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Friday, October 23, 2009

जिंदगी धुऐं में-व्यंग्य कविता (jindgi dhuen men-vyangya kavita)

पूरे रास्ते जलते हुए ईंधन के
धुंऐं के रूप में प्रतिशोध
और वाहनों के पहिये तले
कुचली जाती धूल का प्रतिरोध
आंखों को जला और थका देता है।
देता है ऐसे अपराध की सजा जो
मैंने किया ही नहीं
गागर से भरकर पानी
जब मूंह और आंखों पर छिड़कता हूं
तब मिलती है राहत
सोचता हूं
इतना क्यों महंगा है वाहनो का तेल
जिंदगी तो है पानी का खेल
दुनियां में सबसे अधिक धनी है
अपनी नदियों और तालाबों के कारण
सस्ता है फिर भी जिंदगी देता है।
क्या कहूं शिक्षित हो रहे जमाने को
जो गंवारों की तरह अपनी जिदंगी धुंऐं में
उड़ा देता है।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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