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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Monday, March 31, 2008

इसलिए आत्मकथा नहीं लिखते-व्यंग्य

बरसों पहले कृश्न चंदर का उपन्यास देख ‘एक गधे की आत्मकथा’। पूरा नहीं पढ़ा क्योंकि उसमें गधे का बोलना-चालना समझ में नहीं आ रहा था। मैंने अपने जीवन में पढ़ने की शूरूआत पंचतंत्र की कहानियों और रामचरित मानस से की है इसलिये मुझे कई ऐसे उपन्यास भी नहीं समझ में आते जो बहुत प्रसिद्ध हैं। हां, ‘स्वर्णलता’ मेरा प्रिय उपन्यास है। बंगाली भाषा में लिखे गये इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद मैने पढ़ा और मुझे बहुत पंसद आया जिन लोगों ने इसे पढ़ा होगा वह समझ सकते हैं कि वह मुझे क्यों पसंद आया। मुझे संघर्ष करने वाले पात्र पसंद है और वह भी जब कहीं न कहीं विजेता होते हैं। कृश्न चंदर के उस उपन्यास को मैने अपने बचपन में पढ़ने की बहुत कोशिश की पर नहीं पढ़ सका। हां, तब ख्याल आता था कि अगर जिंदगी में अच्छा लेखन नहीं कर पाये तो आत्म कथा जरूर लिखेंगे।

अभी भी कई बार ख्याल आता है कि आत्मकथा लिख डालें पर होता यह कि हमें उस उपन्यास की याद आ जाती है और तब सोचते हैं कि उसमें लिखें क्या? उसका शीर्षक क्या लिखे? कहीं न कहीं तो लिखना पड़ेगा कि आत्मकथा। अपना नाम लिखें या मेरी आत्मकथा लिख ही काम चलाये। मुख्य मुद्दा तो है उसमें लिखने वाली संभावित सामग्री। हम उसमें लिखेंगे तो अपने तन और मन पर जो बोझ उठाते हुए ही दिखेंगे। हमारी जिन्दगी भी मस्खरी से कम नहीं रही। लिखने की दृष्टि से भी अपनी भाषा शैली कृश्न चंदर जैसी नहीं हो सकती। वैसे तो ब्लाग लेखक के रूप में कोई नाम नहीं है और लेखक के रूप में भी कोई पहचान नहीं है पर मान लीजिये कोई थोड़ा बहुत नाम पढ़कर किताब ले भी तो वह कहेगा यह तो आदमी की कम गधे की आत्मकथा अधिक लगती है। अपने तन और मन पर इतना बोझ तो कोई गधा ही उठा सकता है। इतना अपमान सहन करने की ताकत तो केवल गधे में ही होती है। ऐसी बहस तो केवल तो कोई गधा ही कर सकता है। एक के बाद एक गल्तियां तो कोई गधा ही कर सकता है।

हम खुद बदनाम हों तो कोई बात नहीं है पर अगर हमने वाकई उसमें कई सच लिखे तो कई ऐसे लोग बदनाम हो जायेगे जिनके मूंह पर हमने कभी उनकी मूर्खताऐं और बेईमानियां उनके मूंह पर नहीं कही। आदमी दूसरे को धोखा देता है या खुद खाता है इस प्रश्न की खोज अगर हमने अपनी आत्मकथा में दिखाई तो ऐसे लोगों पर कीचड़ के छींटे गिरेंगे जिनको वह हमसे छिपाने की आशा करते हैं। जीवन के सत्य के साथ भी बहूत लोग जीते हैं यह हमने देखा है पर अधिकतर लोग बनावटी जिन्दगी जीते हैं। अपने भ्रम को दूसरे शिक्षा और संस्कार के नाम पर थोपते हैं। चारों तरफ जीवन का ज्ञान देने वाले लोग अपने जीवन में जिस अज्ञान के अंधेरे में रहते हैं उसे देखकर उन पर कभी हंसी तो कभी तरस आता है। हमारे आसपास अपने जीवन के झंझावतों में फंसे लोग यह आशा तो करते हैं कि हम उनकी मदद करें पर उनकी शर्तों के अनुसार। हमने देखा है कि हमने ही दूसरों की शर्तें मानी पर हमारा अवसर आया तो अपनी शर्तें थोपीं फिर भी वैसी मदद भी नहीं की जैसी हमने अपेक्षा की थी।

मतलब यह कि अपनी आत्मकथा लिखने से अच्छा है कि किश्तों में कहानियों और व्यंग्यों में अपनी बात कहते रहें। इतनी बड़ी किताब लिखें और फिर अपने पैसे लेकर प्रकाशक ढूंढें और इस बात की कोई गारंटी नहीं कि कोई उसे पढ़ेगा। हमारे एक मित्र से जब हमने आत्मकथा लिखने की बात की तो वह बोला-‘‘अभी तुम अपने व्यंग्यों में हम पर बहुत फब्तियां कस जाते हो और किताब में भी कोई अपनी गल्तियां थोड़े ही लिखोगे हमारे ऊपर ही सब लिखोगे। मत लिखो क्योंकि अपने को जितना सही साबित करने की करोगे उतना ही झूठे माने जाओगे। अपनी रचनाओं में तुम अपनी चर्चा नहीं करते इसलिये कोई तुम्हारे नाम से अधिक चर्चा नहीं करता पर आत्मकथा में सब तुम्हें झूठा ही समझेंगे।’’

सो तमाम विचार कर हमने आत्मकथा लिखने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया।

Monday, March 24, 2008

यादों में बसते हैं वही-हिन्दी शायरी

यूं तो सभी पल गुजर जाते
पर कुछ दिल में समा जाते
मिलते हैं इस जिन्दगी के सफर में बहुत लोग
अपना मुकाम आते ही बिछड़ जाते
पर कुछ चेहरे
दिल की नजरों में जगह
हमेशा के लिए बना जाते
तारीख तो रोज बदल जाती हैं
पर कुछ तारीखे को हम
कभी नहीं भुला पाते
देखते हैं सब
सुनते और बोलते ढेर सारे शब्द
पर यादों में बसते हैं वही
जो हमारे दिल को छू पाते
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Tuesday, March 18, 2008

पहले इंसान बनकर जीना चाहता हूँ-हिन्दी शायरी

जलकर राख होने से पहले
लोगों के अंधेरों में रौशनी बिखेरना चाहता हूँ
टूटकर बिखर जाने से पहले
बेसहारों का सहारा बनना चाहता हूँ
आसमान में उड़कर चले जाने से पहले
जमीन पर उम्मीद के फूल
बिखेर देना चाहता हूँ
सर्वशक्तिमान की दरबार में जाने से पहले
इंसान बनकर जीना चाहता हूँ
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Monday, March 17, 2008

अपनी जिन्दगी की नैया पार लगायेंगे-कविता

जिन कागजों पर लिखे शब्दों से
बहकता है ज़माना
ढूँढता है लड़ने का बहाना
हम उन्हें नहीं पढ़ पायेंगे
अपनी जिन्दगी अपने ही शब्दों से सजायेंगे
ऐसी किताबों पर यकीन जताते लोग
जो खुद कभी पढ़ और समझ नहीं पाते
मतलब समझने के लिए सयानों के
घर के दरवाजे खटखटाते
अपनी अक्ल गिरवी रख आते
हम अपने यकीन के चिराग खुद ही जलायेंगे
अपनी जिन्दगी में रौशनी के लिए सब
किसी और से दियासलाई मांगते उधार
जैसे भलाई का होता हो व्यापार
कोई खरीदता है सिर झुकाकर
कोई देता हैं आकाश से लाकर
तय कर लो अपने यकीन से
अपनी जिन्दगी की नैया पार लगायेंगे
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Friday, March 14, 2008

नारद १ जनवरी १९७० में पहुंचा

नारद आज १ जनवरी १९७० में पहुंच गया है। अभी तक टीवी सीरियलों और फिल्मों में तमाम पात्रों को इतिहास की तारीखों में जाते देखते थे पर आज नारद को भी जाते देखा। उसके लोगो पर क्लिक करने के बात मैं बहुत देर तक इस इन्तजार में बैठा रहा कि शायद आज धीरे-धीरे खुल रहा है। बहुत देर तक माथा मच्ची की पर कुछ समझ में नहीं आया। जब वापस लौटने को हुए तो तारीख पर नजर गयी। गुरूवार १ जनवरी १९७० की तारीख पडी थी। यह तो कंप्यूटर का खेल है। अगर उसमें १ जनवरी १९७० तारीख है तो वह पोस्ट भी उसी दिन की दिखायेगा और उस तारीख में तो कंप्यूटर का अता-पता नहीं था। फोरम चलाना कोई आसान काम नहीं है और अगर वहाँ विशेषज्ञ ठीक कर रहे हों तो कोई बात नहीं । अगर नहीं तो सूचित हो जाएं। पुराने ब्लोगर हैं और नारद को भी देखते हैं आखिर उसने हमें वह मुकाम दिया जिसकी कल्पना नहीं कर सकते थे। इसलिए अपना कर्तव्य समझ कर यह सूचना देरहे हैं और उम्मीद करते हैं कि जल्दी सब ठीक हो जायेगा। कंप्यूटर में तो यह सब चलता है।

Monday, March 10, 2008

रहीम के दोहे:गरीब की सच में मदद करे वही होते बडे लोग

जे गरीब पर हित करै, ते रहीम बड़लोग
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग


कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बडे लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आपने देखा होगा कि आर्थिक, सामाजिक, कला, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में जो भी प्रसिद्धि हासिल करता है वह छोटे और गरीब लोगों के कल्याण में जुटने की बात जरूर करता है। कई बडे-बडे कार्यक्रमों का आयोजन भी गरीब, बीमार और बेबस लोगों के लिए धन जुटाने के लिए कथित रूप से किये जाते हैं-उनसे गरीबों का भला कितना होता है सब जानते हैं पर ऐसे लोग जानते हैं कि जब तक गरीब और बेबस की सेवा करते नहीं देखेंगे तब तक बडे और प्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे इसलिए वह कथित सेवा से एक तरह से प्रमाण पत्र जुटाते हैं। मगर असलियत सब जानते हैं इसलिए मन से उनका कोई सम्मान नहीं करता।

जिन लोगों को इस इहलोक में आकर अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना हैं उन्हें निष्काम भाव से अपने से छोटे और गरीब लोगों की सेवा करना चाहिऐ इससे अपना कर्तव्य पूरा करने की खुशी भी होगी और समाज में सम्मान भी बढेगा। झूठे दिखावे से कुछ नहीं होने वाला है।

Sunday, March 9, 2008

संत कबीर वाणी:निन्दकों तुम जुग-जुग जियो

निन्दक हमरा जनि मरो, जीवो आदि जुगादि
कबीर सतगुरु पाइया, निन्दक के परसादि


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि हमारे निंदक तुम कभी मत मरो बल्कि युगों तक जियो क्योंकि तुम्हारे प्रसाद से ही हम सतगुरु को प्राप्त कर सकेंगे।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अक्सर कोई हमारी आलोचना करता है तो हम उत्तेजित हो जाते हैं और इतना तनाव ओढ़ लेते हैं कि अपने काम में गलतिया करते जाते हैं। हमें अपने आलोचकों से सीखना चाहिए। वह जो बात हमसे कहते हैं उसका सामने भले ही प्रतिवाद करें पर अकेले में आत्मचिन्तन अवश्य जरूर करना चाहिऐ। निन्दकों ने हमारा जो दुर्गुण हमें बताया हो उसे अपने अन्दर से हटाने की कोशिश करना चाहिए।

भक्ति मार्ग पर चलते हुए तो ऐसी आलोचना का सामना करना ही पड़ता है कि ''ढोंग कर रहे हो', 'तुम्हें तो और कोई काम ही नहीं है', और 'ऐसे भक्ति नहीं होती, हमारी तरह करो' आदि-आदि। कई बार तो लोग हंसी उडाते हैं। ऐसे में हमें आत्मचिन्त्तन जरूर करना चाहिए कि क्या वाकई उनका कहाँ सही है और क्या हमारा मार्ग गलत है। अगर नहीं तो सतत उस पर चलते हुए और अधिक मन लगाकर करना चाहिए।
इसी तरह अगर हम कोई काम कर रहे हैं और कोई आलोचक उसमें दोष निकालता है हमें उसे सुनना चाहिऐ और अपना दोष दूर करने का प्रयास करना चाहिए। इसके अलावा कोई हमारी कार्य प्रणाली में दोष बताता है हो तो उस पर सोचना चाहिए। हो सकता है कि उसमें बदलाव से अधिक सफलता मिले। कुल मिलाकर निन्दकों से विचलित नहीं होना चाहिए। कम से कम वह उन चाटुकारों से अच्छे होते हैं जो झूठी प्रशंसा कर हमें किसी बदलाव के लिए प्रेरित नहीं करते।

Thursday, March 6, 2008

चाणक्य नीति:वाणी पर संयम रखने वाले ही लोकप्रिय होते हैं

चाणक्य कथन-समाज में लोकप्रियता अर्जित करने के लिए सबसे पहले दूसरों की निंदा करना बंद कर देना चाहिऐ। परनिंदा करने में रस लेना मानव की स्वाभाविक प्रवृति है। वाणी पर संयम रखना एक तरह से तपस्या है। जो दूसरों की निंदा नहीं करता वही समाज में लोकप्रियता अर्जित कर सकता है।

लेखकीय अभिमत- हमारा अध्यात्म दर्शन कहता है कि बड़ी लकीर को थूक से छोटी करने वाला वाला मूर्ख और उसके मुकाबले बड़ी लकीर खींचने वाला बुद्धिमान होता है। हमने देखा होगा कि अधिकतर लोग दूसरेको छोटा और घटिया बताकर अपने को बडा और ऊंचा साबित करना चाहते हैं। 'अमुक व्यक्ति ऐसा है', 'अमुक व्यक्ति में यह दोष है, 'और अमुक व्यक्ति वह बुरा काम करता है'-ऐसी चर्चा अक्सर लोग करते हैं और उनका आशय यह होता है कि हम भले, उस दोष से रहित और अच्छे काम करने वाले लोग हैं। आप और हम में से अधिकतर लोग ऐसा ही करते हैं।

इसका एक दूसरा रूप भी देखें। जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे की निंदा कर जब हमारे सामने से हटता है तो हम उसमें भी दोष देखने लगते हैं और वही बातें उसके बारे में सोचते हैं जो वह दूसरे के बारे में कह रहा था। मन ही मन कई बार कहते हैं कि 'उसके दोष तो देखता है अपने नहीं'।

क्या हम कभी सोचते हैं कि कहीं हम भी किसी की निंदा करते हैं और जब वहाँ से हटते हैं तो दूसरा व्यक्ति भी हमारे बारे में यही सोचता होगा। हम वाणी पर संयम की बात तो करते हैं पर आत्ममंथन नहीं करते। हम वाणी से अच्छा बोलते हैं तो वातावरण भी वैसा ही बनता है और खराब बोलते हैं तो खराब। जब हम किसी से अच्छा बोलकर अलग होंगे तो दूसरे व्यक्ति के मन में अच्छे विचार छोड़ जायेंगे तो वह अच्छा सोचेगा और खराब छोड़ जायेंगे तो वह हम में भी दोष देखेगा। हम अपनी इन्द्रियों से ही ग्रहण करते है और विसर्जन भी और सब अपने लिए ही प्रभावकारी होता है। अत: हमें अपने वाणी पर संयम रखते हुए अच्छी बात ही करना चाहिए।

Sunday, March 2, 2008

इश्क और बजट-हास्य कविता

लिखते-लिखते लव हो गया
दिखते-दिखते हो गयी लड़ाई
लिखने में आशिक ने किये थे
ढेर सारे वादे
जीवन भर सुख से रहने के इरादे
पर मार गयी सब महंगाई
इश्क में कौन बजट की तरफ देखता है
साथ-साथ रहने पर आती है
जीवन की सच्चाई
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इक तरफा इश्क के शिकार
आशिक ने लिखा
''तुम मेरे को अपना बना लो
जीवन भर मजे कराऊंगा
जो भी कहोगी खरीद लाऊंगा
ऐसी कोई और मिलेगा तुम्हें साथी नहीं
तुम्हें घुमाने के लिए हवाई जहाज भी ले आऊँगा''

लौटती डाक से जवाब आया
''कभी अखबार में बजट पढ़ते हो या नहीं
खर्च के बहुत सारी मदें तो बताई
पर आय का कोई जरिया भी तो बताया होता
कि 'यहाँ से कमाकर लाऊँगा''
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