पत्थरों के शहरों में
जज़्बातों के मेले लगे हैं।
गले से गले भी मिलते
पर दिल से नहीं सगे हैं।
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रंगों से मन खाली
सभी चेहरा चमका रहे हैं।
सुरक्षित गुफा में बैठे कायर
धूप के वीरों का धमका रहे हैं।
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कामयाबी चाहते बढ़ा देती है,
दौलत भी चिंता चढ़ा देती है।
‘दीपकबापू’ महलों में बस गये जब
आशंका डर का पाठ पढ़ा देती है।
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जनतंत्र में तख्त की जंग है जारी
हर रोज नये मुखौटे की है बारी।
दीपकबापू भ्रष्टाचार विरोधी नहीं
बहस केवल बंटवारे की है सारी।
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चंदन के पेड़ से सांप लिपटे हैं,
राजप्रसाद ठगों के झुंड से पटे हैं।
‘दीपकबापू’ झूठ में लगे सोने के पांव
बेईमान सस्ते में ही निपटे हैं।
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दुश्मन को बाहर बुला लेते,
घर को डराकर सुला देते।
‘दीपकबापू’ किताब महंगी हुईं
ज्ञानी रूप धर सीना फुला देते।
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