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Sunday, December 27, 2009

ढपली और राग-व्यंग्य चिंतन (dhapli aur rag-hindi vyangya)

ज्यादा देखने से फायदा भी क्या था? जितना देखा उससे ही समझना काफी था। एक चेहरा निढाल पड़ा हुआ है कोई नारी या नारियां बार बार अपना चेहरा उसके पास ले जाती हैं। वह एक सनसनीखेज खबर है। 86 वर्ष के बुजुर्ग राजनीतिज्ञ पर यौन प्रकरण (sex scandle) का आरोप दर्ज करती वह खबर उसके नायक नायिका (या नायिकायें) की क्रियाओं का दृश्य प्रस्तुत करती है। जिस पर आरोप है उसका चेहरा निढाल पड़ा हुआ है। उसकी कोई हलचल नहीं दिखाई दे रही। अंतर्जाल पर इससे अधिक नहीं दिख रहा। वैसे तो समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में उस बुजुर्ग नायक के साथ तीन पायजामें और तीन नायिकाओं का भी जिक्र है पर जो अंतर्जाल पर देखा उससे तो लगता है कि जो टीवी चैनल बुजुर्ग नायक की कथित ‘रंगीन मिजाजी का रहस्योद्घाटन करने का दावा कर रहा है उसके बाकी अंश भी कुछ ऐसे ही प्रश्नवाचक चिन्ह लिये खड़े मिलेंगे।
एक आम आदमी की राजनीति में कभी सक्रिय भूमिका नहीं होती सिवाय कि वह उससे संबंधित घटनाओं को पढ़े और विचार करे। इतिहास गवाह है कि राजनीति का क्षेत्र बहुत ही अविश्वसनीय और अनिश्चित है। राज्य कर्ता अच्छा है या बुरा यह इतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना कि वह अपने विरोधियों से सतर्क कितना रहता है और यही बात उसे कार्यकुशलता का प्रमाण देती है।
राजनीति में सत्ता के लिये षड्यंत्र सदियों से चल रहे हैं और आगे भी जारी रहेंगे। सच तो यह है कि दैहिक लोभ का चरम ही है राज्य करने की भावना और इसमें अध्यात्मिक या धर्म की बात एक तरफ उठाकर रखनी पड़ती है। राजनीति इतनी विकट है कि इसमें माता और पुत्र जैसा रिश्ता भी अविश्वसनीय हो जाता है ऐसे में बाकी रिश्तों का महत्व देखना या सोचना बेकार है। यह अलग बात है कि कुछ लोग राजकाज से जुड़े होने पर भी धर्म, अध्यात्मिक तथा समाज का विचार करते हैं-ऐसे लोग धन्य हैं और ऐसा नहीं है कि इतिहास कोई उनको महत्व नहीं देता। इसके बावजूद यह सत्य है कि इतिहास में श्रेष्ठ राजाओं की गिनती अधिक नहीं मिलती बल्कि अधिकतर षड़यंत्रों का शिकार बनते हैं या फिर किसी का शिकार कर स्वयं राजा बनते रहे हैं।
वैसे आजकल की वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सीधे राजकाल से जुड़े न होने पर भी कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें रहकर उस पर नियंत्रण किया जा सकता है। यह क्षेत्र है धर्म का। धर्म के क्षेत्र में भी कुछ ऐसे लोग हैं जो अपनी पूज्यनीयता के आधार पर राजकाज पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण करते हैं। यही कारण है कि वहां भी ऐसी उठापठक होती रहती है जैसे कि राज्य जीतने का युद्ध हो।
प्रसंगवश भारत के ही एक 80 वर्षीय संत पर विदेश में ही यौन प्रकरण का ऐसा आरोप लगा था। यह आरोप इतना गंभीर था कि इसके विवाद की आग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई दी और उस देश ने उसके निपटारे तक उन संत भारत लौटने पर रोक लगा दी। हालांकि कहा यह गया कि संत अपनी इच्छा से उस विवाद के निपटारे तक वह देश नहीं छोड़ेंगे। आप देखिये उस देश की सरकार ने भी इसका खंडन नहीं किया। इससे यह साफ लगा कि कहीं न कहीं धर्म का राजनीति से कोई अप्रत्यक्ष प्रगाढ़ रिश्ता है। बाद में वह उस आरोप से बरी हो गये। सच बात तो यह है कि श्रीमद्भागवत पर प्रवचन करने वाले उस संत का प्रवचन इस लेखक को भी बहुत अच्छा लगता है। अगर आप श्रीगीता का सूक्ष्म पूर्वक अध्ययन करेंगे तो ऐसे यौन प्रकरण आपको विचार के विषय नहीं लगेंगे। संभव है कि अगर आप अल्पज्ञानी हों तो ऐसे प्रकरण में लिप्त हो जायें पर ज्ञानी हों तो फिर उससे दूर रहेंगे।
एक अध्यात्मिक लेखक के रूप में इस घटना को लेकर कोई क्षोभ या प्रसन्नता नहीं है। याद रखिये कि किसी बड़े आदमी पर कीचड़ उछलने से कुछ लोग प्रसन्न भी होते हैं पर यह उनके अज्ञान और कुंठा का परिणाम होता है।
इसके बावजूद राजनीति का समाज पर प्रभाव होता है तब उसे देखना जरूरी होता है। अब इस प्रकरण की तरफ देखें। एक निढाल चेहरा जिस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं है? प्रश्न आता है कि वह रंगीन मिजाजी कब कर रहा होगा?
बुजुर्ग के समर्थक कहते हैं कि ‘यह एक षड्यंत्र है!’
हो सकता है कि उनका कहना सही हो? पर एक राजनेता को हमेशा सतर्क रहना चाहिये। वह अगर सतर्क नहीं रहे तो फिर उनकी योग्यता पर भी प्रश्न उठता है न!
उनके एक समर्थक कहना है कि वह बुजुर्ग राजनेता एकदम लाचार हैं। यहां तक कि दीप प्रज्जवलित करने के लिये उनको किसी की सहायता चाहिए।
सवाल यह है कि क्या बड़े पदों पर शारीरिक रूप से लाचार लोगों की नियुक्ति होना चाहिए। जिस तबियत का बहाना कर उन्होंने अब इस्तीफा दिया वह पहले क्यों नहीं किया? राजनीति का क्षेत्र लोगों की सेवा करने के लिये या करवाने के लिये? राजनीति में शासन के द्वारा जलकल्याण करने आये हैं या उपभोग कर सेवा पाने।
समर्थकों का यह कहना है सही है कि जहां यह फिल्म बनायी गयी है वह उस स्थान की सुरक्षा तथा कानून से जुड़े अनेक पहलुओं को चुनौती देती है जो कि एक चिंता का विषय है। यौन प्रकरण को गंभीर बनाने के लिये इससे गरीबी और नौकरी जैसे विषय भी जोड़े गये हैं ताकि आम लोगों के तटस्थ रहने की गुंजायश कर रहे।
यह लेखक अंतर्जाल पर वह सब देखने का प्रयास नहीं करता अगर अंतर्जाल लेखकों ने ही बहुत सादगी (?) से आंध्रप्रदेश, तेलगु और यू ट्यूब का उल्लेख नहीं किया होता। यह भी एक तरीका होता है कि आप किसी को लोकप्रिय बनाना चाहें तो उसकी आलोचना कीजिये। है न चालाकी! आप बताईये कि वहां बुरी चीज है! लोग अपने आप जायेंगे और आपका काम भी हो जायेगा।
प्रसंगवश बुजुर्ग के समर्थकों का दावा है कि ‘वह पहले भी ऐसे हमलों से उबरते रहे हैं और अब भी उबर आयेंगे।’
मतलब यह कि उन बुजुर्ग सज्जन का इतिहास भी उनका पीछा कर रहा है। बुजुर्ग महोदय के विरोधियों ने भी इसका पहले इंतजाम कर लिख दिया कि ‘हो सकता है कि यह सभी प्रायोजित हो। वह बुजुर्ग राष्ट्रीय राजनीति में आने को इच्छुक हों और वहां से निकलने के लिये यह नाटक स्वयं ही रचवाया हो ताकि बाद में उसे निकलकर वाह वाही लूट सकें।’
पता नहीं सच क्या है? पर जिस तरह अंतर्जाल पर यह दो तीन फोटो दिखे उससे उन बुजुर्ग सज्जन पर किया यह शाब्दिक आक्रमण अधिक प्रभावी नहीं दिखता। हम तो एक अध्यात्मिक विचारक हैं और उनका सम्मान करेंगे पर इस मामले के कुछ पैंच हमारी समझ में आये वह लिखना जरूरी लगा।
इस बकवास में आखिरी बात यह है कि हमने युट्यूब पर ही कुछ प्रतिकियायें देखी। एक तरह से सभी छद्म नाम थे
एक प्रतिकिया देखी जिसमें भारतीय लोगों के प्रतिकूल टिप्पणी थी।
उसका जवाब भी एक छद्म नाम ‘पाकिस्तानी चुप रह’ लिख दिया।
सवाल यह है कि उस भारतीय को कैसे पता लगा कि वह पाकिस्तानी है। कहीं यह तयशुदा जंग तो नहीं थी।
एक प्रतिक्रिया यह थी कि ‘उत्तर भारतीयों को दक्षिण भारत के किसी प्रदेश में बड़े पर पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिये।’
उसका भी जवाब भी एक दूसरे ने लिखा था कि ‘यह समस्या तो विश्वव्यापी है इसलिये इसमें क्षेत्रवाद जैसी बात नहीं देखनी चाहिये।’
कहने का तात्पर्य यह है कि इस घटना के दूरगामी परिणाम होंगे। एक तमिल मित्र ने बताया था कि दक्षिण में उत्तरी लोगों के दक्षिण के लोगों पर अनाचार के अनेक किस्से किसी समय वहां प्रचलित थे। इनका प्रभाव यह था कि दक्षिण के लोगों का उत्तर के लोगों पर ही विश्वास नहीं रहता था। यह तो आजादी के बाद लोग एक दूसरे के पास आये तो अब वह बात नहीं है। उसने इस लेखक से कहा था कि ‘तुम जैसे मित्र यहां मिलते हैं यह मैं अपने रिश्तेदारों को बताता हूं तो वह हैरान रह जाते हैं।’
उस मित्र ने बताया था कि अपने शहर में बहुत समय तक लोग उससे यह पूछते थे कि‘ क्या वहां रहते हुए तुम्हें लोग परेशान तो नहीं करते?’
अब वह इस तरह के सवाल नहीं करते पर प्रचार माध्यमों को लंबे समय तक चर्चा में रहने के लिये विषय चाहिये तो संभव है वह इस पर बाल कल्याण, नारी कल्याण, संस्कृति और संस्कार के साथ जोड़कर आगे बढ़ाते रहें। संभव है कि क्षेत्रवाद के भूत को शरीर पैदा करने का प्रयास भी हो। बड़े लोगों की बड़ी बातें हैं जी! आम आदमी के रूप में जितना समझें उतना ही कम हैं! वैसे धाार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में विराजमान शिखरपुरुषों ने अपने ओहदे को शासन और अपने उपभोग योग्य समझा न कि जनकल्याण तथा समाज सेवा के लिये। यही कारण है कि अब आम आदमी की सहानुभूति उनके प्रति उतनी नहीं जितना पहले थी। बल्कि आचरण को लेकर विश्वसीनयता का भाव नहीं रहा जो खास आदमी को आम आदमी में महानता की श्रेणी दिलाता है। बाकी सच क्या है? जो आयेगा वह सच भी होगा या नहीं। आजकल प्रायोजन तो सभी जगह होने लगा है न! यहां तो बस यह कहा जा सकता है कि ‘अपनी अपनी ढपली, अपना अपना राग।’
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Wednesday, December 23, 2009

इतिहास और विश्वास-हास्य व्यंग्य (ithas aur vishvas-hasya vyangya)

इस देश में कई ऐसे लोग मिल जायेंगे जो इतिहास विषय को बहुत कोसते हैं क्योंकि उनको प्रश्नपत्रों को हल करते समय अनेक घटनाओं की तारीखें और सन् याद नहीं रहते और गलत सलत उत्तर हो जाने पर परीक्षा में उनके अंक कम हो जाते हैं। वैसे इतिहास पढ़ते समय हमें भी मजा नहीं आता था पर नंबर पाने के लिये रटना तो पढ़ता ही था। सन आदि की गलतियां कभी नहीं हुई पर उनकी आशंका हमेशा बनी रहती थी। उत्तर लिखने के बाद जब घर पहुंचते तो पहले इसकी पुष्टि अवश्य करते थे कि कहीं सन गलत तो नहीं लिख दिया।
उस समय इस बात पर यकीन नहीं होता था कि हम जो इतिहास पढ़ रहे हैं वह झूठ भी हो सकता है। मगर जैसे जैसे अखबार वगैरह पढ़ने लगे तक लगने लगा कि किसी भी इतिहासकार ने एक लेखक के रूप में अगर कुछ अनुमान कर लिखा होगा तो कल्पना भी सच बनाकर प्रस्तुत हो सकती है। जैसे जैसे समय बीता फिर हमने ऐसे लोगों को अपने सामने इतिहास बनते देखा जिनके बारे में हमें यकीन नहीं था कि इनका नाम भी कभी इतिहास में एक श्रेष्ठ मनुष्य में रूप में लिखा जा सकता है। एक दो घटनायें ऐसी भी देखी जिससे लगा कि अगर हम अपने घर में कहीं किसी पत्थर पर राज्य का राजा होने का जानकारी खुदवाकर गाढ़ दें तो कई वर्षों बाद उसकी खुदाई होने पर वह इतिहास हो जायेगा जो कि सच नहीं बल्कि कल्पना होगी। फिर कई ऐसे लोगों की भी अच्छी चर्चायें सुनी जिनके बारे में हमें यकीन था कि वह इतने उत्कृष्ट नहीं थे जितना अपने देहावसान के बाद बताये जा रहे हैं। इससे भी आगे बढ़े तो यह भी पाया कि कुछ लोगों की कभी खूब आलोचना हुआ करती थी जो कि सही भी थी पर समय के अनुसार जनमत ऐसा बदला लगा कि लोग उनको याद करते हुए कहते हैं कि ‘अगर वह होते तो ऐसा नहीं होता।’

कहने का तात्पर्य यह है कि लोग एक व्यक्ति के बारे में अपनी राय भी बदल सकते हैं और इस तरह इतिहास बदल जाता है। पूरी बात कहें तो यह कि एक झूठ हजार बार बोला जाये तो वह सच बन जाता है। इसी कारण इतिहास की अनेक बातें यकीन पर आधारित हो सकती हैं।
इधर अंतर्जाल पर सक्रिय हुए तो उसने तो हमारे एतिहासिक ज्ञान की न केवल धज्जियां उड़ा दी है कि बल्कि अनेक तरह के शक शुबहे भी पैदा कर दिये हैं। पहला शक तो हमें अपने इतिहास लिखने वालों की विश्वसनीयता और समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को ही लेकरहोता है पर उससे ज्यादा उनको अपनी राय के अनुसार प्रस्तुत करनें वाले प्रचार माध्यमों पर होता है। परस्पर विरोधाभासी तर्क देख सुनकर एक बार तो ऐसा लगता है कि दोनों में से कोई एक झूठ या भ्रमवश बोल रहा है पर फिर अपना सोचते हैं तो लगता है कि दोनों ही एक जैसे हैं। इधर कुछ लोग यह लिख रहे हैं कि ताज महल शाहजहां से अपनी बेगम मुम्ताज की याद में नहीं बनवाया बल्कि वहां पहले एक ‘शिव मंदिर’ था जिसे ‘तेजोमहालय’ कहा जाता था। किन्हीं इतिहासकार श्री ओक की खोज पर आधारित इस विचार ने हमें इतना दिग्भ्रमित कर दिया कि हमे लगने लगा कि हो सकता है वह सही हो। उनके तर्क वजनदार दिखे पर जब अपना सोचना शुरु किया तो लगने लगा कि शायद न तो यह ताजमहल होगा न यह तेजोमहालय बल्कि ताजा मोहल्ला भी हो सकता है जो शायद उस समय के साहूकार लोगों ने शायद अपनी विलासिता के लिये बनवाया हो। उनका इरादा से सामूहिक मनोरंजनालय बनाने का रहा हो जहां अनेक लोग बैठकर शतरंज या च ौपड़ खेले सकें। शायद इसमें सर्वशक्तिमान की मूर्ति भी लगवा सकते थे। उसमें जिस तरह परिक्रमा के लिये जगह बनी है उससे यह विश्वास होता है कि वह वहां कोई कलाकृति वगैरह लगाने वाले होंगे कि किसी राज कर्मचारी या अधिकारी ने बादशाह को खबर कर दी होगी कि अमुक जगह अपने नाम से करवाना बेहतर होगा।
हमें सबसे पहले ताजमहल पर हमारे मामा ले गये थे। दरअसल हमारी वहां जाने की इच्छा नहीं थी। इस अनिच्छा के पीछे इतिहास के ही पढ़ी यह बात जिम्मेदार थी कि ‘ताज महल बनाने वाले मजदूरों के हाथ इसलिये काट दिये गये थे ताकि वह दूसरी जगह ऐसी इमारत न बना सकें।’
जब पहली बार ताजमहल पर गये तब उसे देखकर अच्छा जरूर लगा पर यही बात हमारे मन में ऐसी रही कि उसका आकर्षण हमें बुरा लगा। हम न तो प्रगतिशील हैं न ही परंपरावादी पर श्रम की अवमानना करने वालों को कभी हम श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में नहीं स्वीकारते। इसके बाद भी अनेक बार ताजमहल गये पर वहां हमारे हृदय में कोई स्पंदन नहीं होता। फिर भी उसकी बनावट का अवलोकन तो हमेशा ही किया। हमें लगता है कि ताजमहल कभी एक काल खंड या राजा के राज्य में नहीं बना होगा। इसके बहुत से कारण है। सबसे बड़ी चीज यह कि हमें परिक्रमापथ कभी समझ में नहीं आया। वहां बताने वाले सारी बातें शाहजहां से जोड़कर बताते हैं कि वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करते थे इसलिये चारों तरफ घूमने के लिये उन्होंने बनवाया।
इतिहास में यह बात नहीं पढ़ाई गयी कि मुम्ताज की प्राणविहीन देह एक वर्ष तक बुरहानपुर शहर की एक कब्र में रही। यह हमें कई वर्षों बाद पता लगा। ताजमहल को आधुनिक प्रेम का प्रतीक बताकर जिस तरह फिल्में बनकर सफल रहीं और गीतों को जैसे लोकप्रियता मिली उससे भी यही लगा कि वाकई ऐसा हुआ होगा। इतना ही नहीं ताजमहल छाप साबुन, साड़ियां, बीड़ी तथा अन्य सामान भी बाजार में खूब बिकता देखा। इस पर उस समय विचार नहीं किया मगर अब जैसे बाजार और उसके सहायक प्रचार माध्यम जिस तरह इतिहास के महानायकों को गढ़ रहे हैं तब अपना ही पढ़ा इतिहास संदिग्ध लगता है।
कुछ उदाहरण तो सामने दिखते ही हैं। एक क्रिकेटर जिसने कभी इस देश को विश्वकप नहीं जितवाया उसे सर्वकालीन महान खिलाड़ी का दर्जा देते हुए यहां के प्रचार माध्यम थकते ही नहीं हैं। फिल्मों में काल्पनिक पात्रों का अभिनय करने वाले अभिनेता को देवपुरुष बना देते हैं। अगर इसी तरह चलता रहा तो यकीनन वह किसी समय इतिहास में ऐसे लोग महापुरुष की तरह अपना नाम दर्ज करवायेंगे जिन्होंने जमीनी तौर से कोई बड़ा काम नहीं किया हो।
अपनी इस हल्की सोच के साथ जीना आसान नहीं है। फिर इतिहास को समझें कैसे? क्योंकि उसके बिना आप आगे की व्याख्या भी तो नहीं कर सकते। ऐसे में हमने अपना ही सूत्र ढूंढ लिया है कि ‘‘पीछे देख आगे बढ़, आगे का देखकर पीछे का गढ़।’’
हमारे अपने तर्क हैं जो हल्के भी हो सकते हैं। हमारे महानपुरुषों ने अच्छे काम
करने को इसलिये कहा होगा क्योंकि उन्होंने अपने समय में ऐसे बुरे काम देखे होंगे। कहने का आशय यह है कि इस धरती पर धर्म और अधर्म दोनों ही रहते हैं और कम ज्यादा का कोई पैमाना नहीं है। अगर कबीर और तुलसी को पढ़ें तो यह साफ समझ में आता है कि दुष्ट प्रकृत्ति के लोग उनके समय में भी कम नहीं थे। ऐसे में बाजार और प्रचार की प्रकृत्तियां भी इसी तरह की रही होंगी। सामान्य ज्ञान की किताब में विश्व के जो सात आश्चर्य बताये गये थे उनमें ताजमहल नहीं आता था मगर पिछले साले एक प्रचार अभियान में इसे जबरदस्ती सातवें नंबर का बनाया गया। इतना ही नहीं अभियान के साथ देशप्रेम जैसे भाव भी जोड़ने के प्रयास हुए। उस समय बाजार का खेल देखकर तो ऐसा लगा था कि जैसे कि ताजमहल कोई नयी इमारत बन रही है। लोगों ने जमकर उस समय टेलीफोन पर संदेश भेजे जिसमें उनका पैसा खर्च हुआ और बाजार ने कमाया। हमने आज के बाजार और प्रचार को देखा तो लगा कि पहले भी ऐसा हो सकता है।

कहते हैैं कि ताजमहल का प्रेम प्रतीक है पर हम इसे विकट भ्रम का प्रतीक मानने लगे हैं। भारतीय अध्यात्म के अनुसार मृत्यु के कार्यक्रमों का विस्तार नहीं होना चाहिये। जिस तरह यह बताया गया कि मुम्ताज को एक साल बाद कब्र से निकालकर यहां दोबारा दफनाया गया, उस पर यकीन करना कठिन लगता है। संभव है बादशाह को इसके लिये रोकने का साहस किसी में नहीं था या लोग भी चाहते थे कि इस राजा का नाम अपने राज्य की वजह से तो लोकप्रिय नहीं होगा इसलिये इसे ताजमहल जैसी इमारत के सहारे बढ़ाया जाये। बादशाह को गद्दी पर बनाये रखना उस समय के पूंजीपतियों, जमीदारों और सेठों की बाध्यता रही होगी। इतना ही नहीं आगरा को विश्व के मानचित्र पर लाने के लिये ताजमहल के साथ प्रेम को जोड़ना आवश्यक लगा होगा इसलिये ऐसा किया गया। वरना सभी जानते हैं कि पंचतत्वों से बनी यह देह धीरे धीरे स्वतः मिट्टी होती जाती है। एक वर्ष कब्र में पड़ी देह में क्या बचा होगा यह देखने की कोशिश शायद इसलिये नहीं की गयी। जहां तक हमारी जानकारी है दुनियां में किसी भी धर्म के मतावलंबी मौत के शोक के विस्तार के रूप में इस तरह के नाटक मे नहीं करते ।

शाहजहां को इस देश का कोई अच्छा शासक नहीं माना जाता। ऐसे में लगता है कि उस समय के बाजार और प्रचार विशेषज्ञों ने उसे प्रेम का उपासक बताकर लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया होगा। उस समय आज जैसे शक्तिशाली प्रचार माध्यम नहीं थे इसलिये आपसी बातचीत के जरिये या फिर ढोल वालों से ऐसा प्रचार कराया होगा। हम किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हैं और न ही कोई ऐसी कसम खाई है कि दोबारा वहां नहीं जायेंगे-नहीं हमारा किसी के निष्कर्ष से सहमति या असहमति जताने का इरादा है। हम तो अपनी सोच को इधर उधर घुमाते ऐसे ही हैं। अलबत्ता इस बार जब जायेंगे तो उसके ताजमहल, तेजोमहालय या ताजा मोहल्ला होने के नजरिये से विचार जरूर करेंगे। इसका कारण यह है कि आजकल हम अपने सामने वर्तमान को इतिहास बनता देख रहे हैं उसने हमारे मन में ढेर सारे संशय खड़े कर दिये हैं।
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Friday, December 18, 2009

आखिर मनुष्य एक समझदार प्राणी है-आलेख (men is a social parson-hindi article)

वैश्यावृत्ति और जुआ खेलना ऐसी सामाजिक समस्यायें हैं और इनसे कभी भी मुक्ति नहीं पायी जा सकती। वैश्यावृत्ति पर कानून से नियंत्रण पाना चाहिए या नहीं इस पर अक्सर बहस चलती है। कुछ लोगों को मानना है कि वैश्यावृत्ति को कानून से छूट मिलना चाहिए तो कुछ लोगों को लगता है कि इस पर रोक बनी रहे। वैश्यावृत्ति पर कानूनी रोक का समर्थन करने वालों ने जो तर्क दिये जाते हैं वह हास्याप्रद हैं। कुछ लोग तो यहां तक कह जाते हैं कि तब तो भ्रष्टाचार, शराब तथा अन्य अपराधों को भी कानून से छूट मिलना चाहिए। अभी हाल ही में सुनने में आया कि किन्ही न्यायालय द्वारा भी इसकी वकालत की गयी है कि वैश्यावृत्ति को कानूनी शिकंजे से मुक्त किया जाना चाहिए। इसके पहले भी अनेक सामाजिक विशेषज्ञ इस बात की वकालत करते रहे हैं कि देश की सामाजिक परिस्थतियों में ऐसी रोक ठीक नहीं है।
दरअसल अंग्रेजों के समय ही वैचारिक और सामाजिक कायरता के बीज जो भारत में बो दिये गये वह अब फल और फूल की जगह सभी जगह प्रकट हो रहे हैं। याद रखने की बात यह है कि वैश्यावृत्ति कानून अंग्रजों के समय में ही बनाया गया है। इसका मतलब यह है कि इससे पहले ऐसा कानून यहां प्रचलित नहीं था।
इतना ही नहीं शराब, वैश्यावृत्ति तथा जुआ पर रोक लगाने के किसी भी पुराने कानून की चर्चा हमारे इतिहास में नहीं मिलती। इसका आशय यह है कि समाज को नियंत्रित करने की यह राजकीय प्रवृत्ति अंग्रेजों की देन है जो स्वयं ही इस तरह का कोई कानून नहीं बनाते बल्कि आजादी के नाम पर यहां अनेक अपराध भी मुक्त हैं जिनमें सट्टा भी शामिल हैं। कुछ कानूनी विशेषज्ञ तो यह बताते हैं कि अभी भी इस देश में 95 प्रतिशत कानून उन अंग्रेजों के बनाये हैं जिनके यहां कोई लिखित कानून हैं। मतलब यह है कि वह एक शब्द समूह यहां अपने गुलामों को थमा गये जिससे पढ़कर हम अभी भी चल रहे हैं।
इस मामले में हम एक सती प्रथा पर रोक के कानून का उल्लेख करना चाहेंगे जिसकी वजह से राजा राममोहन राय को भारत का एक बहुत बड़ा समाज सुधारक माना जाता है। उन्होंने ऐसा कानून बनाने के लिये आंदोलन चलाया था पर इतिहास में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि उस समय देश में सत्ती प्रथा किस हद तक मौजूद थी। अगर उनके आंदोलन की गति को देखें तो लगता है कि उस समय देश में ऐसी बहुत सी घटनायें रोज घटती होंगी पर इसको कोई प्रमाणित नहीं करता। उस समय देश में आजादी के लिये भी आंदोलन चल रहा था। ऐसे में लगता है कि भारत की सती प्रथा के लेकर अंग्रेज कहीं दुष्प्रचार करते होंगे या फिर ऐसी कृत्रिम घटनाओं का समाचार बनता होगा जिससे लगता हो कि यह देश तो भोंदू समाज है। यह कानून बनने से कोई सत्ती प्रथा कम हुई इसका भी प्रमाण नहीं मिलता। संभव है कुछ संपत्ति की लालच में औरतों को जलाकर उसके सत्ती होने का प्रचार करते हों पर ऐसी घटनायें तो देश में इस कानून के बाद भी हुईं। फिर मान लीजिये यह कानून नहीं बनता तो भी इस देश में आत्म हत्या और हत्या दोनों के लिये कानून है तब उसे सत्ती होने वाले मामलों पर लागू किया जा सकता था।
एक बार एक लेखक ने अपने लेख में लिखा था कि वैश्यावृत्ति, जुआ और शराब के कानून तो अंग्रेजों ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ऐसे मामलों में फंसाकर उन्हें बदनाम करने के उद्देश्य से बनाये थे। सच हम नहीं जानते पर इतना जरूर है कि सामाजिक संकटों को राज्य से नियंत्रित करने का प्रयास ठीक नहीं है। समाज को स्वयं ही नियंत्रित होने दीजिये। आखिर इस देश के समाजों के ठेकेदार क्या केवल उनकी भावनाओं का दोहन करने लिये ही बैठे हैं क्या?
वैश्यावृत्ति, जुआ और शराब सामाजिक समस्यायें हैं और इन पर नियंत्रण करने के दुष्परिणाम यह हुए हैं कि जिसके पास धन, बल, और बड़ा पद है पर अपनी शक्ति कानून को तोड़कर दिखाता है। आप भ्रष्टाचार या सार्वजनिक रूप से धुम्रपान करने जैसे अपराधों से इसकी तुलना नहीं कर सकते।
वैश्यावृत्ति कोई अच्छी बात नहीं है। एक समय था जो महिला या पुरुष इसमें संलिप्त होते उनको समाज हेय दृष्टि से देखता था। अनेक बड़े शहरों में वैश्याओं के बाजार हुआ थे जहां से भला आदमी निकलते हुए अपनी आंख बंद कर लेता था। धीरे धीरे वैश्यायें लुप्त हो गयीं पर आजकल कालगर्ल उनकी जगह ले जगह चुकी हैं। पहले जहां अनपढ़ और निम्न परिवारों की लड़कियां जबरन या अपनी इच्छा से इस व्यवसाय में आती थीं पर आजकल पढ़लिखी लड़कियां स्वेच्छा से इस काम में लिप्त होने की बातें समाचारों में में आती है। उसकी वजह कुछ भी हो सकती हैं-घर का खर्चा चलना या अय्याशी करना।
सवाल यह है कि इसका हल समाज को ढूंढना चाहिये या नहीं। इस देश के उच्च वर्ग ने तो अपने बच्चों की शादी को प्रदर्शन करने का एक बहाना बना लिया है। मध्यम वर्ग के परिवार उन जैसे दिखने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। नतीजा यह है कि बड़ी उम्र तक बच्चों के विवाह नहीं हो रहे। इसके अलावा बच्चों के साथ ही उनके अभिभावकों द्वारा उनके जीवन साथी के लिये अत्यंत खूबसूरत काल्पनिक पात्र सृजित कर रिश्ता तलाशा जाता है। लड़की सुंदर हो, काम काज में दक्ष हो, कंप्यूटर जानती हो और कमाना जानती हो-जैसे जुमले तो सुनने में मिलते ही हैं। उस पर दहेज की रकम की समस्या। समाज का यह अंतद्वंद्व सभी जानते हैं पर जिसका समय निकला जाता है वह उसे भुला देता है। जिन्होंने बीस वर्ष की उम्र में शादी कर ली वह अपने पुत्र या पुत्री को तीस वर्ष तक विवाह योग्य नहीं पाते-उनके बारे में क्या कहा जाये? क्या मनुष्य की दैहिक आवश्यकताओं को खुलकर कहने की आवश्यकता है? इंद्रियों को निंयत्रित करना चाहिये पर उनका दमन करना भी संभव नहीं है-क्या यह सच नहीं है।
ऐसा नहीं है कि इस सभी के बावजूद पूरा समाज इसी राह पर चल रहा है। अगर कोई वैश्यावृत्ति में संलिप्त नहीं है तो वह कानून के डर की वजह से नहीं बल्कि पुराने चले आ रहे संस्कारों ने सभी को इसकी प्रेरणा दे रखी है। हमारे संत महापुरुषों ने हमेशा ही व्यसनों से बचने का संदेश दिया है। उसके दुष्परिणाम बताये गए हैं। देश में आज भी नैतिकता को संबल मिला हुआ है क्योंकि वह संस्कारों के सहारे टिकी है। यह भरोसा वह हर विद्वान करता है जो इसे जानता है।
ऐसे में वैचारिक कायरों का वह समूह- जो चाहता है कि रात को टीवी पर खबरें देखते हुए ‘अपने देश की चारित्रिक रक्षा के दृश्य देखकर खुश हों‘-ऐसी बातें कह रहा है जिसको न तो समाज पर विश्वास है न ही अपने पर। पढ़ी लिखी लड़कियां ऐसे मामलों में पकड़े जाने मुंह ढंके दिखती हैं, तब सवाल यह उठता है कि आखिर उनका अपराध क्या है? वह किसको हानि पहुंचा रही थीं? याद रहे अपराध का मुख्य आधार यही है कि कोई व्यक्ति दूसरे को हानि पहुंचाये। अनेक बार अखबार में जुआ खेलते हुए पकड़े जाने वाले समाचार आते हैं। सवाल यह है यह भी शराब जैसे व्यसन है और जिस पर कोई रोक नहीं है।
दरअसल ऐसे कानूनों ने पुरुष समाज को गैर जिम्मेदार बना दिया है। अपने घर की औरतों की देखभाल करने के साथ ही उनपर नज़र रखना अभी तक पुरुषों का ही जिम्मा है। इस कानून ने उनको आश्वस्त कर दिया है कि औरतें डर के बारे में इस राह पर नहीं जायेंगी। समाज के ठेकेदार भी नैतिकता को निजी विषय मानने लगे हैं। इसके अलावा विवाह योग्य पुत्र के माता पिता-पुत्री के भी वही होते हैं उसका रिश्ता तय करते समय भूल जाते हैं-इस विश्वास में अधिक दहेज की मांग करते हैं कि कि कोई न कोई लड़की का बाप मजबूर होकर उनकी शर्ते मानेगा।
इसके अलावा समाज के ठेकेदार उसके नाम पर कार्यक्रम करने के लिये चंदा मांगने और चुनाव के समय उनको अपने हिसाब से मतदान का आव्हान करने के अलावा अन्य कुछ नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि बाकी सुधार के लिये तो राज्य ही जिम्मेदार है। समाज को अंधविश्वासों, रूढ़ियों तथा अनुचित कर्मकांडों से बचने का संदेश इनमें कोई नहीं देता। यही हालत आजकल के व्यवसायिक संतों की है।
एक बात यह भी लगती है कि अंग्रेजों ने इतने सारे कानून शायद इसलिये बनाये ताकि विश्व का बता सकें कि देखिये हम एक पशु सभ्यता को मानवीय बना रहे हैं और आज भी वह इसका दावा करते हैं। इधर अपने देश के वैचारिक कायर चिंतक उन्हीं कानूनों को ढोने की वकालत करते हैं क्योंकि अपने समाज पर विश्वास न रखने की नीति उन्हें अंगे्रजी शिक्षा पद्धति से ही मिलती है। अपने पूरा समाज को कच्ची बुद्धि का समझने की उनकी आदतें बदलने वाली नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि अपराध वह है जिससे दूसरे को हानि पहुंचे। वैश्यावृत्ति, जुआ या सट्टा ऐसे अपराध हैं जिसमें आदमी अपने धन और इज्जत तो गंवाता ही है अपना स्वास्थ्य भी खोता है। किसी स्त्री से जबरन वैश्यावृत्ति कराना अपराध है और इस पर सख्त कार्यवाही होना चाहिये। यही कारण है कि एक विद्वान से यह भी सलाह दी है कि वैश्यावृत्ति में पकड़े गये अपराधियों में इस बात की पहचान करने का प्रावधान हो कि कोई जबरन तो इस कार्य में नहीं लगा हो।
हमारे देश का सामाजिक ढांचा मजबूत है और पूरा विश्व इसे मानता है। हर आदमी घर परिवार से जुड़ा है। अधिकतर पुरुष अपने घरेलू समस्याओं को हल करने के लिये संघर्ष करते हैं। संभव है कुछ घरों में पुरुष सदस्य की बीमारी या आर्थिक परेशानी होने पर कुछ लड़कियां और महिलाऐं इस काम में लगती हों पर सभी एसा नहीं करती बल्कि अधिकतर नौकरी आदि कर अपना काम चलाती है। ऐसे में पूरे समाज को भ्रष्ट होने की आशंका करना बेमानी है। खासतौर से इस देश में जहां रोजगार और संपत्ति मौलिक अधिकार न बना हो। फिर जब समलैंगिकता जैसे मूर्खतापूर्ण कृत्य को छूट मिल रही है तब वैश्यावृत्ति जैसे कानून को बनाये रखने का औचित्य तो बताना ही पड़ेगा न! बुरे काम का बुरा नतीजा सभी जानते हैं और यही कारण है कि मनुष्य की आदतों को नियंत्रित करने का काम उसे ही करने देना चाहिये। आखिर मनुष्य एक समझदार प्राणी है।
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Saturday, December 12, 2009

खुदा और बंदे-हिन्दी साहित्य क्षणिकायें (khuda aur bande-hindi short poem)

धरती  का खुदा

नहीं है बंदों से जुदा।

फिर भी धरती को बचाने के लिये

चंद लोग एकत्रित हो जाते हैं

कभी कोपेनहेगन तो कभी

रियो-डि-जेनेरियों में

महंगी महफिलें सजाते हैं

बिगाड़ दिया है दुनियां का नक्शा

अब फिर तय करने लगे है नया चेहरा

बन रहे  नये खुदा

सोचते ऐसे हैं जैसे

दुनियां के बंदों से हैं जुदा।

---------

गोरों का राज्य मिट गया

पर फिर भी संसार पर हुक्म चलता है।

उसे बजाने के लिये हर

काला और सांवला मचलता है।

कुछ चेहरा है उनका गजब,

तो चालें भी कम नहीं अजब,

काला अंधेरा कर दिया

अपने विज्ञान से,

बीमार बना दिया सारा जमाना

अपने ज्ञान से,

बिछा दी चहुं ओर अपनी शिक्षा,

पढ़लिखकर साहुकार भी मांगे भिक्षा,

बिगाड़ दी हवा सारी दुनियां की

अब ताजी हवा को गोरे तरस रहे हैं,

सारे संसार पर अपने शब्दों से बरस रहे हैं,

विष  लिये पहुंचते हैं सभी जगह

अमृत की तलाश में

फिर भी दान नहीं मांगते

लूट का अंदाज है

फिर भी लोग उन्हें देखकर बहलते हैं।

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Monday, December 7, 2009

उम्मीद और विकास-हिन्दी क्षणिकायें (ummid aur vikas-hindi short poem)

 विकास के वादों का

मौसम जब आता

तब भी अब दिल नहीं मचलता

मालुम है कि

वादा भूलने के लिये ही किया जाता है।

कुछ हो जायेगा जमाने का भी भला

भर जायेगा  जब

वादे करने वालों का घर

विकास से,

तब टपक कर सड़क पर भी

कुछ बूंदें आ ही जायेगा

भले ही बरसात में बह जाता है।

-------

उम्मीद होने पर

तमाम वादे किये जाते हैं।

पूरी होने पर निभाये कोई

इस पर गौर मत करना

झोली भर गयी जिनकी विकास से

दूसरों का दर्द वह भूल जाते हैं।
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Friday, December 4, 2009

पर्यावरण पर नाटकबाजी से काम नहीं चलेगा-आलेख (Environmental drama will not work -hindi Articles)

यह आश्चर्य की बात है कि सारे संसार में आधुनिक साधनों से पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले देश ही उसकी सुरक्षा की बात कर रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस समय विश्व में जिस तरह तापमान बढ़ रहा है उससे मौसम में आया परिवर्तन इस धरती के जीवों के लिये खतरनाक है पर इसको लेकर किसी भी व्यक्ति या देश द्वारा अपनी यह कहकर अपनी शक्ति का यह प्रदर्शन करना ठीक नहीं है कि वह इसके लिये चिंतित है। केवल चिंता करना ही उनकी योग्यता का प्रमाण नहीं हो सकता। अगर किसी को अपनी चिंता की वास्तविकता सािबत करनी है तो उसे पहले अपने कृत्य से साबित करना भी होगा वरना उसे धूर्त ही समझा जायेगा। इस समय विश्व के कुछ विकसित देश अपने आपको दुनियां का सबसे बड़ा खैर ख्वाह समझ रहे हैं पर सच तो यह है कि वही इस देश का पर्यावरण बिगाड़ने के लिये जिम्मेदार हैं। सब जानते हैं कि ओजोन परत में छेद के बढ़ते जाने की वजह से हो रहा है और उसके लिये प्रथ्वी पर उपयोग में आने वाली गैस जिम्मेदार है।
यह प्रदूषण एक दिन में नहीं हुआ और न ही किसी एक गैस से हुआ है। कभी कहा जाता है कि एशिया के देश खाने की गैस का उपयोग करते हैं इसलिये यह गर्मी बढ़ रही है तो कभी अमेरिका की कंपनियों पर भी ऐसे ही आरोप लगते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि गैसों का अधिक उपयोग खतरनाक है पर इसके लिये किसी एक देश या महाद्वीप का जिम्मेदारी ठहराना ठीक नहीं है।
इस चर्चा में परमाणु ऊर्जा के उपयोग तथा उसके बमों का परीक्षण करने की चर्चा बिल्कुल नहीं आती जबकि अमेरिका और चीन ऐसे पता नहीं कितने प्रयोग समंदर और जमीन में कर चुके हैं। उससे जमीन को कितनी क्षति पहुंची और उससे कितनी गैस का विसर्जन हुआ इसका अनुमान कोई नहीं देता। इन दोनों देशों की मानसिकता ही साम्राज्यवादी है। इतना ही नहीं दोनों ही हथियारों के लिये अपना बाजार भी ढूंढते हैं। चीन ने ही पाकिस्तान को परमाणु संपन्न राष्ट्र बनने के लिये मदद की है। इन दोनों ने देशों ने परमाणु विस्फोटों से धरती को कितनी क्षति पहुुंचाई है इसका आंकलन जरूर किया जाना चाहिये। गैसों का उत्सर्जन कोई होने से कोई एक दिन में में पर्यावरण प्रदूषित नहीं हुआ। गैस कोई प्रकाश की गति से नहीं फैलती बल्कि इसके लिये पिछले कई वर्षों से मानवीय लापरवाही का यह नतीजा है। भारत जहां इस मामले में पूरी तरह ईमानदारी दिखा रहा है वहीं चीन और अमेरिका इसके लिये दिखावा अधिक करते हैं। भारत ने परमाणु परीक्षण भी इतने नहीं किये जितने इन देशों ने किये हैं। हालांकि चीन और रूस ने भारत द्वारा 25 प्रतिशत गैस उत्सर्जन कम किये जाने के प्रयास को सराहा है पर सवाल यह है कि यह दोनों देश स्वयं क्या करने जा रहे हैं और जो वादा कर रहे हैं उसे क्या निभायेंगे?
हमारे कहने का केवल यही आशय यह है कि पर्यावरण को राजनीतिक विषय न समझें बल्कि इस पर ईमानदारी से काम करें। विश्व भर में विकास के दावे तो बहुत किये जाते हैं पर साथ ही चल रहे विनाश की अनदेखी नहीं की जा सकती। इस पर अमेरिका तथा अन्य राष्ट्र ईमानदारी से सोचें। खाली नाटकबाजी से कुछ नहीं होने वाला है।
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Tuesday, December 1, 2009

सच का बयां किया-हिन्दी हास्य व्यंग्य (sach ka bayan-hindi vyangya-litreture)

दीपक बापू अपने घर से बाहर निकले ही थे कि सेवक ‘सदाबहार’जी मिल गये। दीपक बापू ने प्रयास यह किया कि किसी तरह उनसे बचकर निकला जाये इसलिये इस मुद्रा में चलने लगे जैसे कि किसी हास्य कविता के विषय का चिंतन कर रहे हों जिसकी वजह से उनका ध्यान सड़क पर जा रहे किसी आदमी की तरफ नहीं है। मगर सदाबहार समाज सेवक जी हाथ में कागज पकड़े हुए थे और उनका काम ही यही था कि चलते चलते शिकार करना। वह कागज उनके रसीद कट्टे थे जिसे लोग पिंजरा भी कहते हैं।
‘‘ऐ, दीपक बापू! किधर चले, इतना बड़ी हमारी देह तुमको दिखाई नहंी दे रही। अरे, हमारा पेट देखकर तो तीन किलोमीटर से लोग हमको पहचान जाते हैं और एक तुम हो कि नमस्कार तक नहीं करते।’उन्होंने दीपक बापू को आवाज देकर रोका
उधर दीपक बापू ने सोचा कि’ आज पता नहीं कितने से जेब कटेगी?’
उन्होंने समाज सेवक जी से कहा-‘नमस्कार जी, आप तो जानते हो कि हम तो कवि हैं इसलिये जहां भी अवसर मिलता है कोई न कोई विषय सोचते हैं। इसलिये कई बार राह चलते हुए आदमी की तरफ ध्यान नहीं जाता। आप तो यह बतायें कि यह कार यात्रा छोड़कर कहां निकल पड़े?’
सेवक ‘सदाबहार’जी बोले-अरे, भई कार के बिना हम कहां छोड़ सकते हैं। इतना काम रहता है कि पैदल चलने का समय ही नहीं मिल पाता पर समाज सेवा के लिये तो कभी न कभी पैदल चलकर दिखाना ही पड़ता है। कार वहां एक शिष्य के घर के बाहर खड़ी की और फिर इधर जनसंपर्क के लिये निकल पड़े। निकालो पांच सौ रुपये। तुम जैसे दानदाता ही हमारा सहारा हो वरना कहां कर पाते यह समाज सेवा?’
दीपक बापू बोले-‘किसलिये? अभी पिछले ही महीने तो आपका वह शिष्य पचास रुपये ले गये था जिसके घर के बाहर आप कार छोड़कर आये हैं।’
सेवक ‘सदाबहार’-अरे, भई छोटे मोटे चंदे तो वही लेता है। बड़ा मामला है इसलिये हम ले रहे हैं। उसने तुमसे जो पचास रुपये लिये थे वह बाल मेले के लिये थे। यह तो हम बाल और वृद्ध आश्रम बनवा रहे हैं उसके लिये है। अभी तो यह पहली किश्त है, बाकी तो बाद में लेते रहेंगे।’
दीपक बापू ने कहा-‘पर जनाब! आपने सर्वशक्तिमान की दरबार बनाने के लिये भी पैसे लिये थे! उनका क्या हुआ?
सदाबहार जी बोले-‘अरे, भई वह तो मूर्ति को लेकर झगड़ा फंसा हुआ है। वह नहीं सुलट रहा। हम पत्थर देवता की मूर्ति लगवाना चाहते थे पर कुछ लोग पानी देवता की मूर्ति लगाने की मांग करने लगे। कुछ लोग हवा देवी की प्रतिमा लगवाने की जिद्द करने लगे।’
दीपक बापू बोले-‘‘तो आप सभी की छोटी छोटी प्रतिमायें लगवा देते।’
सदाबहार जी बोले-कैसी बात करते हो? सर्वशक्तिमान का दरबार कोई किराने की दुकान है जो सब चीजें सजा लो। अरे, भई हमने कहा कि हमने तो पत्थर देवता के नाम से चंदा लिया है पर लोग हैं कि अपनी बात पर अड़े हुए हैं। इसलिये दरबार का पूरा होना तो रहा। सोचा चलो कोई दूसरा काम कर लें।’
दीपक बापू बोले-पर सुना है कि उसके चंदे को लेकर बहुत सारी हेराफेरी हुई है। इसलिये जानबूझकर झगड़ा खड़ा किया गया है। हम तो आपको बहुत ईमानदार मानते हैं पर लोग पता नहीं आप पर भी इल्जाम लगा रहे हैं। हो सकता है कि आपके चेलों ने घोटाला किया हो?
सदाबहार जी एक दम फट पड़े-‘क्या बकवाद करते हो? लगता है कि तुम भी विरोधियों के बहकावे मंें आ गये हो। अगर तुम्हें चंदा न देना हो तो नहीं दो। इस संसार में समाज की सेवा के लिये दान करने वाले बहुत हैं। तुम अपना तो पेट भर लो तब तो दूसरे की सोचो। चलता हूं मैं!’
दीपक बापू बोले-हम आपकी ईमानदारी पर शक कर रहे हैं वह तो आपके चेले चपाटों को लेकर शक था!
सदाबहार जी बोले-ऐ कौड़ी के कवि महाराज! हमें मत चलाओ! हमारे चेले चपाटों में कोई भी ऐसा नहीं है। फिर हमारे विरोधी तो हम पर आरोप लगा रहे हैं और तुम चालाकी से हमारे चेलों पर उंगली उठाकर हमें ही घिस रहे हो! अरे, हमारे चेलों की इतनी हिम्मत नहीं है कि हमारे बिना काम कर जायें।’
दीपक बापू बोले-‘मगर मूर्ति विवाद भी तो उन लोगों ने उठाया है जो आपके चेले हैं। हमने उनकी बातें भी सुनी हैं। इसका मतलब यह है कि वह आपके इशारे पर ही यह विवाद उठा रहे हैं ताकि दरबार के चंदे के घोटाले पर पर्दा बना रहे।’
सर्वशक्तिमान बोले-‘वह तो कुछ नालायक लोग हैं जिनको हमने घोटाले का मौका नहीं दिया वही ऐसे विवाद खड़ा कर रहे हैं। हमसे पूछा चंदे के एक एक पैसे का हिसाब है हमारे पास!
दीपक बापू बोले-‘तो आप उसे सार्वजनिक कर दो। हमें दिखा दो। भई, हम तो चाहते हैंें कि आपकी छबि स्वच्छ रहे। हमें अच्छा नहीं लगता कि आप जो भी कार्यक्रम करते हैं उसमें आप पर घोटाले का आरोप लगता है।
सदाबहार जी उग्र होकर बोले-‘देखो, कवि महाराज! अब हम तो तुम से चंदा मांगकर कर पछताये। भविष्य में तो तुम अपनी शक्ल भी नहीं दिखाना। हम भी देख लेंगे तो मुंह फेर लेंगे। अब तुम निकल लो यहां से! कहां तुम्हारे से बात कर अपना मन खराब किया। वैसे यह बात तुम हमारे किसी चेले से नहीं कहना वरना वह कुछ भी कर सकता है।’
सदाबहार जी चले गये तो दीपक बापू ने अपनी काव्यात्मक पंक्तियां दोहराई।
हमारी कौड़ियों से ही उन्होंने
अपने घर सजाये
मांगा जो हिसाब तो
हमें कौड़ा का बता दिया।
खता बस इतनी थी हमारी कि
हमने सच का बयां किया।’
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