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Monday, September 27, 2010

अयोध्या में राम मंदिर और शतरंज की बिसात-व्यंग्य क्षणिकाऐं (ayodhya men ram mandir aur shataraj ki bisat-short hindi poem's)

राम के नाम की महिमा महान है,
जिन्होंने राजा राम को भजा
वह वज़ीर हो गये,
जिन्होंने बनवास और त्यागी रूप का किया बखान
वह भी बड़े फकीर हो गये,
जिन्होंने बेचा बीच बाज़ार नाम
वह भी अमीर हो गये,
मगर जिन्होंने भजा नाम दिल से
रहे उनके हमेशा अपने बनकर राम
मतलब निकालने वाले
क्या पहचानेंगे उनको
दौलत और शौहरत की छांह में
उनके ज़मीर सो गये।
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अयोध्या में राम मंदिर
बनेगा या नहीं इस पर
बरसों तक बहस चली है,
हृदय की आस्था
बाहर दिखाने के भी फायदे हैं
बना दिया राम जन्मभूमि को
शतरंज की बिसात
प्यादे भी बन गये वज़ीर
ऐसी शानदार चाल चली है।
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राम से भी बड़ा है राम का नाम
यह अब सभी को पता चला है,
दिल में न भी हो
पर बस यूं ही लेते रहे जो राम का नाम
उनके घर पर घी का चिराग जला है।
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राम का नाम लेते लेते
कई प्यादे भी वज़ीर हो गये,
बनवासी राम को भजता कौन
राजा राम की गाते गाते
राजाओं जैसे आज के फकीर हो गये।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Saturday, September 25, 2010

कॉमनवेल्थ खेलों में घूसखोरी का वैश्वीकृत खेल-हिन्दी व्यंग्य लेख (comanwealth games in india and bribe world system-hindi satire article)

आर्थिक वैश्वीकरण तो सुना था पर उसके साथ घूस का भी वैश्वीकरण हो जायेगा यह नहीं सोचा था। दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेल राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन हो रहा है। उसके आयोजन को लेकर जिस तरह चर्चायें आ रही हैं वह खेलों से अधिक रहस्य, रोमांच और रोचकता पैदा कर रही हैं। अगर आराम से चुपचाप खेल संपन्न हो जाते तो शायद इतना रोमांच नहीं होता जितना अब हो रहा है। पुल गिर गया कुछ स्टेडियमों की छतों से पानी टपक गया और तमाम तरह की अव्यवस्थाऐं पैदा होने की बात भी सामने आयी तो कुछ राष्ट्रभक्त शार्मिंदगी के साथ चिंतित भी हो गये हैं यह सोचकर कि इससे तो यह तो देश की बदनामी का वैश्वीकरण हो जायेगा।
अभी तक भ्रष्टाचार एक अंदरूनी समस्या थी पर अब उसकी पोल तो विश्व स्तर पर दिखाई दे रही है। अरे, घूसखोरी हमारे देश में ही नहीं है बल्कि बाहर भी है। आस्ट्रेलिया के अखबार ने दावा किया है कि कॉमनवेल्थ खेल आयोजन का प्रस्ताव पास कराने के लिये 72 देशों को रिश्वत दी गयी। इस अखबार ने अपने देश पर भी 55 लाख घूस लगाने के साथ में यह भी जोड़ा है कि आस्ट्रेलिया तो वैसे ही नई दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेल के आयोजन का समर्थन करने वाला था। अगर इस खबर को सही माना जाये तो ऐसा लगता है कि कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन का प्रस्ताव पास कराने के लिये कहीं घूसखोरी का मेला लगा था। आस्ट्रेलिया ने भी बहती गंगा में हाथ धो दिया यह सोचकर कि जब हमाम में सब नंगे हैं तो हमीं क्यों नैतिकता की चादर ओढें रहें।
मतलब यह कि घूसखोरी को लेकर अब हमें शार्मिंदा होने की जरूरत नहीं है। घटिया काम के लिये भी काहेको शार्मिंदा हों? नई दिल्ली में प्रस्तावित इन कॉमनवेल्थ खेलों के लिये हुए निर्माण कार्यों में ब्रिटेन की कंपनियां भी शािमल हैंे। अरे, अंग्रेजों की ईमानदारी तो सदा विख्यात रही है ऐसे में अगर वही धोखा दे गये तो क्या करें? एक रोचक तथ्य टीवी पर हमारे सामने आया कि ब्रिटेन के किसी प्रतिनिधि ने खेल की अव्यवस्था पर असंतोष जताया मगर दो दिन में वह खुश हो गया और बोला कि ‘सब ठीक ठाक है।’
यह कंपनी प्रणाली ब्रिटेन की देन है। जब हम वाणिज्य स्नातक की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तब एक किताब में पढ़ा था कि ‘कंपनी एक अदृश्य दैत्य है, जिसके काले कारनामे आम निवेशक नहीं जान पाता।’ तब यह हमें यही पता नहीं था कि कंपनी होती क्या है क्योंकि भारत में तब तब निजी व्यापार की प्रधानता थी, मगर आर्थिक उदारीकरण की वजह से इतनी तेजी अपने देश में कंपनी प्रणाली आ गयी कि बहुत समय बाद हमारे यह समझ में आया कि इस दैत्य का रूप कैसा है जो अक्सर घूसखोरी और घोटालों के रूप में प्रकट होता है। अब तो यह हालत है कि माफिया लोग भी अपने गिरोह का नाम कंपनी रखते हैं। इतना ही नहीं यही माफिया भी कंपनियों में निवेश करते हैं ऐसे समाचार अखबारों में छपते रहते हैं। अब यह कहना कठिन है कि किस कंपनी के नाम के पीछे देवता का या दानव का मुखौटा है। वैसे देवताओं और दानवों में बैर माना जाता है पर समुद्र मंथन के समय दोनों एक हो गये थे और उस समय आम इंसानों को पूछा हो यह कहीं उल्लेख नहीं मिलता। अभिप्राय यह है कि देवताओं का काम भी दानवों के बिना नहंी चलता। वैसे दोनों भाई हैं और किसी भी हालत में उनके सामने एक आम आदमी की कोई भूमिका नहीं है। इसलिये कहीं देवता दानवों से तो कहीं दानव देवताओं के सहारे आजकल काम चला रहे हैं। संभव है कि घूसखोरी के मेले में दोनों ही शािमल हुए हों आखिर वहां धन मंथन होने वाला था। उसके बाद शुरु होने वाला था निर्माण कार्य का दौर जिसमें देवताओं और दानव नाम धारी इन मुखौटों ने खूब धन मंथन किया होगा वरना क्यों यह घूसखोरी का दौर चला? दानवों को मिला तो कमीशन या दलाली कहो और देवताओं को मिला तो चंदा कहो?मुश्किल यह है कि उनके बंधुआ प्रचारक ही कह रहे हैं कि यह सब घूसखोरी है।
ऐसा लगता है कि आजकल के देवता और दानव घूसखोरी से ही खुश हैं। देवताओं का मन चंदे से तो दानवों का दलाली से नहीं भरता। जिन्होंने घुस दी होगी यकीनन उनको निर्माण कार्यों से जोरदार लाभ हुआ होगा और जिन्होंने ली होगी उनको भी आगे अच्छी संभावनाऐं दिखी होंगी-मेहमान बनने पर भी तमाम लाभ होते ही हैं। घूस लेने वाले खेल संगठन और देने वाली कंपनियां रही होंगी। मतलब बात निरंकार रूप की तरफ चली गयी क्योंकि यहां चेहरे बैनरों के पीछे छिप जाते हैं। कंपनी प्रणाली का तो अज़ीब रूप है। कंपनी के शिखर पुरुषों का कोई प्रत्यक्ष आर्थिक दायित्व नहीं होता। लाभ हो तो उनकी पौ बाहर और कंपनी डूब जाये तो उनको आंच भी नहीं आती। इतना ही आम निवेशकों का पैसा उनके खाते में मान लिया जाता है। अक्सर कुछ पत्रिकाऐं अमीरों की सूची जारी करती हैं जो कंपनियों के प्रबंध निदेशक होते हैं। तब अक्सर सवाल हमारे मन में आता है कि उन अमीरों की अपनी अकेले की संपत्ति बताई जा रही है या कंपनियों की जिनमें आम निवेशक भी शािमल है।
अक्सर भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चर्चा होती है। लोग उनको विदेशी कहकर पुकारते हैं पर इस बात की कोई गारंटी नहीं दे सकता कि उनमें भारत के पूंजीपतियों का अप्रत्यक्ष रूप से धन नहीं लगा होगा। भारत में विदेशी निवेश को लेकर कुछ आर्थिक विशेषज्ञ बहुत उत्साहित रहते हैं तब सवाल यह उठता है कि क्या इसके पीछे उनके कुछ निजी स्वार्थ हैं।
क्रिकेट की एक क्लब स्तरीय प्रतियोगिता इंडियन प्रीमियर लीग में एक टीम के मालिकाना हक को लेकर एक दिलचस्प तथ्य सामने आया था। जो कंपनी एक टीम की मालिक है उसकी मालिक चार कंपनियां हैं। फिर उन चार अलग अलग अलग कंपनियों की चार चार अलग कंपनियां मालिक हैं। ऐसे ही कंपनियों के पीछे कपंनी का दौर टीवी चैनल सुना रहा था पर हमारे समझ में आखिर तक यह नहीं आया कि कौन आदमी उसका मालिक है। इतना ही नहीं भारत के एक क्लब की टीम का मालिकाना हक ब्रिटेन और मॉरीशस देशों की कंपनियों तक दिखाई देने लगा था। अब पता नहीं इन मामलों का क्या हुआ? एक कंपनी के आदमी का नाम आया तो पता चला कि वह तो केवल दिखावे ही मालिक है उसके पीछे तो कोई अदृश्य ताकते हैं। क्रिकेट या अन्य खेलों के विकास में यह अदृश्य शक्तिया अगर देवीय हैं तो छिपती हैं क्योंकि यह काम तो दानवों का ही है। क्रिकेट की क्लब स्तरीय प्रतियोगिताओं के फिक्सिंग का मामला जिस तरह सामने आ रहा है उससे तो नहीं लगता कि यह शक्तियां उसके विकास के लिये काम कर रही हैं। वैसे भी कंपनियां आर्थिक उद्देश्यों को चालाकी से प्राप्त करने के लिये बनाई जाती हैं जहां बिना आर्थिक दायित्व के मुनाफा जेब में रखा जाता है और हानि आम निवेशक की तरफ सरका दी जाती है। पैसा आम निवेशक का और सिर उठाकर घूम रहे हैं उससे कर्जा लेकर लोग। पार्टियों में कंपनियों के प्रबंध निदेशक की तरह नहीं मालिक की तरह जाते हैं और प्रचार माध्यमों में उनका जिक्र राजा की तरह होता है।
राष्ट्रमंडल खेलों का स्तर बहुत ऊंचा माना नहीं जाता। अनेक लोगों को यह सुनकर निराशा होगी जनचर्चा में इसमें व्याप्त कमियों की बात आती है पर कोई इसमें होने वाले खेलों में दिलचस्पी लेता हो ऐसा नहीं दिखता। बहरहाल इस तरह की घूसखोरी ने आर्थिक वैश्वीकरण तथा भ्रष्टाचारी के विश्वव्यापी होने की पोल खोलकर रख दी है। इसलिये राष्ट्रभक्तों को शर्मिंदा या चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। यह कंपनी और कमीशन का खेल है जिसका लक्ष्य है विकास करना यानि बैंकों में अपनी जमा राशि बढ़ाना, समाज में अपनी सक्रियता बनाये रखना और प्रचार में प्रभुत्व दिखाना। जी हां, देश और खेलों का विकास इस स्वरूप का नाम है।
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Sunday, September 19, 2010

खामोशी-हिन्दी कविता (khamoshi-hindi kavita)

इशारों में कहते हैं
तो वह समझ नहीं पाते
सीधे कहें तो चिढ़ जायेंगे,
हमारी बदज़ुबानी के बयान
सभी जगह गीत की तरह गायेंगे।
बेहतर है खामोशी ओढ़ लें
समय के पहिये ही
प्रस्तुत करेंगे उनके सामने सच के लफ्ज़
जब उनको ढोकर आयेंगे।
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Sunday, September 12, 2010

हिन्दी में चिंदी लेखन-हिन्दी व्यंग्य (hindi men chindi lekhan-hindi vyangya)

वह नब्बे साल के अंग्रेजी लेखक हैं मगर उनको हिन्दी आती होगी इसमें संदेह है पर हिन्दी के समाचार पत्र पत्रिकाऐं उनके लेख अपने यहां छापते हैं-यकीनन ऐसा अनुवाद के द्वारा ही होता होगा। वह क्या लिखते हैं? इसका सीधा जवाब यह है कि विवादों को अधिक विवादास्पद बनाना, संवेदनाओं को अधिक उभारना और कल्पित संस्मरणों से अपने अपने आप को श्रेष्ठ साबित करना। अगर हिन्दी के सामान्य लेखक से भी उनकी तुलना की जाये तो उनका स्तर कोई अधिक ऊंचा नहीं है मगर चूंकि हमारे प्रकाशन जगत का नियम बन गया है कि वह केवल एक लेखक के रूप में किसी व्यक्ति को तभी स्वीकार करेंगे जब उसके साथ दौलत, शौहरत तथा ऊंचे पद का बिल्ला लगा होना चाहिये। यह तभी संभव है जब कोई लेखक आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों का सानिध्य प्राप्त करे और दुर्भाग्य कि वह उनको ही मिलता है जिनको अंग्रेजी आती है और तय बात है कि देश के अनेक हिन्दी संपादक उनके प्रशंसक बन जाते हैं।
उन वृद्ध लेखक ने अपने एक लेख में भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन से वीर सावरकर की तुलना कर डाली। यकीनन यह चिढ़ाने वाली बात है। अगर अंग्रेजी अखबार में ही यह सब छप जाता तो कोई बात नहीं मगर उसे हिन्दी अखबार में भी जगह मिली। यह हिन्दी की महिमा है कि जब तक उसमें कोई लेखक न छपे तब तक वह अपने को पूर्ण नहीं मान सकता और जितने भी इस समय प्रतिष्ठित लेखक हैं वह अंग्रेजी के ही हैं इसलिये ही अपने अनुवाद अखबारों में छपवाते हैं। इससे प्रकाशन जगत और लेखक दोनों का काम सिद्ध होता है। अंग्रेजी का लेखक पूर्णता पाता है तो हिन्दी प्रकाशन जगत के कर्णधार भी यह सोचकर चैन की संास लेते हैं कि किसी आम हिन्दी लेखक की सहायता लिये बगैर ही हिन्दी में अपना काम चला लिया।
वह लेखक क्या लिखते हैं? उनका लिखा याद नहीं आ रहा है। चलिये उनकी शैली में कुछ अपनी शैली मिलाकर एक कल्पित संस्मरण लिख लेते हैं।
मैं ताजमहल पहुंच गया। उस समय आसमान में बादल थे पर उमस के कारण पसीना भी बहुत आ रहा था। कभी कभी ठंडी हवा चल रही थी तब थोड़ा अच्छा लगता था। बीच बीच में धूप भी निकल आती थी। ताजमहल के प्रवेश द्वार पर खड़ा होकर मैं उसे निहार रहा था। तभी वहां दो विदेशी लड़किया आयीं। बाद में पता लगा कि एक फ्रांस की तो दूसरी ब्रिटेन की है।
फ्रांसीसी  लड़की मुझे एकटक निहारते हुए देखकर बोली-‘‘आप ताजमहल को इस तरह घूर कर देख रहे हैं लगता है आप यहां पहली बार आये हैं। आप तो इसी देश के ही हैं शायद....आप इस ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं।’
मैं अवाक होकर उसे देख रहा था। वह बहुत सुंदर थी। उसने जींस पहन रखी थी। उसके ऊपर लंबा  पीले रंग का कुर्ता  उसके घुटनों तक लटक रहा था। मैने उससे कहा-‘‘ मैं ताजमहल देखने आज नहीं आया बल्कि एक प्रसिद्ध लेखक की किताब यहां ढूंढने आया हूं। उस किताब को अनेक शहरों में ढूंढा पर नहीं मिली। सोच रहा हूं कि यहां कोई हॉकर शायद उसे बेचता हुए मिल जाये। वह किताब मिल जाये तो उसे पढ़कर कल तसल्ली से ताज़महल देखूंगा और सोचूंगा।’
वह फ्रांसीसी  लड़की पहले तो मेरी शक्ल हैरानी से देखने लगी फिर बोली-‘पर आप तो एकटक इसे देखे जा रहे हैं और कहते हैं कि कल देखूंगा।’’
मैंने कहा-‘‘मेरी आंखें वहां जरूर हैं पर ताजमहल को नहीं  देख रहा और न सोच रहा  क्योंकि उसके लिये मुझे उस प्रसिद्ध लेखक की एक अदद किताब की तलाश है जिसमें यह दावा किया गया है कि ताजमहल किसी समय तेजोमहालय नाम का एक शिव मंदिर था।’’
उसके पास खड़ी अंग्रेज लड़की ने कहा-‘हमारा मतलब यह था कि आप इस समय ताजमहल के बारे में क्या सोच रहे हैं? वह किताब पढ़ने के बाद आप जो भी सोचें, हमारी बला से! आप किताब पढ़ने की बात बताकर अपने आपको विद्वान क्यों साबित करना चाहते हैं?’
मैंने कहा-‘नहीं, बिना किताब पढ़े हम आधुनिक हिन्दी लोगों की सोच नहीं चलती। मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूं, बस मुझे वह किताब मिल जाये तो....अपना विचार आपको बता दूंगा।’
अंग्रेज लड़की ने कहा-‘कमाल है! एक तो हम यहां ताज़महल देख रहे है दूसरा आपको! जो किताब पढ़े बिना अपनी सोच बताने को तैयार नहीं है।’
मैंने कहा-‘क्या करें? आपके देश की डेढ़ सौ साल की गुलामी हमारी सोचने की ताकत को भी गुलाम बनाकर रख गयी। इसलिये बिना किताब के चलती नहीं।’
बात आयी गयी खत्म हो गयी थी। मैं शाम को बार में बैठा अपने एक साथी के साथ शराब पी रहा था। मेरा साथी उस समय मेरे सामने बैठा सिगरेट के कश लेता हुआ मेरी समस्या का समाधान सोच रहा था।’
नशे के सरूर में मेरी आंखें भी अब कुछ सोच रही थीं। अचानक मेरे पास दो कदम आकर रुके और सुरीली आवाज मेरी कानों गूंजी-‘हलौ, आप यहां क्या ताज़महल पर लिखी वह किताब ढूंढने आये हैं।’
मैने अचकचा कर दायें तरफ ऊपर मुंह कर देखा तो वह फ्रांसिसी लड़की खड़ी थी। उसके साथ ही वह अंग्रेज लड़की कुछ दूर थी जो अब पास आ गयी। वह फ्रांसिसी लड़की मुस्करा रही थी और यकीनन उसका प्रश्न मजाक उड़ाने जैसा ही था।
मैंने हंसकर कहा-‘हां, इस कबाड़ी को इसलिये ही यहां लाया हूं क्योकि इसने वादा किया है कि एक पैग पीने का बाद याद करेगा कि इसने वह किताब कहां देखी थी। वह किताब उसके कबाड़ की दुकान पर भी हो सकती है, ऐसा इसने बताया।’’
अंग्रेज लड़की बोली-‘अच्छा! आप अगर किताब पा लें तो पढ़कर कल हमें जरूर बताईयेगा कि ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं? कल हम वहां फिर आयेंगीं।’
मैंने कहा-‘ताजमहल एक बहुत अच्छी देखने लायक जगह है। उसे देखकर ऐसा अद्भुत अहसास होता है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।’
दोनों लड़कियां चौंक गयी। अंग्रेज लड़की बुझे घूरते हुए बोली-‘पर आपने तो वह किताब पढ़ी भी नहीं। फिर यह टिप्पणी कैसे कर दी। आप तो बिना किताब पढ़े कुछ सोचते ही नहीं’।
मैंने कहा-‘हां यह एक सच बात है पर दूसरा सच यह भी है कि शराब सब बुलवा लेती है जो आप सामान्य तौर से नहीं बोल पाते।’’
यह था एक कल्पित संस्मरण! यह कुछ बड़ा हो गया और इसे ताज़महल से बार तक इसे खींचकर नहीं लाते तो भी चल जाता पर लिखते लिखते अपनी शैली हावी हो ही जाती है क्योकि ताज़महल तक यह संस्मरण ठीक ठाक था पर उससे आगे इसमें कुछ अधिक प्रभाव लग रहा है।
मगर हम जिस लेखक की चर्चा कर रहे हैं वह इसी तरह ही दो तीन संस्मरण लिखकर और साथ में विवादास्पद मुद्दों पर आधी अधूरी होने के साथ ही बेतुकी राय रखकर लेख बना लेते हैं।
वैसे भी अंग्रेजी में लिखने पर हिन्दी में प्रसिद्धि पाने वाले लेखक को शायद ही हिन्दी लिखना आती हो पर अपने यहां एक कहावत हैं न कि ‘घर का ब्राह्म्ण बैल बराबर, आन गांव का सिद्ध’। अंग्रेजी लेखक को ही सिद्ध माना जाता है और हिन्दी को बेचारा। अंग्रेजी के अनेक लेखक बेतुकी, और स्तरहीन लिखकर भी हिन्दी में छाये रहते हैं। इनमें से अधिकतर राजनीतिक घटनाओं पर संबंधित पात्रों का नाम लिखकर ही उनका प्रसिद्ध बनाते हैं-अब यह उस पात्र की प्रशंसा करें या आलोचना दोनों में उसका नाम तो होता ही है। इनमें इतनी तमीज़ नहीं है कि जो व्यक्ति देह के साथ जीवित नहीं हो उस पर आक्षेपात्मक तो कभी नहीं लिखना चाहिये। कम से कम उनकी मूल छबि से तो छेड़छाड़ नहीं करना चाहिये। भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन की छबि अच्छी नहीं है पर सावरकर को एक योद्ध माना जाता है। उनके विचारों से किसी को असहमति हो सकती है पर इसको लेकर उनकी छबि पर प्रहार करना एक अनुचित कृत्य हैं। बहरहाल हिन्दी में ऐसे ही चिंदी लेखक प्रसिद्ध होते रहे हैं और यही शिकायत भी करते हैं कि हिन्दी में अच्छा लिखा नहीं जा रहा। चिंदी लेखक यानि अंग्रेजी में टुकड़े टुकड़े लिखकर उसके हिन्दी में बेचने वाले
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Saturday, September 4, 2010

नक्सली आतंक को युद्ध नहीं कहा जा सकता-हिन्दी लेख (it is terarrism not war by naxlit)

न कोई तर्क से बात करने वाला है और समझने वाला! बहसें होती हैं, चंद नारे उधर से नक्सली लगाते हैं तो चंद नपे तुले वाक्य इधर से सुनाकर इतिश्री कर ली जाती है। कथित नक्सलवादर पढ़े लिखे हैं पर शिक्षा तो उनकी वही है जो उनसे बहस करने वालों की है। एक टीवी चैनल पर एक नक्सली नेता से भेंट कुछ यूं देखी सुनी।
एंकर-‘आप गरीबों के लिए लड़ने का दावा करते हैं पर जो पुलिस वाले अपने अपहृत किये हैं वह सभी गरीब ही तो हैं?’
नक्सली नेता-‘यह तो युद्ध है। जो सामने आता है उसे मारना ही पड़ता है।’
एंकर-‘यह पुलिस वाले तो बिचारे ड्यूटी कर रहे हैं, वह किसी के आदेश पर वहां आये हैं। आपकी लड़ाई तो व्यवस्था से हैं आप उसको बिगाड़ने वालों तक क्यों नहीं पहुंचते।’
नक्सली नेता-हम वहां भी पहुंचेंगे, पर अभी तो युद्ध में जो सामने हैं उसे तो मारेंगे ही। हमारी मांगें पूरी हो जायें तो उनको रिहा कर देंगे।’
नक्सली नेता बड़े शतिराने तरीके से अपने आतंक को युद्ध कह रहा है पर उसे कौन बताने वाला है कि युद्ध के सच्चे योद्धा कुछ नियमों का पालन करते हैं। इनका पालन कैसे होता है हमारे अध्यात्मिक दर्शन में बताया जा चुका है पर उनको मनुवादी, सवर्णवादी तथा पूंजीवादी बताकर कुछ लोग पढ़ना नहीं चाहते।
उसमें स्पष्ट कहा गया है कि
शरण में आये हुए पर
हथियार हाथ में न होने पर
युद्ध में पीठ पीछे होने पर
युद्ध से भागने पर
हथियार डालने वाले
युद्ध न करने या घायल हो जाने पर वहीं बैठे योद्धा पर कभी वार नहीं करना चाहिये।
चलिये भारतीय अध्यात्म दर्शन बुरा ही सही मगर इन नियमों का पालन तो दुनियां में हर जगह होता है। जो पेशेवर योद्धा है वह इसका पालन करते हैं और यही उनकी वीरता का परिचायक होता है। युद्ध में वीरता तभी तक ही सिद्ध मानी जाती है जब तक सामने से लड़ रहे योद्धा को परास्त न किया जाये। उससे इतर तो छल कपट माना जाता है। अब महाभारत युद्ध में कुछ जगह कौरवों से छलकपट हुआ तो इसलिये कि उन्होंने भी अभिमन्यु को छल से मारा था।
मुख्य सवाल यह है कि टीवी चैनलों में बैठे संपादक और एंकरों की भी है जो इन बातों को नहीं जानते। इससे जाहिर होता है कि निजी क्षेत्र में कम से कम संचार माध्यमों में योग्यता और ज्ञान से अधिक चेहरा और आवाज के साथ ही निज प्रबंधन की क्षमता की प्रधानता है जिसके आधार पर वहां काम मिलता है। अब जरा उन बुद्धिजीवियों की भी बात करें जो इन नक्सलियों को वीर मानते हैं।
असावधान, सो रहे तथा खाना खा रहे पुलिस कर्मियों पर जिस तरह नक्सली हमले करते हैं वह उनके कायर और क्रूर होने की निशानी है। दूसरा अभी हाल ही में बिहार में अपहृत पुलिस कर्मियों की घटना जो सामने आयी है उसमें एक तथ्य ऐसा है जो कुछ अलग से हटकर सोचने को मज़बूर करता है। वह है तनाव ग्रस्त क्षेत्र से आदिवासियों के पलायन का जो कि पुलिस की घेराबंदी के चलते वहां से बाहर आ रहे हैं। इधर पुलिस उधर नक्सली ऐसे में उनके लिये जीवन बचाने का यही एक रास्त है क्योंकि वह आम आदमी हैं। ऐसी स्थिति में उनकी हमदर्दी नक्सलियों से होगी इस पर उनके अंध समर्थक ही यकीन कर सकते हैं। कहीं यह नक्सलवाद भी क्रिकेट मैचों की तरह फिक्स तो नहीं है। आदिवासियों का यह पलायन कहीं उनके स्थाई पलायन का पूर्वाभ्यास तो नहीं है। क्योंकि आदिवासी क्षेत्रों में विकास न होने की बात कही जाती है और उसका जो स्वरूप हमारे सामने हैं वह केवल पूंजीपति ही करते हैं। इसके लिये उनको चाहिऐ सस्ती ज़मीन! आदिवासी ऐसे ज़मीन देंगे नहीं मगर उनसे लेनी है। इसलिये वहां तनाव पैदा कर उनको पहले अस्थाई रूप से पलायन करने के लिये विवश किया गया। बाद में विकास करने के नाम पर कोई समझौता किया जाये तो उसमें पूंजीपतियों की भूमिका तो बिना आमंत्रण के होनी ही है तब अशांति से ऊबे आदिवासी जहां अब उनको अस्थाई बसाहट मिले वहां रहने को तैयार कर ज़मीन उनसे औने पौने दामों पर खरीद ली जाये-क्या ऐसी किसी योजना की आशंका से इंकार किया जा सकता है।
जहां तक पुलिस जवानों के मरने का सवाल है तो वह आम लोग हैं और उनसे आमजन की हमदर्दी ही हो सकती है बाकी तो जुबानी जमा खर्च वाले बहुत बड़े लोग हैं। किं्रकेट में खूब फिक्सिंग चलती है किसी को परवाह नहीं क्योंकि उसमें आम इंसान ही ठगा जाता है। जो क्रिकेट में सट्टा चला रहे हैं वही फिल्मों से भी जुड़े हैं तो आतंकवादियों को भी पैसा पहुंचा रहे हैं। यह आतंक भी फिक्सिंग जैसा लगता है जिसमें स्थापित लोगों को कोई अंतर नहीं पड़ता। मरने वाला भी छोटा आदमी और मारने वाला भी।
एक पुलिस वाले को मार दिया है। उसके जवाब में नक्सली नेता कहता है कि‘हमारी कमेटी ने यह निर्णय लिया।’
मतलब कमेटी में बैठे लोग सीधे मारने नहीं आते और जो मारते हैं यह निर्णयकर्ता नहीं है। घालमेल यही से शुरु होता है। इस बात की पूरी गुंजायश है कि जहां अधिक लोग निर्णय करने वाले होते हैं वहां बाहर से आये निर्देंशों का पालन किया जाता है। आखिरी बात यह युद्ध है तो कमेटी ने निर्णय क्यों लिया? क्या कभी सुना है कि युद्ध में कमेटियां निर्णय देती हैं और सैनिक गोलियां चलाते हैं। जो पुलिस वाले बंधक हैं वह निहत्थे हैं और स्पष्टतः एक तरह से कथित नक्सली योद्धाओं के की शरण में है। आधुनिक युग में भी युद्धबंदियों की हत्या एक अपराध ही माना जाता है। इसलिये जो बुद्धिमान लोग इन नक्सलियों में वीरता का गुण देखते हैं वह जरा अपनी राय पर विचार कर लें। जो इन नक्सलियों से असहमत हैं वह भी जरा यह सवाल उनके सामने उठायें। यह बतायें कि यह युद्ध नहीं होता। इसका केवल एक ही नाम है‘आतंक।’
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