आज पूरे भारत में भारतीय नववर्ष 2070 मनाया जा रहा है। इसे हम विक्रमी
संवत भी कहते हैं। मूलतः इसे हिन्दू नर्व वर्ष कहते हैं पर इसे प्रथक
प्रथक समाज अपने ढंग से मनाते हैं। सिन्धी समाज चेटीचांड तो पंजाबी इसे
वैशाखी के रूप तो दक्षिण में इसे उगादि का नाम देकर मनाया जाता है। प्रथक
नाम होने के बावजूद समाजों में कहीं वैचारिक भिन्नता का भाव नहीं होता।
यही हमारे संस्कार और संस्कृति हैं।
आश्चर्य इस बात का है कि इस अवसर पर भारतीय प्रचार माध्यम केवल औपचारिकता निभाते हुए समाचार भर देते हैं जबकि इसे मनाने वालों की संख्या अंग्रेजी नव वर्ष पर झूमने वालों से अधिक होती है। इससे यह बात तो पता लगती है कि बाज़ार और प्रचार माध्यम उस नयी पीढ़ी को लक्ष्य कर अपने कार्यक्रम तथा समाचार बनाते हैं जो उन आधुनिक वस्तुओं की क्रेता बनती है जिसके विज्ञापन उनके संस्थान चलाते हैं। हमने दोनो नववर्षों की तुलना करते हुए भारतीय नववर्ष के मनाने वालों की संख्या इसलिये ज्यादा बताई क्योंकि अंग्रेजी नववर्ष पर बधाई ढोने की औपचारिकता वह समाज अब बड़े अनमने ढंग से निभा रहा है जिससे अंग्रेजी भाषा और संस्कृति ने लाचार बना दिया है। हम यह तो नहीं कहते कि अंग्रेजी संस्कृति या भाषा कोई बुरी बात नहीं है पर इतना जरूर मानते हैं कि भाषा, भाव, और भक्त की अपनी अपनी भूमि से संबंध होता है। भूमि का भूगोल भावों का निर्माण करता है जो कि भाषा और भक्त के स्वरूप का निर्धारित करने वाला तत्व है। जिस तरह चाय की फसल के लिये असम तो गेहूं के लिये उत्तर भारत का मैदानी इलाका उपयुक्त है। उसी तरह सेव के लिये हिमालय के बर्फीले इलाके प्रकृति ने बनाये हैं। चावल के लिये छत्तीसगढ़ धान का कटोरा कहा जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि हम एक फसल को दूसरी जगह नहीं पैदा कर सकते। इन्हीं फसलों के अनुसार ही पर्व बनते हैं। भारतीय नववर्ष सभी जगह भिन्न रूपों में इसी कारण मनाया जाता है। यह पर्व हर भारतीय धर्म के मानने वाले के घर में सहजता से मनाया जाता है जबकि अंग्रेजी संवत् के लिये बाज़ार को प्रचार का तामझाम लेकर जूझना पड़ता है।
हम यहां श्रीमद्भागवत गीता की बात करें तो शायद लोगों को अजीब लगे। उसमें ‘‘गुण ही गुण को बरतता है’’ वाला सूत्र बताया गया है। यह अत्यंत वैज्ञानिक सूत्र है। फिर यह भी कहा जाता है कि जैसा खाये वैसा अन्न। दरअसल अन्न में आत्मा होती है और उसके स्वभाव के भिन्न रूपों का भी भिन्न स्वभाव है इसलिये उनका सेवन करने वाला उससे प्रभावित होता है। हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि आदमी रहन सहन, खान पान, और संगत से प्रभावित होता है। बात को लंबा खींचने की बजाय संक्षेप में यह कहें कि भूमि के अनुसार ही संस्कृति बनती है। अंग्रेजी भाषा और संस्कृति का भारत में प्रचार हो इसका विरोध हम नहीं कर रहे पर यह स्पष्ट कर दें कि भाषा, भूगोल, भाव तथा भक्त के स्वभाव में वह कभी स्थाई जगह नहीं सकती। जबरन या अनायास प्रयास से अंग्रेजी संस्कृति, संस्कार और सभ्यता लाने का प्रयास यहां लोगों को अन्मयस्क बना रहा है। लोग न इधर के रहे हैं न उधर के। भाषा की दृष्टि में तुतलाहट, भाव की दृष्टि में फुसलाहट और भक्त की दृष्टि में झुंझलाहट स्पष्ट रूप से सामने आती जा रही है। भक्त से हमारा आशय सभ्य मनुष्य से है और विरोधाभास में फंसा हमारा समाज उसका एक समूह है।
अध्यात्म ज्ञान के अभाव में आत्ममंथन की प्रक्रिया हो नहीं सकती जबकि एक सभ्य, संस्कारवान और सशक्त व्यक्ति बनने क लिये आत्ममंथन की प्रक्रिया से गुजरना जरूरी है। फिलहाल तो प्रचार माध्यम देश के विकास को लेकर आत्ममुग्ध हैं पर उससे जो भाषा, भाव और भक्त का विनाश हुआ है उसका आंकलन करने का समय अभी किसी के पास नहीं है। अर्थोपार्जन ने अध्यात्म के विषय को गौण कर दिया है। ऐसे में इस नववर्ष पर आत्ममंथन की प्रक्रिंया से गुजरने का प्रण करें तो शायद हमें इस विकसित संसार का वह पतनशील दृश्य भी दिखाई दे जिससे हम बचना चाहते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि फिर भी कुछ लोग हैं जो पुरानी राह पर चल रहे हें और उनसे ही यह अपेक्षा की जाती है कि वह आधार भक्त स्तंभ की तरह भाषा और भाव को बचाये रहेंगे।
इस नववर्ष पर सभी पाठकों को हार्दिक बधाई तथा शुभाकामनायें।
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४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
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६.अमृत सन्देश पत्रिका
आश्चर्य इस बात का है कि इस अवसर पर भारतीय प्रचार माध्यम केवल औपचारिकता निभाते हुए समाचार भर देते हैं जबकि इसे मनाने वालों की संख्या अंग्रेजी नव वर्ष पर झूमने वालों से अधिक होती है। इससे यह बात तो पता लगती है कि बाज़ार और प्रचार माध्यम उस नयी पीढ़ी को लक्ष्य कर अपने कार्यक्रम तथा समाचार बनाते हैं जो उन आधुनिक वस्तुओं की क्रेता बनती है जिसके विज्ञापन उनके संस्थान चलाते हैं। हमने दोनो नववर्षों की तुलना करते हुए भारतीय नववर्ष के मनाने वालों की संख्या इसलिये ज्यादा बताई क्योंकि अंग्रेजी नववर्ष पर बधाई ढोने की औपचारिकता वह समाज अब बड़े अनमने ढंग से निभा रहा है जिससे अंग्रेजी भाषा और संस्कृति ने लाचार बना दिया है। हम यह तो नहीं कहते कि अंग्रेजी संस्कृति या भाषा कोई बुरी बात नहीं है पर इतना जरूर मानते हैं कि भाषा, भाव, और भक्त की अपनी अपनी भूमि से संबंध होता है। भूमि का भूगोल भावों का निर्माण करता है जो कि भाषा और भक्त के स्वरूप का निर्धारित करने वाला तत्व है। जिस तरह चाय की फसल के लिये असम तो गेहूं के लिये उत्तर भारत का मैदानी इलाका उपयुक्त है। उसी तरह सेव के लिये हिमालय के बर्फीले इलाके प्रकृति ने बनाये हैं। चावल के लिये छत्तीसगढ़ धान का कटोरा कहा जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि हम एक फसल को दूसरी जगह नहीं पैदा कर सकते। इन्हीं फसलों के अनुसार ही पर्व बनते हैं। भारतीय नववर्ष सभी जगह भिन्न रूपों में इसी कारण मनाया जाता है। यह पर्व हर भारतीय धर्म के मानने वाले के घर में सहजता से मनाया जाता है जबकि अंग्रेजी संवत् के लिये बाज़ार को प्रचार का तामझाम लेकर जूझना पड़ता है।
हम यहां श्रीमद्भागवत गीता की बात करें तो शायद लोगों को अजीब लगे। उसमें ‘‘गुण ही गुण को बरतता है’’ वाला सूत्र बताया गया है। यह अत्यंत वैज्ञानिक सूत्र है। फिर यह भी कहा जाता है कि जैसा खाये वैसा अन्न। दरअसल अन्न में आत्मा होती है और उसके स्वभाव के भिन्न रूपों का भी भिन्न स्वभाव है इसलिये उनका सेवन करने वाला उससे प्रभावित होता है। हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि आदमी रहन सहन, खान पान, और संगत से प्रभावित होता है। बात को लंबा खींचने की बजाय संक्षेप में यह कहें कि भूमि के अनुसार ही संस्कृति बनती है। अंग्रेजी भाषा और संस्कृति का भारत में प्रचार हो इसका विरोध हम नहीं कर रहे पर यह स्पष्ट कर दें कि भाषा, भूगोल, भाव तथा भक्त के स्वभाव में वह कभी स्थाई जगह नहीं सकती। जबरन या अनायास प्रयास से अंग्रेजी संस्कृति, संस्कार और सभ्यता लाने का प्रयास यहां लोगों को अन्मयस्क बना रहा है। लोग न इधर के रहे हैं न उधर के। भाषा की दृष्टि में तुतलाहट, भाव की दृष्टि में फुसलाहट और भक्त की दृष्टि में झुंझलाहट स्पष्ट रूप से सामने आती जा रही है। भक्त से हमारा आशय सभ्य मनुष्य से है और विरोधाभास में फंसा हमारा समाज उसका एक समूह है।
अध्यात्म ज्ञान के अभाव में आत्ममंथन की प्रक्रिया हो नहीं सकती जबकि एक सभ्य, संस्कारवान और सशक्त व्यक्ति बनने क लिये आत्ममंथन की प्रक्रिया से गुजरना जरूरी है। फिलहाल तो प्रचार माध्यम देश के विकास को लेकर आत्ममुग्ध हैं पर उससे जो भाषा, भाव और भक्त का विनाश हुआ है उसका आंकलन करने का समय अभी किसी के पास नहीं है। अर्थोपार्जन ने अध्यात्म के विषय को गौण कर दिया है। ऐसे में इस नववर्ष पर आत्ममंथन की प्रक्रिंया से गुजरने का प्रण करें तो शायद हमें इस विकसित संसार का वह पतनशील दृश्य भी दिखाई दे जिससे हम बचना चाहते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि फिर भी कुछ लोग हैं जो पुरानी राह पर चल रहे हें और उनसे ही यह अपेक्षा की जाती है कि वह आधार भक्त स्तंभ की तरह भाषा और भाव को बचाये रहेंगे।
इस नववर्ष पर सभी पाठकों को हार्दिक बधाई तथा शुभाकामनायें।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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