प्रेम शब्द छोड़ लव की तरफ बढ़े हैं, हिन्दी की जगह अंग्रेजी के झंडे चढ़े हैं।
‘दीपकबापू’ अपने स्वर्णिम इतिहास से डरे, पराये भ्रम में स्नातक जो पढ़े हैं।।
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बिना ज्ञान के भी बोल जाते हैं, अर्थरहित शब्द हवा में डोल जाते हैं।
‘दीपकबापू’ बाज़ार में ढूंढते मनोरंजन, आंसू भी हंसी के मोल पाते हैं।।
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कचड़े के ढेर में फूल उगाने का वादा, कांटे का स्वर्ण बनाने का बेचें इरादा।
‘दीपकबापू’ रख लिया ज्ञान कनस्तर में, तर्कों से नारे महंगे हो गये ज्यादा।।
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विकास के स्तंभ वह लगाने चले हैं, जिनके घर चंदे से चिराग जले हैं।
आमआदमी लड़ते सदा अंधेरे से,‘दीपकबापू’ महल के बुत मुफ्त में पले है।।
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सबका भाग्य उनकी मुट्ठी में बंद है, यह भ्रम पाले मूर्ख भी चंद हैं।
‘दीपकबापू’ महलों में मिला घर, दुनियां की चिंता करें पर सोच मंद है।।
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नयी जिंदगी के सब तरीके सीखे हैं, जुबान के स्वाद मिर्च से तीखे हैं।
‘दीपकबापू’ जज़्बात की लाद अर्थी, पूछें इश्क के मिजाज क्यों फीके है।।
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अपने बंद बस्ते में कबाड़ रखते हैं, खाली मस्तिष्क पर चेहरा झाड़ रखते हैं।
‘दीपकबापू’ कड़वे शब्द से बांटे वीभत्स रस, स्वयं मिठास का पहाड़ चखते हैं।।
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महल में बैठे तलवार हिला रहे हैं, घोड़ों की घास गधों को खिला रहे हैं।
‘दीपकबापू’ स्वर्ण पिंजरे में कैद स्वयं, यायावरों को विकास विष पिला रहे हैं।।
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जनकल्याण का अनुबंध चुनकर देते हैं, धंधेबाजों को जाल बुनकर देते हैं।
‘दीपकबापू’ लाचारी के मारे हम, सपने देखने की बजाय सुनकर लेते हैं।।
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पत्थर दिल भी फूलों जैसी बात करते हैं, मौका मिलते ही भीतरघात करते हैं।
‘दीपकबापू’ मोहब्बत के बाग सड़ा दिये, कातिल अपना नाम आशिक धरते हैं।।
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