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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Tuesday, July 27, 2010

खंजर और यकीन-हिन्दी शायरी (khanjar aur yakeen-hindi shayri)

खंजर उनके हाथ में है
सच बोलने की कसमें
बेकार खा रहे हैं,
सामने खड़ी है कायरों की फौज
सभी खौफ के मारे
हां में हां मिला रहे हैं।
कौन करेगा उनकी असलियत बयान
करते हैं जो हर रोज कत्ल
ऐसे कातिलों को
बहादुर जैसी इज्जत दिला रहे हैं।
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कुछ लोगों पर यकीन करना
यूं भी कठिन होता है,
क्योंकि पीठ पीछे खंजर घौंपने में
वह होते हैं माहिर,
दूसरा घाव न करें
इसलिये दर्द झेलते हुए भी
कोई नहीं करता उनकी असलियत जाहिर।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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Friday, July 23, 2010

खुश करने वाली सूरतें कम नज़र आती-हिन्दी शायरी (khush karne vali suhten-hindi shayri)

ख्वाहिशों का यह हाल है
कि एक पूरी होती
दूसरी चली आती है,
यह जिंदगी यूं ही उनको पूरा करते हुए की
जंग में बीत जाती है।
हंसी जो दिल से आये,
खुशी वह जो दूर तक भाये,
ग़मों में भी हैरान हो इंसान
सभी को खुश कर दे
ऐसी सूरतें कम हीं नज़र आती है।
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Tuesday, July 20, 2010

वर्षा ऋतु का दर्शन-हिन्दी व्यंग्य (vashya ritu ka darshan-hindi vyangya)

पुरानी लोक कथा है जिसे सभी पढ़ या सुन चुके हैं। एक किसान अपनी दो बेटियों से मिलने गया। एक बेटी किसान के घर में ब्याही थी। वह उससे मिलकर अपने घर जाने को तैयार हुआ तो बेटी ने कहा-‘पिताजी, भगवान से प्रार्थना करिये इस बार बरसात जल्दी और अच्छी हो क्योंकि अब खेतों में बोहनी का समय निकल रहा है।’
किसान ने कहा-‘हां भगवान से प्रार्थना करूंगा कि इस बार अच्छी और जल्दी बारिश हो।’
उसके बाद वह अपनी दूसरी बेटी से मिलने गया तो चलते समय उस बेटी नेे कहा-‘पिताजी, भगवान से प्रार्थना करिये कि अभी बारिश न हो क्योंकि
हमारे मटके धूप में सूखने के लिये रखे हुए हैं अगर पानी पड़ा तो सब बरबाद हो जायेगा। फिर बारिश होते ही उनकी बिक्री भी कम हो जाती है।’
यह तो पुरानी कहानी है जिसमें वर्षा ऋतु को लेकर मनुष्य समाज का अंतर्विरोध दर्शाया गया है पर वर्तमान समय में तो यही अंतर्विरोध एक मनुष्य में ही सिमट गया है और खासतौर से शहरी सभ्यता में तो इसके दर्शन प्रत्यक्ष किये जा सकते हैं।
हमारा घर ऐसी कालोनी में है जिसमें अपनी बोरिंग से ही पानी आता है। पिछले पांच छह वर्षों से गर्मियों में जिस संकट का सामना करना पड़ता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। इस बार फरवरी से ही संकट प्रारंभ हुआ जो हैरानी की बात थी। पिछली बार बारिश अच्छी हुई थी इसलिये हमें आशा थी कि इस बार पानी का स्तर अधिक नीचे नहीं जायेगा मगर फरवरी से ही संकट प्रारंभ हो गया। पानी पांच मिनट आता फिर बंद हो जाता था। तब बार बार मशीन बंद कर चलाना पड़ता। अप्रैल आते आते यह दो मिनट तक रह गया। जून आते आते एक मिनट तक रह गया। दरअसल हमारा इलाका पानी की बहुलता के लिये जाना जाता है और अनेक कारखाने इसलिये वहां बड़ी बड़ी मशीने लगाकर उसका दोहन करने लगे हैं।
अब समस्या दूसरी थी। अगर बोरिंग खुलवाते हैं तो कमरे में जाने वाला पाईप भी गल चुका है और उसे भी बदलवाना पड़ेगा क्योंकि वहां से हवा पकड़ लेती है। दो साल पहले पाईप दस फुट बढ़वाया था और अब उसमें बढ़ने की संभावना है कि पता नहीं। सोचा जब तक चल रहा है चलने दो। कहीं खुलवाया तो इससे भी न चले जायें। दूसरी बोरिंग खुदवाना इस समय महंगा काम हो सकता है दूसरा यह कि हम भी प्रंद्रह वर्षों से अपनी इस आशा को जिंदा रखते रहे हैं कि कालौनी में सरकारी पानी की लाईन आ जायेगी।
बहरहाल ऐसे में हमें बरसात से ही आसरा था। हर रोज यही लगता था कि आज पानी ने साथ छोड़ा कि अब छोड़ा। पिछले शनिवार जब आकाश में बादल चिढ़ा रहे थे तब तो लग रहा था कि अब पानी भी चिढ़ाने वाला है। आकाश से बादल चले जा रहे और नीचे सूखा। फिर उमस ऐसी कि लगता था कि शायद नरक इसे ही कहा जाता है।
ऐसे में बरसात हुई तो मजा आ गया। उम्मीद है कि कम से कम पानी अभी तत्काल साथ नहीं छोड़ेगा मगर सड़कों क्या करें? रात को घर लौटते हुए घर पहुंचना किसी जंग से कम नहीं लगता। सभी जगह विकास कार्यों की वजह से कीचड़! कई जगह बाई पास मार्ग ढूंढना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह कि अपनी कालोनी की सड़क अब पूरी तरह से मिट्टी वाली हो गयी है और डंबर नाममात्र को भी नहीं है, मगर यही सडक अब एक तरह से पानी संचय का काम करती है क्योकि बाकी जगह तो मकान बन गये हैं। जगह जगह पानी भर गया है पर फिर भी सड़क बन जाये ऐसा ख्याल नहीं आता क्योंकि हमारी मुख्य समस्या तो पानी है।
शाम को घर आते हुए पानी की बूंदे गिर रही थीं, सड़कों से जूझते हुए बढ़ रहे थे पर फिर भी दिल में यह ख्याल नहीं आया कि बरसात बंद हो जाये।
खराब सड़क देखकर चिढ़ आती है कि ‘यहां डंबरीकरण क्यों नहीं हो रहा है’ पर तत्काल अपनी बोरिंग का ख्याल आता है तो सोचते हैं कि बरसात तो कभी कभी न थम जायेगी तो सड़क वैसे ही दिखाई देगी पर अगर पानी नहीं मिला तो सड़क पर ही कहीं जाकर सरकारी स्त्रोत से पानी भरना पड़ेगा।
पिछले ऐसा ही वाक्या हुआ।
एक हमारी जान पहचान के सज्जन है उनके यहां सरकारी नल से पानी आता है। संयोगवश उस दिन बरसात हो रही थी और वह हमारे साथ ही एक दुकान की छत के नीचे आसरा लिये खड़े हुए थे। पता नहीं कैसे वह बड़बड़ाये कि ‘हे भगवान, पानी बंद हो जाये तो घर पहुंच जाऊं।’
पास ही एक ग्रामीण अपनी साइकिल खड़ी करके वहां बैठा बीड़ी पी रहा था। वह बोला-‘भगवान और जोर से बारिस कर।
फिर वह उन सज्जन की तरफ मूंह कर बोला-‘कैसी बात कर रहे हो। हमारे गांव में बोरिंग से पानी बहुत कठिनाई से निकल रहा है। खेत सूखे पड़े हैं और आप हो कि बारिश शुरु हुई नहीं है कि उसे बंद करने की प्रार्थना करने लगे।’
उस ग्रामीण ने बात हमारे मन की कही थी पर हमारे अंदर भी वैसा ही अंतर्द्वंद्व था जैसा कि किसान के मन में बेटियों की वजह से आया होगा।
बहरहाल स्थिति यह है कि सड़कों की हालत यह है कि बरसात के दिनों मे घर से बाहर निकलने की इच्छा ही नही होती। वैसे भी हमारे देश के अध्यात्म दर्शन में वर्षा ऋतु में बाहर निकलना वर्जित किया गया है । वैसे कुछ समय पहले तक कहा जाता था कि वर्तमान समय में सड़कें आदि बन गयी हैं इसलिये अब इस धारा से मुक्ति पायी जानी चाहिए पर जब देश के विभिन्न शहरों की स्थिति देखते हैं तो यह धारा आज भी प्रभावी लगती है क्योंकि डंबरीकृत सड़कें्र एक बरसात में ही बह जाती हैं उस पानी से लबालब सड़क पर कहां सीवर लाईन का गटर है पता नहीं क्योंकि उनमें गिरने वालों की बहुत बड़ी संख्या रहती है-ऐसे समाचार अक्सर आते रहते हें तब लगता है कि वर्षा ऋतु में भारतीय अध्यात्म ज्ञान आज भी प्रासांगिक है।
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Friday, July 16, 2010

हास्य कविताएँ -जैसे मस्ती ही उनका ईमान हो(jaise masti hee unka iman ho-hasya vyanyga kavitaen)

मतलब निकल जाये तो
दोस्त भी आंख फेर लेते हैं,
बात अगर पैसे की हो तो
वफादारी दांव पर धर देते हैं।
खुशफहमी है उनकी कि
हमने उन पर कभी भरोसा किया,
हालातों से मजबूर इंसान
कुछ भी कर सकता है
यह सच हमने भी जान लिया,
इसलिये गद्दारी को भी
हंस कर अपने पर लेते हैं।
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खूब वफा के उन्होंने वादे किये
मौका आया तो अपनी
बिचारगी जता दी
जैसे कोई बेबस इंसान हो।
हमने जो मुंह फेरा वहां से
मस्त हो गये वह अपनी महफिल में
जैसे मस्ती ही उनका ईमान हो।
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Thursday, July 15, 2010

सोचो जरा-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (socho jara-hindi vyangya kavitaen)

अपने हाथों ही अपने भविष्य का ठेका
अंधों को दे दिया
अब रोते क्यों हो,
रौशनी बेचकर
अपनी आंखों से
अपनी तिजोरी में बढ़ती हरियाली देखकर
वह खुश हो रहे हैं,
आंसु बहाने से अच्छा है
तुम सोचो जरा
दंड मिले खुद को
ऐसे अपराध इस धरती पर बोते क्यों हो।
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उनके काम पर उंगली न उठाओ,
अपने हाथ से
सारे हक तुमने उनको दिये हैं,
कुदरत ने दिये थे जो तोहफे तुमको
उनका इस्तेमाल तुमने बेजा किया
जैसे मुफ्त में लिये हैं।
कुछ वादों को झूठ में देकर
दूसरों से हक लेकर
वह लोग अपने पेट भरते नहीं थकते
क्योंकि उसे भरने के लिये ही
वह दूसरों के लिये जिए हैं।
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Sunday, July 11, 2010

व्यापार को खेल बनाने की कोशिश-हास्य व्यंग्य (vyapar aur khel-hindi hasya vyangya)

कल एक ब्लाग पर अपने एक आलेख में इस लेखक ने विश्व कप 2010 फुटबाल विश्व कप में स्पेन के विरुद्ध हालैंड के जीतने की भविष्यवाणी कर दी। क्यों की? न अब फुटबाल से वास्ता न ज्योतिष से। ज्योतिष गणना को तो सवाल ही अलबत्ता एक समय हॉकी और फुटबाल खेलने से वास्ता रहा जो समय के साथ छूट गया।
जब सवाल अपने से करें तो जवाब भी अपने को ही देना पड़ता है? अब अगर भविष्यवाणी गलत निकली तो अपने आप से मुंह छिपाना भी कठिन होगा। गनीमत है कि ब्लाग कम लोग पढ़ते हैं। पहला लेख कुछ बड़ा था इसलिये यह संभव नहीं है कि पढ़ने वालो को वह भविष्यवाणी याद रहे पर अपने को भूलना कठिन लगता है। गनीमत है कि यह पाठ लिखने जाने इस लेखक सहित अन्य पांच लोगों ने पढ़ा।
कल अपना लिखा पाठ आज स्वयं ही पढ़ा-ऐसी गलती शायद पहली बार की होगी। दरअसल कल जर्मनी के बारे में लिखते हुए उसकी जीत की भविष्यवाणी की पॉल बाबा से सहमति जताना था पर उसका आधार ज्योतिष नहीं बल्कि पिछले विश्व कप ं तक जर्मनी के खिलाड़ियों का प्रदर्शन देखकर था। यह बात लेख लिखते समय थी पर बाद में याद न रहा। यहां इस लेखक से चूक हो गयी क्योकि अगर वह भविष्यवाणी सही निकलती तो आज हालैंड के जीतने की भविष्यवाणी का तनाव नहीं रहता। पचास पचास फीसदी अवसर का लाभ मिल जाता।
दरअसल ऑक्टोपस यानि पॉल बाबा की अब तक सात भविष्यवाणियां सही निकल चुकी हैं। विश्व कप के खेल के साथ ऑक्टोपस का भी खेल चल रहा है। कुछ लोगों को आश्चर्य हो रहा है कि ऑक्टोपस की भविष्यवाणी सही कैसे निकल रही है।
दरअसल यह एक प्रायोजित खेल है। खेलों पर सट्टा लगाने में वैसे तो पूरे विश्व के लोग माहिर हैं पर आजकल पैसे के मामले में एशियाई देश आगे चल रहे हैं। इसक अलावा एशियाई लोग भूत, बाबा, प्रेत और सिद्धों के चक्कर में पड़े रहते हैं। भविष्य के चक्कर में अपना वर्तमान तबाह कर लेते हैं और तिस पर दो के चार होने की बात हो तो एक नहीं हजारों मूर्ख मिल जायेंगे।
जिस तरह अपने यहां क्रिकेट खिलाड़ी धन, प्रतिष्ठा और शक्ति अर्जित कर रहे हैं उसे देखते हुए फुटबाल गरीबों का खेल हो गया है और उसे एशियाई समर्थन की आवश्यकता है, शायद पॉल बाबा का प्रयोग इसलिये किया गया ताकि सेमीफायनल आते आते उसका लाभ एशियाई देशों में लिया जा सके।
अभी तक फुटबाल में सट्टबाजी की चर्चा नहीं हुई पर अब हो रही है। प्रचार माध्यम बता रहे हैं कि इस फायनल मैच में दो हजार करोड़ का सट्टा लग रहा है। तब खोपड़ी में बात आयी कि कहंीं केवल इस फायनल मैच में बड़ी रकम लगवाने के लिये प्रारंभ से ही इसकी कड़ी से कड़ी तो नहीं जोड़ी गयी। ऑक्टोपस-यह एक समुद्री जीव है-दिन में एक बार भविष्यवाणी करता था जबकि विश्व कप में अधिकतर दो मैच प्रतिदिन होते थे। इसका मतलब यह कि एक मैच में उसकी भविष्यवाणी नहीं होती। फिर इतने मैच हुए पर भविष्यवाणी छह या सात ही क्यों हुई? सीधी सी बात है कि फुटबाल के सट्टे में एशियाई देशों की सक्रियता कम रही होगी। इसलिये धीरे धीरे ऑक्टोपस बाबा को नायक के रूप में विकसित किया गया होगा। अपने यहां के प्रचार माध्यमों ने तीन बाबा और खड़े किये हैं-एक मगरमच्छ, एक तोता और बैल इन बाबाओं के प्रतिरूप हैं। दो हालैंड के तो दो स्पेन को संभावित विजेता बता रहे हैं।
इस विश्व कप फुटबाल के न हमने पहले मैच देखे न फायनल देखने का इरादा है। परिणाम भी हमें अगले दिन सुबह आठ बजे ही पता चलेगा जब अपने पोर्च में रखा अखबार उठायेंगे। वैसे प्रयास तो यही होगा कि प्रातः छह बजे उठकर योग साधना से पहले ही अखबार उठायें पर यह तभी संभव है कि हमें याद रहे कि कल रात कोई विश्व कप फुटबाल फायनल मैच हुआ है जिसके परिणाम की भविष्यवाणी हमने भी की है। वैसे हमारी दिलचस्पी फुटबाल मैच में कम ऑक्टोपस नामक उस जीव में ज्यादा है जो इस विषय में कुछ नहीं जानता पर उसके नाम पर करोड़ों के वारे न्यारे हो रहे हैं। शायद इसलिये कहते हैं कि भगवान जिन पर कृपालु है उनको ही मनुष्य यौनि मिलती है। मनुष्य यौनि में अपने लोक नायक या नायिका हो जाने पर सुखद आनंद की अनुभूति की जा सकती है जबकि अन्य जीवों के लिये यह संभव नहीं है। चाहे वह बंदर हो या कुत्ता, तोता हो या ऑक्टोपस या बैल को यह पता नहीं होता कि वह लोक नायक बन रहे हैं।
अब तो यह कहना कठिन है कि कौन जीतेगा। जब सारी दुनियां में ऑक्टोपस की भविष्यवाणी और फुटबाल की चर्चा हो रही है तब सट्टे वाले अपने मोबाइल, इंटरनेट तथा अन्य साधनों के द्वारा सक्रिय रहकर इस बात का हिसाब लगा रहे होंगे कि किसकी जीत में उनको फायदा है। फिर अपने आंकड़े बिठाने के प्रयास करेंगे। यकीन करिये अगर स्पेन की हार में उनका फायदा है तो ऑक्टोपस को भी खलनायक बना देंगे और हालैंड की जीत में लाभ है तो बैल को नंदी को भगवान शिव की सवारी कहकर सम्मानित करेंगे-उस बैल का भी यही नाम बताया गया है जिसने हालैंड के जीतने की भविष्यवाणी की है।
वैसे आशंका यही है कि ऑक्टोपस की भविष्यवाणी अधिक लोकप्रिय हुई है इसलिये लगाने वाले दाव स्पेन पर ही अधिक होंगे-इसका आधार यह है कि सट्टे पर पैसा लगाने वालों में अक्ल कम होती है और उनका पैसा बिना मेहनत का होता है इसलिये उसका महत्व नहीं जानते-ऐसे में हालैंड की जीत हो सकती है।
दो हजार करोड़ रुपये कम रकम नहीं होती। इसमें बड़े बड़े लोगों का ईमान डोल सकता है। दूसरों की बात तो छोड़िये कोई हमें दो हजार रुपये ही दे तो हम अभी हाल स्पेन के जीतने की भविष्यवाणी कर देते हैं-अधिक रकम इसलिये नहीं लिखी क्योंकि एटीएम से हम इससे अधिक रकम नही निकालते।
यह लेख कंप्यूटर पर दिख रहे टाईम कें अनुसार 10.49 पर लिखना प्रारंभ किया था और 10.25 मिनट पर समाप्त कर रहे हैं। हमारे यहां सुबह बिजली पांच घंटे चली जाती है इसलिये अब कंप्यूटर पर शाम आठ बजे से पहले आना संभव नहीं है। ऐसे में अब इस लेख को जब दोबारा पढेंगे तब तक यह विषय ही बासी हो चुका होगा। बस इतना देखना है कि बाज़ार के इस महानायक ऑक्टोपस का क्या होता है और सट्टेबाज खेल को प्रभावित कितना कर पाते हैं? अलबत्ता रकम देखकर लगता है कि यह खेल भी अब पैसे को हो गया है। इतनी बड़ी रकम से व्यापार करने वाले सौदे में अपनी पकड़ आखिरी तक नहीं छोड़ते-चाहे वह फुटबाल हो या क्रिकेट! वह हर जगह अपने मोहरे इस तरह फिट रखते हैं कि जनता को खेल तो खेल की तरह लगे पर भले ही वह उनका व्यापार हो।
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Friday, July 9, 2010

मूली सभी के लिये विषैली नहीं होती- व्यंग्य (mooli sabhi ke liye vishaili nahin hoti-hindi vyngya)

यही है बाज़ार और उससे प्रायोजित प्रचार माध्यमों को खेल कि लौकी भी अब विषैले पदार्थों में शामिल हो सकती है।
हमें याद है जब सात वर्ष पूर्व जब उच्च रक्तचाप की शिकायत होने पर आधुनिक चिकित्सकों के शरण लेनी पड़ी थी।
एक मित्र होम्योपैथी चिकित्सक ने रक्तचाप की नाप ली और कहा कि ‘तुम्हें उच्च रक्तचाप है।’
हमने कहा-‘ज्यादा झाड़ो नहीं! हम अपनी बीमारी स्वयं ही बता देते हैं। हमें शराब की बहुत खराब आदत है। फिर कल मंगलवार होने के कारण व्रत था इसलिये शाम को शादी में खाना देर से खाया। उससे पहले शराब का पैग लिया पर एक घूंट के बाद ही हमारी हालत बिगड़ गयी। बाद में खाना गया तो चैन आया पर रात को नींद आराम से आयी और अब चाय के बाद हालत बिगड़ी है। ऐसा लगता है कि गैस की समस्या है।’
चिकित्सक ने कहा‘-तुम अपनी बीमारी जानते हो तो मेरे पास क्यों आये।’
हमने कहा-‘कोई वायु विकार दूर करने वाली गोली बता दो।’
चिकित्सक ने कहा-‘ मित्र हो इसलिये अभी उच्च रक्तचाप की गोली देता हूं। वह भी आधी लेना और हां शराब और तंबाकू से पीछा छुड़ाओ। साथ ही यह चेकअप की कराओ।’
हमने गोली ली और घर आये। बीमारी की वजह स्वयं को पता थी। शराब से पीछा छुड़ाया। तंबाकू भी एकदम छोड़ दी-हालांकि वह अब भी है और योग साधना के कारण उसके दुष्परिणाम से बचे रहते हैं। उस समय इससे परहेज करने से शरीर के व्यसनों की वजह से सक्रिय अंग ढीले पड़ गये।
उसके बाद शुरु हुआ लोगों से चर्चा का सिलसिला। मधुमेह की समस्या थी पर अधिक नहीं। अब स्थिति यह थी कि हमें लगने लगा कि जीवन ऐसे ही संकट के साथ चलेगा। लोगों की सलाहें ली। एक ने कहा खाने के साथ सलाद लिया करो। हमने मूली खाना प्रारंभ किया। नियमित रूप से लेते और शाम को स्थिति बिगड़ती। मूली हम खाते थे खाना पचाने के लिये पर वह संकट की वजह बन रही है इसका पता चला तब जब किसी ने बताया कि मूली हर किसी को नहीं पचती। हमने दो दिन मूली छोड़ी तो समस्या से निजात मिली।
लोगों ने करेले और लौकी का जूस पीने की सलाह दी। हमने उसे अनसुना किया और अपना इलाज स्वयं ही शुरु किया। हमें पता था कि घरेलू समस्याओं की वजह से चार महीने तक साइकिल चलाना छोड़ने से शरीर में संकट पैदा हुआ है। साइकिल चलाना शुरु की। शराब एकदम कम कर दी पर तंबाकू छूटने नहीं छूटी।
सबकुछ सामान्य था पर मन में यह बात आ गयी कि हम उच्च रक्तचाप के शिकार है। उसी समय अखबार में पढ़ा कि देश के साठ प्रतिशत लोगों को पता ही नहीं कि वह मनोरोग का शिकार है और हमें लगने लगा कि हम उनमें से एक ही हैं। जिस चिकित्सक ने उच्च रक्तचाप के बाद तमाम तरह के चेकअप लिख कर दिये थे उसी ने ही एक अपने से बड़े होम्यापैथिक चिकित्सक के पास भेजा। उसने ही तमाम तरह के चेकअप किये और पर्चे पर लिखा हाईपर ऐसिडिटी। बात हमारी समझ में आ गयी क्योंकि वह हमारे पूर्वानुमान से मेल खाती थी। सब कुछ सामान्य होने के बावजूद मानसिक स्थिति खराब हो चली थी। इसी बीच एक योग शिविर कालोनी में लगा।
हम उन दिनों सुबह घूमने जाते थे। एक सज्जन ने हमसे कहा-‘अरे आप उस योग शिविर में आईये। इस तरह सैर करने से कोई अधिक लाभ नहीं होता।’
हमने शिविर में जाना किया। शिविर में जो शिक्षक आते थे। वह भले आदमी थे। पांचवें दिन योग साधना कर हम घर लौटे तो हालत बिगड़ गयी। तब हमने अपने ही फ्रिज में रखी बर्फी खाकर अपने पर नियंत्रण किया क्योंकि हमें पता था कि वायुविकार के हमले का प्रतिकार करने का यही एक उपाय है।
अगले दिन हमने योग शिक्षक को बताया तो उन्होंने अच्छी बात कहीं। वह बोले-‘एक बात बताईये कि अगर हमारे घर में अनेक किरायेदार हों और हम सबसे मकान खाली करने को कहें तो क्या वह प्रसन्न होंगे? कोई चुपचाप बद्दुआऐं देता जायेगा। कोई लड़ेगा, कोई केस भी कर सकता है। यह आपके अंदर वायु विकार है जो कर आपसे लड़ रहा था क्योंकि योग साधना उसको निकालने आयी थी।’
हमें उसके जवाब ने हतप्रभ कर दिया। सात वर्ष हो गये योग साधना करते हुए।  सच तो यह है कि ज़िन्दगी कि दूसरी पारी है जो योगढ़ना खेल रही है, न कि हम स्वयं!अब किसी चीज पर भरोसा नहीं। न लौकी न करेला। पपीता खाना पड़ता है क्योंकि तंबाकू की वजह से कब्जी का मुकाबला करने के वही काम आता है। तंबाकू न खायें तो खाना तरस जाये कि यह हमें खाता क्यों नहीं और पानी देखता रहे कि यह पीता क्यों नहीं!
जब तनाव के क्षण आते हैं तो हम तंबाकू का त्याग कर देते हैं क्योंकि हमें पता है कि वह मानसिक संतुलन बिगाड़ता है। साइकिल चलाकर दूर तक चले जाते हैं। घर लौटते हैं तो लगता ही नहीं कि साइकिल चलाकर आये हैं। तब सोचते हैं कि काश! यह योग साधना बचपन में किसी ने सिखाई होती।
इसी योग साधना को लेकर भी तमाम तरह के दुष्प्रचार होते रहते हैं जिसके बारे में हमारा दावा है कि खुश रहने के लिये इससे बेहतर कोई उपाय नहीं है। योग साधना से अमरत्व नहीं मिलता पर इंसानों की तरह जिंदा रहने की ताकत मिलती है। जहां तक पेट पालने का सवाल है तो पशु भी पल जाते हैं और इंसान ही केवल इस भ्रम में रहता है कि वह स्वयं को पाल रहा है।
टीवी चैनलों पर लौकी का जूस पीकर मरने वाले एक दंपत्ति की मौत होने के साथ ही एक अधेड़ के बीमार पड़ने की खबर जोरशोर से चल रही थी। इधर इंटरनेट पर पता चला कि जिन दंपत्ति की मौत हुई वह डिब्बा बंद था यानि किसी कंपनी के द्वारा पैक किया गया पर उसका नाम नहीं पता लगा। चैनल शायद इस बात को छिपा रहे हैं ताकि लोग स्वयं लोकी का रस बनाने से बचें और कंपनियों का खरीदें।
अनेक बार नकली दूध की खबरें आती हैं तब लगता है कि सारे देश में वही दूध बिक रहा है। तब मन खराब होता है। एक ब्लाग लेखक ने तो आरोप लगाया था कि कंपनियों के लिये दूध बेचने का मार्ग बनाने के लिये निजी असंगठित ंक्षेत्र को बदनाम करने के लिये ऐसा प्रचार किया जा रहा है। लौकी के बाद करेले पर निशाना लगेगा। योग साधना पर तो लगता ही रहता है। ऐसा क्यों?
कभी कभी सुबह योग साधना के पहले या बाद में पार्क जाना होता है। कभी कभी शाम को भी जाते हैं। वहां योग साधना, व्यायाम तथा सैर करने वालों की संख्या देखकर लगता है कि लोग अब अपने स्वास्थ्य को लेकर सजग हैं। हालांकि सुप्तावस्था में रहने वाले लोगों की संख्या कहंी अधिक है पर सजगता का बढ़ता दायरा दवा कंपनियों के लिये चिंता का विषय हो सकता है। अनेक जगह चिकित्सा शिविर लगते हैं जहां चिकित्सक अपने यहां चेकअप की सलाह लिखकर देते हैं।
प्रसंगवश कहते हैं कि देश में भुखमरी अधिक है पर आंकड़े बताते हैं कि खाकर मरने वालों की संख्या अधिक है भूख से मरने वालों की कम! सीधा मतलब है कि खाने पीने में सावधानी से बीमारी से बचा जा सकता है। कम से कम खाद्य पदार्थ अपने घर पर ही निर्माण किये जायें उतना ही अच्छा! प्रतिदिन योग साधना की जाये तो कहना ही क्या? बाज़ार और उसके प्रचार माध्यमों पर एकदम निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं। हमने मूली से तौबा की पर इसका मतलब यह नहीं कि वह सभी के लिये विषैली है। वैसे अगर कोई प्रायोजित लेख लिखने के लिये कहे तो हम उस पर बहुत कुछ नकारात्मक लिख सकते हैं।
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Tuesday, July 6, 2010

सच्चाईयों से जंग के हरजाने-हिन्दी क्षणिकायें

अंधेरों को दूर करने का वादा कर
उन्होंने सिंहासन हथिया लिया
फिर दूसरों के घर की रौशनी लूटकर
अपना महल चमका लिया।
दर्द उनकी बेवफाई का नहीं
हैरान हैं इस बात पर
रोज वादों पर धोखा खाते लोगों ने
बार बार उन पर यकीन कर लिया।
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सेवा के सौदागरों को अपने घर भी भरने हैं,
फुरसत मिले तो लोगों को भरमाने के लिये
नये नारे भी गढ़ने हैं।
मुफ्त में उनसे भले की उम्मीद कर
अपने आप को क्यों धोखा देते हो
परदे पर सपने देखकर
कब तक कितना चैन पायेंगे
वादों से कब तक अपने को बहलायेंगे
जबकि अपनी सच्चाईयों से जंग के हरजाने
खुद अपनी जेब से ही भरने हैं।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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Saturday, July 3, 2010

बाहर की रौशनी से दिल रौशन नहीं होते-हास्य कविताएँ

सोना, चांदी, पीतल और तांबा
धातुओं के नाम हैं
जिनकी चमक फीकी पड़ जाती है।
पर फिर भी इंसान की आंखें
उनके बने सामान पर हो जाती हैं फिदा,
तब सोच हो लेती है विदा,
बाहर की रौशनी से दिल रौशन नहीं होते
फैशन की अंधी दौड़ में
बिना अकल के घोड़े पर सवार
इंसान कई बार धोखा खाकर गिरता है
फिर भी यह बात उसे समझ में नहीं आती है।
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ख्वाहिश होती है
जिनको अपना नाम आकाश में चमकाने की
चाल उनकी बिगड़ जाती है,
नेकी और इंसानियत के बन जाते सौदागर वही
घर के सामने का दरवाजा लगता मंदिर जैसा
दौलत उनके यहां पिछवाड़े से आती है।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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