वह नब्बे साल के अंग्रेजी लेखक हैं मगर उनको हिन्दी आती होगी इसमें संदेह है पर हिन्दी के समाचार पत्र पत्रिकाऐं उनके लेख अपने यहां छापते हैं-यकीनन ऐसा अनुवाद के द्वारा ही होता होगा। वह क्या लिखते हैं? इसका सीधा जवाब यह है कि विवादों को अधिक विवादास्पद बनाना, संवेदनाओं को अधिक उभारना और कल्पित संस्मरणों से अपने अपने आप को श्रेष्ठ साबित करना। अगर हिन्दी के सामान्य लेखक से भी उनकी तुलना की जाये तो उनका स्तर कोई अधिक ऊंचा नहीं है मगर चूंकि हमारे प्रकाशन जगत का नियम बन गया है कि वह केवल एक लेखक के रूप में किसी व्यक्ति को तभी स्वीकार करेंगे जब उसके साथ दौलत, शौहरत तथा ऊंचे पद का बिल्ला लगा होना चाहिये। यह तभी संभव है जब कोई लेखक आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों का सानिध्य प्राप्त करे और दुर्भाग्य कि वह उनको ही मिलता है जिनको अंग्रेजी आती है और तय बात है कि देश के अनेक हिन्दी संपादक उनके प्रशंसक बन जाते हैं।
उन वृद्ध लेखक ने अपने एक लेख में भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन से वीर सावरकर की तुलना कर डाली। यकीनन यह चिढ़ाने वाली बात है। अगर अंग्रेजी अखबार में ही यह सब छप जाता तो कोई बात नहीं मगर उसे हिन्दी अखबार में भी जगह मिली। यह हिन्दी की महिमा है कि जब तक उसमें कोई लेखक न छपे तब तक वह अपने को पूर्ण नहीं मान सकता और जितने भी इस समय प्रतिष्ठित लेखक हैं वह अंग्रेजी के ही हैं इसलिये ही अपने अनुवाद अखबारों में छपवाते हैं। इससे प्रकाशन जगत और लेखक दोनों का काम सिद्ध होता है। अंग्रेजी का लेखक पूर्णता पाता है तो हिन्दी प्रकाशन जगत के कर्णधार भी यह सोचकर चैन की संास लेते हैं कि किसी आम हिन्दी लेखक की सहायता लिये बगैर ही हिन्दी में अपना काम चला लिया।
वह लेखक क्या लिखते हैं? उनका लिखा याद नहीं आ रहा है। चलिये उनकी शैली में कुछ अपनी शैली मिलाकर एक कल्पित संस्मरण लिख लेते हैं।
मैं ताजमहल पहुंच गया। उस समय आसमान में बादल थे पर उमस के कारण पसीना भी बहुत आ रहा था। कभी कभी ठंडी हवा चल रही थी तब थोड़ा अच्छा लगता था। बीच बीच में धूप भी निकल आती थी। ताजमहल के प्रवेश द्वार पर खड़ा होकर मैं उसे निहार रहा था। तभी वहां दो विदेशी लड़किया आयीं। बाद में पता लगा कि एक फ्रांस की तो दूसरी ब्रिटेन की है।
फ्रांसीसी लड़की मुझे एकटक निहारते हुए देखकर बोली-‘‘आप ताजमहल को इस तरह घूर कर देख रहे हैं लगता है आप यहां पहली बार आये हैं। आप तो इसी देश के ही हैं शायद....आप इस ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं।’
मैं अवाक होकर उसे देख रहा था। वह बहुत सुंदर थी। उसने जींस पहन रखी थी। उसके ऊपर लंबा पीले रंग का कुर्ता उसके घुटनों तक लटक रहा था। मैने उससे कहा-‘‘ मैं ताजमहल देखने आज नहीं आया बल्कि एक प्रसिद्ध लेखक की किताब यहां ढूंढने आया हूं। उस किताब को अनेक शहरों में ढूंढा पर नहीं मिली। सोच रहा हूं कि यहां कोई हॉकर शायद उसे बेचता हुए मिल जाये। वह किताब मिल जाये तो उसे पढ़कर कल तसल्ली से ताज़महल देखूंगा और सोचूंगा।’
वह फ्रांसीसी लड़की पहले तो मेरी शक्ल हैरानी से देखने लगी फिर बोली-‘पर आप तो एकटक इसे देखे जा रहे हैं और कहते हैं कि कल देखूंगा।’’
मैंने कहा-‘‘मेरी आंखें वहां जरूर हैं पर ताजमहल को नहीं देख रहा और न सोच रहा क्योंकि उसके लिये मुझे उस प्रसिद्ध लेखक की एक अदद किताब की तलाश है जिसमें यह दावा किया गया है कि ताजमहल किसी समय तेजोमहालय नाम का एक शिव मंदिर था।’’
उसके पास खड़ी अंग्रेज लड़की ने कहा-‘हमारा मतलब यह था कि आप इस समय ताजमहल के बारे में क्या सोच रहे हैं? वह किताब पढ़ने के बाद आप जो भी सोचें, हमारी बला से! आप किताब पढ़ने की बात बताकर अपने आपको विद्वान क्यों साबित करना चाहते हैं?’
मैंने कहा-‘नहीं, बिना किताब पढ़े हम आधुनिक हिन्दी लोगों की सोच नहीं चलती। मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूं, बस मुझे वह किताब मिल जाये तो....अपना विचार आपको बता दूंगा।’
अंग्रेज लड़की ने कहा-‘कमाल है! एक तो हम यहां ताज़महल देख रहे है दूसरा आपको! जो किताब पढ़े बिना अपनी सोच बताने को तैयार नहीं है।’
मैंने कहा-‘क्या करें? आपके देश की डेढ़ सौ साल की गुलामी हमारी सोचने की ताकत को भी गुलाम बनाकर रख गयी। इसलिये बिना किताब के चलती नहीं।’
बात आयी गयी खत्म हो गयी थी। मैं शाम को बार में बैठा अपने एक साथी के साथ शराब पी रहा था। मेरा साथी उस समय मेरे सामने बैठा सिगरेट के कश लेता हुआ मेरी समस्या का समाधान सोच रहा था।’
नशे के सरूर में मेरी आंखें भी अब कुछ सोच रही थीं। अचानक मेरे पास दो कदम आकर रुके और सुरीली आवाज मेरी कानों गूंजी-‘हलौ, आप यहां क्या ताज़महल पर लिखी वह किताब ढूंढने आये हैं।’
मैने अचकचा कर दायें तरफ ऊपर मुंह कर देखा तो वह फ्रांसिसी लड़की खड़ी थी। उसके साथ ही वह अंग्रेज लड़की कुछ दूर थी जो अब पास आ गयी। वह फ्रांसिसी लड़की मुस्करा रही थी और यकीनन उसका प्रश्न मजाक उड़ाने जैसा ही था।
मैंने हंसकर कहा-‘हां, इस कबाड़ी को इसलिये ही यहां लाया हूं क्योकि इसने वादा किया है कि एक पैग पीने का बाद याद करेगा कि इसने वह किताब कहां देखी थी। वह किताब उसके कबाड़ की दुकान पर भी हो सकती है, ऐसा इसने बताया।’’
अंग्रेज लड़की बोली-‘अच्छा! आप अगर किताब पा लें तो पढ़कर कल हमें जरूर बताईयेगा कि ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं? कल हम वहां फिर आयेंगीं।’
मैंने कहा-‘ताजमहल एक बहुत अच्छी देखने लायक जगह है। उसे देखकर ऐसा अद्भुत अहसास होता है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।’
दोनों लड़कियां चौंक गयी। अंग्रेज लड़की बुझे घूरते हुए बोली-‘पर आपने तो वह किताब पढ़ी भी नहीं। फिर यह टिप्पणी कैसे कर दी। आप तो बिना किताब पढ़े कुछ सोचते ही नहीं’।
मैंने कहा-‘हां यह एक सच बात है पर दूसरा सच यह भी है कि शराब सब बुलवा लेती है जो आप सामान्य तौर से नहीं बोल पाते।’’
यह था एक कल्पित संस्मरण! यह कुछ बड़ा हो गया और इसे ताज़महल से बार तक इसे खींचकर नहीं लाते तो भी चल जाता पर लिखते लिखते अपनी शैली हावी हो ही जाती है क्योकि ताज़महल तक यह संस्मरण ठीक ठाक था पर उससे आगे इसमें कुछ अधिक प्रभाव लग रहा है।
मगर हम जिस लेखक की चर्चा कर रहे हैं वह इसी तरह ही दो तीन संस्मरण लिखकर और साथ में विवादास्पद मुद्दों पर आधी अधूरी होने के साथ ही बेतुकी राय रखकर लेख बना लेते हैं।
वैसे भी अंग्रेजी में लिखने पर हिन्दी में प्रसिद्धि पाने वाले लेखक को शायद ही हिन्दी लिखना आती हो पर अपने यहां एक कहावत हैं न कि ‘घर का ब्राह्म्ण बैल बराबर, आन गांव का सिद्ध’। अंग्रेजी लेखक को ही सिद्ध माना जाता है और हिन्दी को बेचारा। अंग्रेजी के अनेक लेखक बेतुकी, और स्तरहीन लिखकर भी हिन्दी में छाये रहते हैं। इनमें से अधिकतर राजनीतिक घटनाओं पर संबंधित पात्रों का नाम लिखकर ही उनका प्रसिद्ध बनाते हैं-अब यह उस पात्र की प्रशंसा करें या आलोचना दोनों में उसका नाम तो होता ही है। इनमें इतनी तमीज़ नहीं है कि जो व्यक्ति देह के साथ जीवित नहीं हो उस पर आक्षेपात्मक तो कभी नहीं लिखना चाहिये। कम से कम उनकी मूल छबि से तो छेड़छाड़ नहीं करना चाहिये। भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन की छबि अच्छी नहीं है पर सावरकर को एक योद्ध माना जाता है। उनके विचारों से किसी को असहमति हो सकती है पर इसको लेकर उनकी छबि पर प्रहार करना एक अनुचित कृत्य हैं। बहरहाल हिन्दी में ऐसे ही चिंदी लेखक प्रसिद्ध होते रहे हैं और यही शिकायत भी करते हैं कि हिन्दी में अच्छा लिखा नहीं जा रहा। चिंदी लेखक यानि अंग्रेजी में टुकड़े टुकड़े लिखकर उसके हिन्दी में बेचने वाले
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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