहीं पाते हैं
पर दहशत के सौदागर फलते हैं इसलिए
क्योंकि दाम लेकर खून का
सौदा हाथों हाथ किये जाते हैं
इंसानी रिश्तों को वह क्या समझेंगे
जो इसका मोल नहीं जान पाते हैं
बुलंद आवाज़ और शब्दों की ताकत क्या समझेंगे
वह बम धमाकों में ही
अपने को कामयाब समझ पाते हैं
उनकी आवाज से खून बहता है सड़क पर
तकलीफों के कारवाँ
लोगों के घर पहुँच जाते हैं
पर सहमा शब्द
लडखडाते हुए चलते हुए भी
लम्बी दूरी तय कर जाते हैं
मिटते नहीं कभी
समय की मार से मरने वाले बचे ही कहाँ
पर मारने वाले भी कब बच पाते हैं
दहशत से शब्द कभी न कभी तो उबार आते हैं
भले ही धमाको से शब्द उदास हो जाते हैं

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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Wednesday, October 29, 2008

आम और खास आदमी-व्यंग्य कविता

समाज को केक की तरह बांट कर
वह खा जाते
मतलब निकाल गया
कुछ इसने खाया तो कुछ उसने
खास आदमी के दरबारी खेल को
आम आदमी भला कहां समझ पाते
हर बार उनकी दरबार में
समूह में केक की तरह सज जाते
इशारा मिलते ही खुद ही
छूरी बनकर अपने टुकड़े किये जाते
.........................

खास आदमी के
पद,पैसे और वैभव को देखकर
आम आदमी उनकी
अक्ल की तारीफ के पुल बांधे जाते
न हो जिनके पास वह
अक्ल होते हुए भी
अपने घर में ही बैल माने जाते
इसलिये अक्लमंद आम आदमी
खामोशी में अपने लिये अमन और चैन पाते

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Monday, October 27, 2008

दीपावली पर जमकर मिठाई खायी लोगों को बतायेंगे-हास्य कविता

दीपावली मेले में दुकान से
घर सजाने के लिये मिट्टी के बने
कुछ खिलौने खरीदने पर
उनका मिठाई का ध्यान आया तो बोले
‘भईया, तुम्हारे मिट्टी के फल तो
असली लगते हैं
हम इसे अपने ड्रांइग रूम में सजायेंगे
ऐसे ही मिठाई के भी दिखाओ
आजकल विषैले खोये की वजह
से मिठाई खरीदने की हिम्मत नहीं होती
अगर मिल जायें मिठाई के खिलौने तो बहुत अच्छा
उसे भी इनके साथ सजायेंगे
हमने भी दीपावली पर जमकर
मिठाई खाई लोगों को बतायेंगे

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Saturday, October 25, 2008

अपने हाथ मलते रहे-हिन्दी शायरी

उनकी निगाहों पर ही
हमेशा मरते रहे
जो देखा उन्होंने एक नज़र
हम हर बार आहें भरते रहे
कभी कोशिश नहीं की
उनके दिल को पढने की
जो आँखों में हैं वही होगा उसमें भी
यही सोचकर उनकी संगत करते रहे
जब उन्होंने खोला दिल का राज़ तो
किसी और का नाम लिखा था
हमें कुछ फिर नहीं दिखा था
आँखे बंद कर बस अपने हाथ मलते रहे

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Tuesday, October 21, 2008

अपने शहर पर इतना न इतराओ-व्यंग्य कविता

अपने शहर पर इतना नहीं इतराओ
कि फिर पराये लगने लगें लोग सभी
कभी यह गांव जितना छोटा था
तब न तुम थे यहां
न कोई बाजार था वहां
बाजार बनते बड़ा हुआ
सौदागर आये तो खरीददार भी
गांव से शहर बना तभी

आज शहर की चमकती सड़कों
पर तुम इतना मत इतराओ
बनी हैं यह मजदूरों के पसीने से
लगा है पैसा उन लोगों का
जो लगते हैं तुमको अजनबी
‘मेरा शहर सिर्फ मेरा है’
यह नारा तुम न लगाओ
तुम्हारे यहां होने के प्रमाण भी
मांगे गये तो
अपने पूर्वजों को इतिहास देखकर
अपने बाहरी होने का अहसास करने लगोगे अभी

अपने शहर की इमारतों और चौराहों पर
लगी रौशनी पर इतना मत इतराओ
इसमें जल रहा है पसीना
गांवों से आये किसानों का तेल बनकर
घूमने आये लोगों की जेब से
पैसा निकालकर खरीदे गये बल्ब
मांगा गया इस रौशनी का हिसाब तो
कमजोर पड़ जायेंगे तर्क तुम्हारे सभी

यह शहर धरती का एक टुकड़ा है
जो घूमती है अपनी धुरी पर
घूम रहे हैं सभी
कोई यहां तो कोई वहां
घुमा रहा है मन इंसान का
अपने चलने का अहसास भ्रम में करते बस सभी
जिस आग को तुम जला रहे हो
कुछ इंसानों को खदेड़ने के लिये
जब प्रज्जवलित हो उठेगी दंड देने के लिये
तो पूरा शहर जलेगा
तुम कैसे बचोगे जब जल जायेगा सभी

अपने शहर की ऊंची इमारतों और
होटलों पर इतना न इतराओ
दूसरों को बैचेन कर
अपने लोगों को अमन और रोटी दिलाने का
वादा करने वालों
बरसों से पका रहे हो धोखे की रोटी
दूसरों की देह से काटकर बोटी
अधिक दूर तक नहीं चलेगा यह सभी
दूसरों की भूख पर अपने घर चलाने का रास्ता
बहुत दूर तक नहीं जाता
क्योंकि तुम हो छीनने की कला में माहिर
रोटी पकाना तुमको नहीं आता
जान जायेगें लोग कुछ दिनों में सभी

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Sunday, October 19, 2008

महापुरुषों में जादूगर कहलायेगा-हास्य कविता

अपने नवजात पोते को लेकर
दादाजी पहुंचे भविष्यवक्ता के पास
और बोले
''महाराज मेरा बेटा तो एक
क्लर्क बनकर रह गया
उसका दर्द किसी तरह सह गया
मेरे खानदान का नाम आकाश में चमकेगा
ऐसा कोई चिराग मेरे घर आएगा
इन्तजार करते हुए बरसों बीत गए
आप देखो इस बालक को क्या
अपनी जिन्दगी में यह तरक्की कर पायेगा"

उसका हाथ देख भविष्वक्ता ने कहा
"नहीं, यह ऐसा कुछ नहीं कर पायेगा"

यह सुन दादाजी का हो गया मूंह उदास
भविष्य वक्ता आये उसके कुछ और पास
बोले-
'पर विचलित क्यों होते हो
फिर भी तुम्हारा काम पूरा कर पायेगा
ज़माने भर को देगा आश्वासन
जो कभी पूरी नहीं करेगा
अनेक करेगा घोषणाएं
पर उस पर कभी अमल नहीं करेगा
चिंता मत करो
बस किसी भी तरह अपना घर भरेगा
नित करेगा नए स्वांग
सभी जादूगर करेंगे इसके हुनर की मांग
बहुत दूर तक पैदल चलता दिखेगा पर
कार से बाहर नहीं निकालेगा टांग
अपनी मोहनी विधा से सबका दिल जीत लेगा
नित नए नए नारे लगायेगा
अनेक वाद चलाएगा
ऐसे भ्रम जाल रचेगा
लोग भुला देंगे पुराने सपनों को
इसके नए दिखाए से हर कोई प्रीत करेगा
जादूगरों में महापुरुष और
महापुरुषों में जादूगर कहलायेगा
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Monday, October 13, 2008

जिन्दे को खाए, पर मरे से डरता आदमी-हास्य व्यंग्य कविता

बरसात का दिन, रात थी अंधियारी
गांव से दूर ऐक झौंपडी में
गरीब का चूल्हा नही जल पाया
घर में थी गरीबी की बीमारी
भूख से बिलबिलाते बच्चे और
पत्नी भी परेशानी से हारी
देख नही पा रहा था
आखिर चल पडा वह उसी साहूकार के घर
जिसने हमेशा भारी सूद के साथ
जोर जबरदस्ती वसूल की रकम सारी
जिसकी वजह से छोडा था गांव
और उसके परिवार सहित मरने की
झूठी खबर सुनकर
भूल गयी थी जनता सारी


बरसात में भीगे सफ़ेद कपडे उस पर
जमी थी धूल ढेर सारी
आंखें थीं पथराईं गाल पर बह्ते आंसू
साहूकार के घर तक पहुचते-पहुंचते
चेहरा हो गया ऐकदम भूत जैसा
रात के अंधियारे में देखकर उसे
सब घबडा गये वहां के नौकर
भागते-भागते मालिक को देते गये खबर सारी


जब तक वह संभलता पहुंच गया उसके पास
ताकतवर बना गरीब अपने भूत की बलिहारी
जिसकी आवाज थी बंद, मन था भारी
उसने मांगने के लिये हाथ एसे उठाये
जैसे हो कोई भिखारी
साहूकार कांप रहा था
भागा अंदर और अल्मारी से
निकाल लाया नोटों की गड्ढी
और आकर उसके हाथ में दी
कागज पर अंगूठा लगाने के
इंतजार में वह खडा रहा
कांपते हुए साहूकार ने कहा
''और भी दूं'
तेज बरसात की आवाज में उसने नहीं सुना
बस स्वीकरोक्ति में अपना सिर हिलाया
साहुकार फ़िर अंदर गया और गड्ढी ले आया
और उसके हाथ में दी
उसने हाथ में लेते हुए
अंगूठे के निशान के लिये किया इशारा
साहूकार था डर का मारा बोला
'महाराज उसकी कोई जरूरत नहीं है
आप मेरी जान बख्श दो, चाहे ले लो दौलत सारी'
वह लौट पडा वापस यह सोचकर कि
मेरी परेशानी से साहूकार द्रवित है
इसलिये दिखाई है कृपा ढेर सारी


साहूकार का ऐक समझदार नौकर
पूरा दृश्य देख रहा था
वह उस गरीब के पीछे आया
और उससे कहा
'मैं जानता हूं तुम भूत नहीं हो
बरसात की वजह से तुम्हें काम
नहीं मिलता होगा इसलिये कर्जा मांगने आये हो
अपने हाल की वजह से भूत की तरह छाये हो
कभी तुमने सोचा भी नहीं होगा
आज इतने पैसे पाये हो
कल तुम छोड् देना अपना घर
वरना टूट पडेगा साहूकार का कहर्
कल फ़ैल जायेगी पूरे गांवों में खबर सारी
मैं भी तुम्हारी तरह गरीब हूं
इसलिये करता हूं तरफ़दारी'
उस गरीब के समझ में आयी पूरी बात
और भूल गया वह अपनी भूख और प्यास
और नोटों की गड्ढी की तरफ़ देखते हुए बोला
'कितनी अजीब बात है
भूखे को रोटी नहीं देते और
भूत के लिये तिजोरी खोल देते
जिंदे को जीवन भर सताएं
मरों से मांगें जान की बख्शीश्
गरीब से करें सूद पर सूद वसूल
उसके भूत के आगे भूल जायें पहले
अंगूठे लगवाने का उसूल
कल छोड जाउंगा अपना घर
भूतों पर यकीन नही था मेरा
पर अपने इंसान होने की बात भी जाउंगा भूल
नहीं करूंगा फ़िर याद जिंदगी सारी
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Friday, October 10, 2008

जैसा ज्ञान, वैसा बखान-हास्य व्यंग्य

सिनेमा या टीवी के पर्दे पर चुंबन का दृश्य देखकर लोगों के मन में हलचल पैदा होती है। अगर ऐसे में कहीं किसी प्रसिद्ध हस्ती ने किसी दूसरी हस्ती का सार्वजनिक रूप से चंुबन लिया और उसकी खबर उड़ी तो हाहाकार भी मच जाता है। कुछ लोग मनमसोस कर रह जाते हैं कि उनको ऐसा अवसर नहंी मिला पर कुछ लोग समाज और संस्कार विरोधी बताते हुए सड़क पर कूद पड़ते हैं। चुंबन विरोधी चीखते हैं कि‘यह समाज और संस्कार विरोधी कृत्य है और इसके लिये चुंबन लेने और देने वाले को माफी मांगनी चाहिये।’

अब यह समझ में नहीं आता कि सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना समाज और संस्कारों के खिलाफ है या अकेले में भी। अगर ऐसा है तो फिर यह कहना कठिन है कि कौन ऐसा व्यक्ति है जो कभी किसी का चुंबन नहीं लेता। अरे, मां बाप बच्चे का माथा चूमते हैं कि नहीं। फिर अकेले में कौन किसका कैसे चुंबन लेता है यह कौन देखता है और कौन बताता है?

सार्वजनिक रूप से चुंबन लेने पर लोग ऐसे ही हाहाकार मचा देते हैं भले ही लेने और देने वाले आपस में सहमत हों। अगर किसी विदेशी होंठ ने किसी देशी गाल को चुम लिया तो बस राष्ट्र की प्रतिष्ठा के लिए खतरा और समाज और संस्कार विरोधी और भी न जाने कितनी नकारात्मक संज्ञाओं से उसे नवाजा जाता है। कहीं कहीं तो जाति,धर्म और भाषा का लफड़ा भी खड़ा हो जाता है। पश्चिमी देशों में सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना शिष्टाचार माना जाता है जबकि भारत में इसे अभी तक अशिष्टता की परिधि में रखा जाता है। यह किसने रखा पता नहीं पर जो रखते हैं उनसे बहस करने का साहस किसी में नहीं होता क्योंकि वह सारे फैसले ताकत से करते हैं और फिर समूह में होते हैं।

इतना तय है कि विरोध करने वाले भी केवल चुंबन का विरोध इसलिये करते हैं कि वह जिस सुंदर चेहरे का चुंबन लेता हुआ देखते हैं वह उनके ख्वाबों में ही बसा होता है और उनका मन आहत होता है कि हमें इसका अवसर क्यों नहीं मिला? वरना एक चुंबन से समाज,संस्कृति और संस्कार खतरे में पड़ने का नारा क्यों लगाया जाता है।
दूसरे संदर्भ में इन विरोधियों को यह यकीन है कि समाज में कच्चे दिमाग के लोग रहते हैं और अगर इस तरह सार्वजनिक रूप से चुंबन लिया जाता रहा तो सभी यही करने लगेंगे। ऐसे लोगों की बुद्धि पर तरस आता है जो पूरे समाज को कच्ची बुद्धि का समझते हैं।

फिल्मों में भी नायिका के आधे अधूरे चुंबन दृश्य दिखाये जाते हैं। नायक अपना होंठ नायिका के गाल के पास लेकर जाता है और लगता कि अब उसने चुुंबन लिया पर अचानक दोनों में से कोई एक या दोनों ही पीछे हट जाते हैं। इसके साथ ही सिनेमाहाल में बैठे लड़के -जो इस आस में हो हो मचा रहे होते हैं कि अब नायक ने नायिका का चुंबन लिया-हताश होकर बैठ जाते हैं। चुम्मा चुम्मा ले ले और देदे के गाने जरूर बनते हैं नायक और नायिक एक दूसरे के पास मूंह भी ले जाते हैं पर चुंबन का दृश्य फिर भी नहीं दिखाई देता।

आखिर ऐसा क्यों? क्या वाकई ऐसा समाज और संस्कार के ढहने की वजह से है। नहीं! अगर ऐसा होता तो फिल्म वाले कई ऐसे दृश्य दिखाते हैं जो तब तक समाज में नहीं हुए होते पर जब फिल्म में आ जाते हैं तो फिर लोग भी वैसा ही करने लगते हैं। फिल्म से सीख कर अनेक अपराध हुए हैं ऐसे मेंं अपराध के नये तरीके दिखाने में फिल्म वाले गुरेज नहीं करते पर चुंबन के दृश्य दिखाने में उनके हाथ पांव फूल जाते हैंं। सच तो यह है कि चूंबन जब तक लिया न जाये तभी तक ही आकर्षण है उसके बाद तो फिर सभी खत्म है। यही कारण है कि काल्पनिक प्यार बाजार में बिकता रहे इसलिये होंठ और गाल पास तो लाये जाते हैं पर चुंबन का दृश्य अधिकतर दूर ही रखा जाता है।

यह बाजार का खेल है। अगर एक बार फिल्मों से लोगों ने चुंबन लेना शुरू किया तो फिर सभी जगह सौंदर्य सामग्री की पोल खुलना शुरू हो जायेगी। महिला हो या पुरुष सभी सुंदर चेहरे सौंदर्य सामग्री से पुते होते हैं और जब चुंबन लेंगे तो उसका स्पर्श होठों से होगा। तब आदमी चुंबन लेकर खुश क्या होगा अपने होंठ ही साफ करता फिरेगा। सौंदर्य प्रसाधनों में केाई ऐसी चीज नहीं हेाती जिससे जीभ को स्वाद मिले। कुछ लोगों को तो सौदर्य सामग्री से एलर्जी होती और उसकी खुशबू से चक्कर आने लगते हैं। अगर युवा वर्ग चुंबन लेने और देने के लिये तत्पर होगा तो उसे इस सौंदर्य सामग्री से विरक्त होना होगा ऐसे में बाजार में सौंदर्य सामग्री के प्रति पागलपन भी कम हो जायेगा। कहने का मतलब है कि गाल का मेकअप उतरा तो समझ लो कि बाजार का कचड़ा हुआ। याद रखने वाली बात यह है कि सौदर्य की सामग्री बनाने वाले ही ऐसी फिल्में के पीछे भी होते हैं और उनका पता है कि उसमें ऐसी कोई चीज नहीं है जो जीभ तक पहुंचकर उसे स्वाद दे सके।

कई बार तो सौंदर्य सामग्री से किसी खाने की वस्तु का धोखे से स्पर्श हो जाये तो जीभ पर उसके कसैले स्वाद की अनुभूति भी करनी पड़ती है। यही कारण है कि चुंबन को केवल होंठ और गाल के पास आने तक ही सीमित रखा जाता है। संभवतः इसलिये गाहे बगाहे प्रसिद्ध हस्तियों के चुंबन पर बवाल भी मचाया जाता है कि लोग इसे गलत समझें और दूर रहें। समाज और संस्कार तो केवल एक बहाना है।

एक आशिक और माशुका पार्क में बैठकर बातें कर रहे थे। आसपास के अनेक लोग उन पर दृष्टि लगाये बैठै थे। उस जोड़े को भला कब इसकी परवाह थी? अचानक आशिक अपने होंठ माशुका के गाल पर ले गया और चुंबन लिया। माशुका खुश हो गयी पर आशिक के होंठों से क्रीम या पाउडर का स्पर्श हो गया और उसे कसैलापन लगा। उसने माशुका से कहा‘यह कौनसी गंदी क्रीम लगायी है कि मूंह कसैला हो गया।’

माशुका क्रोध में आ गयी और उसने एक जोरदार थप्पड़ आशिक के गाल पर रसीद कर दिया। आशिक के गाल और माशुका के हाथ की बीचों बीच टक्कर हुई थी इसलिये आवाज भी जोरदार हुई। उधर दर्शक तो जैसे तैयार बैठे ही थे। वह आशिक पर पिल पड़े। अब माशुका उसे बचाते हुए लोगों से कह रही थी कि‘अरे, छोड़ो यह हमारा आपसी मामला है।’

एक दर्शक बोला-‘अरे, छोड़ें कैसे? समाज और संस्कृति को खतरा पैदा करता है। चुंबन लेता है। वैसे तुम्हारा चुंबन लिया और तुमने इसको थप्पड़ मारा। इसलिये तो हम भी इसको पीट रहे हैं।’

माशुका बोली‘-मैंने चुंबन लेने पर थप्पड़ थोड़े ही मारा। इसने चुंबन लेने पर जब मेरी क्रीम को खराब बताया। कहता है कि क्रीम से मेरा मूंह कसैला हो गया। इसको नहीं मालुम कि चुंबन कोई नमकीन या मीठा तो होता नहीं है। तभी इसको मारा। अरे, वह क्रीम मेरी प्यारी क्रीम है।’

तब एक दर्शक फिर आशिक पर अपने हाथ साफ करने लगा और बोला-‘मैं भी उस क्रीम कंपनी का ‘समाज और संस्कार’रक्षक विभाग का हूं। मुझे इसलिये ही रखा गया है कि ताकि सार्वजनिक स्थानों पर कोई किसी का चुंबन न ले भले ही लगाने वाला केाई भी क्रीम लगाता हो। अगर इस तरह का सिस्टम शुरु हो जायेगा तो फिर हमारी क्रीम बदनाम हो जायेगी।’

बहरहाल माशुका ने जैसे तैसे अपने आशिक को बचा लिया। आशिक ने फिर कभी सार्वजनिक रूप से ऐसा न करने की कसम खाइ्र्र।

हमारा देश ही नहीं बल्कि हमारे पड़ौसी देशों में भी कई चुंबन दृश्य हाहाकर मचा चुके हैं। पहले टीवी चैनल वाले प्रसिद्ध लोगों के चुंबन दृश्य दिखाते हैं फिर उन पर उनके विरोधियों की प्रतिक्रियायें बताना नहीं भूलते। कहीं से समाज और संस्कारों की रक्षा के ठेकेदार उनको मिल ही जाते हैं।

वैसे पश्चिम के स्वास्थ्य वैज्ञानिक चुंबन को सेहत के लिये अच्छा नहीं मानते। यह अलग बात है कि वहां चुंबन खुलेआम लेने का शिष्टाचार है। भारतीय उपमहाद्वीप में इसे बुरा समझा जाता है। चुंबन लेना स्वास्थ्य के लिये बुरा है-यह जानकर समाज और संस्कारों के रक्षकों का सीना फूल सकता है पर उनको यह जानकर निराशा होगी कि अमेरिकन आज भी आम भारतीयों से अधिक आयु जीते हैं और उनका स्वास्थ हम भारतीयों के मुकाबले कई गुना अच्छा है।

वैसे सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना अशिष्टता या अश्लीलता कैसे होती है इसका वर्णन पुराने ग्रंथों में कही नहीं है। यह सब अंग्रेजों के समय में गढ़ा गया है। जिसे कुछ सामाजिक संगठन अश्लीलता कहकर रोकने की मांग करते हैं,कुछ लोग कहते हैं कि वह सब अंग्रेजों ने भारतीयों को दबाने के लिये रचा था। अपना दर्शन तो साफ कहता है कि जैसी तुम्हारी अंतदृष्टि है वैसे ही तुम्हारी दुनियां होती है। अपना मन साफ करो, पर भारतीय संस्कृति के रक्षकों देखिये वह कहते हैं कि नहीं दृश्य साफ रखो ताकि हमारे मन साफ रहें। अपना अपना ज्ञान है और अलग अलग बखान है।
जहां तक चंबन के स्वाद का सवाल है तो वह नमकीन या मीठा तभी हो सकता है जब सौंदर्य सामग्री में नमक या शक्कर पड़ी हो-जाहिर है या दोनों वस्तुऐं उसमें नहीं होती।
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कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, October 6, 2008

अपनी गल्तियाँ छिपाना सिखा रहे हो-हिन्दी शायरी

यूं तुम अपने दोनों हाथों में
तुन कुछ छिपा रहे हों
क्या यह वही खंजर है
जो घौंपा था किसी के विश्वास में
या किसी के धोखे से उठाया सामान है
जो नहीं दिखा रहे हो

तुम्हारे चेहरे पर पसीने की
बहती लकीरें
जुबान में कंपन
आँखों में घबडाहट
क्या वह टूटी कलम है
जिससे लिखने चले थे दूसरे की तकदीरें
मिटा बैठे पहले लिखी लकीरें
नया लिखने से लाचार रहे तुम
अब अपनी खिसियाहट मिटा रहे हो

तुम हंसते दिखना चाहते हो
अपने भय से स्वयं को ही डराते हो
बिखर गया है तुम्हारा कोई इरादा
ज़माना चला नहीं तुम्हारे बताई राह पर
अपने कहे को तुम खुद ही समझे नहीं
जो खुलती देखी अपनी पोल तो
अब मासूम शक्ल बना कर
जमाने को दिखा रहे हो
हारने पर अपनी गल्तियाँ
छिपाना सिखा रहे हो

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Wednesday, October 1, 2008

वाद और नारों पर चले थे, इसलिये हाथ मलते रहे-व्यंग्य कविता

वाद और नारों पर ताउम्र चलते रहे
उधार के तेल पर घर के चिराग जलते रहे
अक्ल भी उधार की थी सो रौशनी अपनी समझी
जब हुआ अंधेरा तो हाथ मलते रहे

जब मांगा साहूकारों ने अपने सामान का हिसाब
तो लगाने लगे नारे
वाद में ही ढूंढने लगे अपना जवाब
भीड़ में भेड़ की तरह चले
पर अकेले हुए तो
अपनी हालातों पर आंखें से आंसू ढलते रहे
जिन्होंने किये थे वादे हमेशा
रौशनी दिलाने का
वह तो पा गये सिंहासन
भूल गये अंधेर घरों को
उनके घर पर चमक बिखरी थी
अंधेरे उनसे दूर डरे लगते रहे
वाद पर चले थे जितने कदम
उनके निशान नहीं मिले
अपने ही लगाये नारों को ही भूल गये
भलाई के सौदागर तो कर गये अपना काम
बिके थे बाजार में सौदे की तरह
वह इंसान अपने हाथ मलते रहे
......................

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