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Wednesday, March 31, 2010

अंग्रेज और किताबें-हिन्दी व्यंग्य (inlishman and books-hindi satire article)

इस संसार का कोई भी व्यक्ति चाहे शिक्षित, अशिक्षित, ज्ञानी, अज्ञानी और पूंजीवादी या साम्यवादी हो, वह भले ही अंग्रेजों की प्रशंसा करे या निंदा पर एक बात तय है कि आधुनिक सभ्यता के तौर तरीके उनके ही अपनाता है। कुछ लोगों ने अरबी छोड़कर अंग्रेजी लिखना पढ़ना शुरु किया तो कुछ ने धोती छोड़कर पेंट शर्ट को अपनाया और इसका पूरा श्रेय अंग्रेजों को जाता है। मुश्किल यह है कि अंग्रेजों ने सारी दुनियां को सभ्य बनाने से पहले गुलाम बनाया। गुलामी एक मानसिक स्थिति है और अंग्रेजों से एक बार शासित होने वाला हर समाज आजाद भले ही हो गया हो पर उनसे आधुनिक सभ्यता सीखने के कारण आज भी उनका कृतज्ञ गुलाम है।
अंग्रेजों ने सभी जगह लिखित कानून बनाये पर मजे की बात यह है कि उनके यहां शासन अलिखित कानून चलता है। इसका आशय यह है कि उनको अपने न्यायाधीशों के विवेक पर भरोसा है इसलिये उनको आजादी देते हैं पर उनके द्वारा शासित देशों को यह भरोसा नहीं है कि उनके यहां न्यायाधीश आजादी से सोच सकते हैं या फिर वह नहीं चाहते कि उनके देश में कोई आजादी से सोचे इसलिये लिखित कानून बना कर रखें हैं। कानून भी इतने कि किसी भी देश का बड़ा से बड़ा कानून विद उनको याद नहीं रख सकता पर संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि हर नागरिक हर कानून को याद रखे।
अधिकतर देशों के आधुनिक संविधान हैं पर कुछ देश ऐसे हैं जो कथित रूप से अपनी धाार्मिक किताबों का कानून चलाते हैं। कहते हैं कि यह कानून सर्वशक्तिमान ने बनाया है। कहने को यह देश दावा तो आधुनिक होने का करते हैं पर उनके शिखर पुरुष अंग्रेजों के अप्रत्यक्ष रूप से आज भी गुलाम है। कुछ ऐसे भी देश हैं जहां आधुनिक संविधान है पर वहां कुछ समाज अपने कानून चलाते हैं-अपने यहां अनेक पंचायतें इस मामले में बदनाम हो चुकी हैं। संस्कृति, संस्कार और धर्म के नाम पर कानून बनाये मनुष्य ने हैं पर यह दावा कर कि उसे सर्वशक्तिमान  ने बनाया है दुनियां के एक बड़े वर्ग को धर्मभीरु बनाकर बांधा जाता है।
पुरानी किताबों के कानून अब इस संसार में काम नहीं कर सकते। भारतीय धर्म ग्रंथों की बात करें तो उसमें सामाजिक नियम होने के साथ ही अध्यात्मिक ज्ञान भी उनमें हैं, इसलिये उनका एक बहुत बड़ा हिस्सा आज भी प्रासंगिक है। वैसे भारतीय समाज अप्रासांगिक हो चुके कानूनों को छोड़ चुका है पर विरोधी लोग उनको आज भी याद करते हैं। खासतौर से गैर भारतीय धर्म को विद्वान उनके उदाहरण देते हैं। दरअसल गैर भारतीय धर्मो की पुस्तकों में अध्यात्मिक ज्ञान का अभाव है। वह केवल सांसरिक व्यवहार में सुधार की बात करती हैं। उनके नियम इसलिये भी अप्रासंगिक हैं क्योंकि यह संसार परिवर्तनशील है इसलिये नियम भी बदलेंगे पर अध्यात्म कभी नहीं बदलता क्योंकि जीवन के मूल नियम नहीं बदलते।
अंग्रेजों ने अपने गुलामों की ऐसी शिक्षा दी कि वह कभी उनसे मुक्त नहीं हो सकते। दूसरी बात यह भी है कि अंग्रेज आजकल खुद भी अपने आपको जड़ महसूस करने लगे हैं क्योंकि उन्होंने अपनी शिक्षा पद्धति भी नहीं बदली। उन्होंनें भारत के धन को लूटा पर यहां का अध्यात्मिक ज्ञान नहीं लूट पाये। हालत यह है कि उनके गुलाम रह चुके लोग भी अपने अध्यात्मिक ज्ञान को याद नहीं रख पाये। अलबत्ता अपने किताबों के नियमों को कानून मानते हैं। किसी भी प्रवृत्ति का दुष्कर्म रोकना हो उसके लिये कानून बनाते हैं। किसी भी व्यक्ति की हत्या फंासी देने योग्य अपराध है पर उसमें भी दहेज हत्या, सांप्रदायिक हिंसा में हत्या या आतंक में हत्या का कानून अलग अलग बना लिया गया है। अंग्रेज छोड़ गये पर अपनी वह किताबें छोड़ गये जिन पर खुद हीं नहीं चलते।
यह तो अपने देश की बात है। जिन लोगों ने अपने धर्म ग्रंथों के आधार पर कानून बना रखे हैं उनका तो कहना ही क्या? सवाल यह है कि किताबों में कानून है पर वह स्वयं सजा नहीं दे सकती। अब सवाल यह है कि सर्वशक्तिमान की इन किताबों के कानून का लागू करने का हक राज्य को है पर वह भी कोई साकार सत्ता नहीं है बल्कि इंसानी मुखौटे ही उसे चलाते हैं और तब यह भी गुंजायश बनती है कि उसका दुरुपयोग हो। किसी भी अपराध में परिस्थितियां भी देखी जाती हैं। आत्म रक्षा के लिये की गयी हत्या अपराध नहीं होती पर सर्वशक्तिमान के निकट होने का दावा करने वाला इसे अनदेखा कर सकता है। फिर सर्वशक्तिमान के मुख जब अपने मुख से किताब प्रकट कर सकता है तो वह कानून स्वयं भी लागू कर सकता है तब किसी मनुष्य को उस पर चलने का हक देना गलत ही माना जाना चाहिये। इसलिये आधुनिक संविधान बनाकर ही सभी को काम करना चाहिए।
किताबी कीड़ों का कहना ही क्या? हमारी किताब में यह लिखा है, हमारी में वह लिखा है। ऐसे लोगों से यह कौन कहे कि ‘महाराज आप अपनी व्याख्या भी बताईये।’
कहते हैं कि दुनियां के सारे पंथ या धर्म प्रेम और शांति से रहना सिखाते हैं। हम इसे ही आपत्तिजनक मानते हैं। जनाब, आप शांति से रहना चाहते हैं तो दूसरे को भी रहने दें। प्रेम आप स्वयं करें दूसरे से बदले में कोई अपेक्षा न करें तो ही सुखी रह सकते हैं। फिर दूसरी बात यह कि गुण ही गुणों को बरतते हैं। मतलब यह कि आप में अगर प्रेम का गुण नहीं है तो वह मिल नहंी सकता। बबूल का पेड़ बोकर आम नहीं मिल सकता। पुरानी किताबें अनपढ़ों और अनगढ़ों के लिये लिखी गयी थी जबकि आज विश्व समाज में सभ्य लोगों का बाहुल्य है। इसलिये किताबी कीड़े मत बनो। किताबों में क्या लिखा है, यह मत बताओ बल्कि तुम्हारी सोच क्या है यह बताओ। जहां तक दुनियां के धर्मो और पंथों का सवाल है तो वह बनाये ही बहस और विवाद करने के लिये हैं इसलिये उनके विद्वान अपने आपको श्रेष्ठ बताने के लिये मंच सजाते हैं। जहां तक मनुष्य की प्रसन्नता का सवाल है तो उसके लिये भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के अलावा कोई रास्ता नहीं है। दूसरी बात यह कि उनकी किताबें इसलिये पढ़ना जरूरी है कि सांसरिक ज्ञान तो आदमी को स्वाभाविक रूप से मिल जाता है और फिर दुनियां भर के धर्मग्रंथ इससे भरे पड़े हैं पर अध्यात्मिक ज्ञान बिना गुरु या अध्यात्मिक किताबों के नहीं मिल सकता। जय श्रीराम!

हिन्दी साहित्य,समाज,अध्यात्म,मनोरंजन,संपादकीय,आलेख

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Sunday, March 28, 2010

रास्ता बंद कर दो-हिन्दी व्यंग्य कविता (rasta band kar do-hindi vyangya kavita)

मशहूर हो जाने पर
वही बताओ दूसरों को रास्ते,
जो चुने नहीं तुमने अपने वास्ते।
कुछ नया कहने के लिये
चारों तरफ तुम्हें तारीफ भी मिलेगी,
तुम्हारे चाहने वालों के चेहरे
पर हंसी भी खिलेगी,
सोचने का शऊर न हो
पर दिखना तो चाहिये,
भले ही लफ्ज़ खुद न समझो
पर लिखना तो चाहिये,
कोई नया आकर तुम्हारी जगह न ले
इसलिये रास्ता बंद कर दो
आहिस्ते आहिस्ते।
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Wednesday, March 24, 2010

आज रामनवमी का पावन पर्व-हिन्दी लेख (today ramnavami festival-hindi article)

आज रामनवमी है। भगवान श्रीराम के चरित्र को अगर हम अवतार के दृष्टिकोण से परे होकर सामान्य मनुष्य के रूप में विचार करें तो यह तथ्य सामने आता है कि वह एक अहिंसक प्रवृत्ति के एकाकी स्वभाव के थे। उन जैसे सौम्य व्यक्तित्व के स्वामी बहुत कम मनुष्य होते हैं। दरअसल वह स्वयं कभी किसी से नहीं लड़े बल्कि हथियार उठाने के लिये उनको बाध्य किया गया। ऐसे हालत बने कि उन्हें बाध्य होकर युद्ध के मार्ग पर जाना पड़ा।
भगवान श्रीराम बाल्यकाल से ही अत्यंत संकोची, विनम्र तथा अनुशासन प्रिय थे। इसके साथ ही पिता के सबसे बड़े पुत्र होने की अनुभूति ने उन्हें एक जिम्मेदार व्यक्ति बना दिया था। उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठ जी से शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी अपना समय घर पर विराम देकर नहीं बिताया बल्कि महर्षि विश्वमित्र के यज्ञ की रक्षा के लिये शस्त्र लेकर निकले तो फिर उनका राक्षसों से ऐसा बैर बंधा कि उनको रावण वध के लिये लंका तक ले गया।
हिन्दू धर्म के आलोचक भगवान श्रीराम को लेकर तमाम तरह की प्रतिकूल टिप्पणियां करते हैं पर उसमें उनका दोष नहीं है क्योंकि श्रीराम के भक्त भी बहुत उनके चरित्र का विश्लेषण कर उसे प्रस्तुत नहीं कर पाते।
सच बात तो यह है कि भगवान श्रीराम अहिंसक तथा सौम्य प्रवृत्ति का प्रतीक हैं। इसी कारण वह श्रीसीता को पहली ही नज़र में भा गये थे। भगवान श्रीराम की एक प्रकृति दूसरी भी थी वह यह कि वह दूसरे लोगों का उपकार करने के लिये हमेशा तत्पर रहते थे। यही कारण है कि उनकी लोकप्रियता बाल्यकाल से बढ़ने लगी थी।
सच बात तो यह है कि अगर राम राक्षसों का संहार नहीं करते तो भी अपनी स्वभाव तथा वीरता की वजह से उतने प्रसिद्ध होते जितने रावण को मारने के बाद हुए। उनका राक्षसों से प्रत्यक्ष बैर नहीं था पर रावण के बढ़ते अनाचारों से देवता, गंधर्व और मनुष्य बहुत परेशान थे। देवराज इंद्र तो हर संभव यह प्रयास कर रहे थे कि रावण का वध हो और भगवान श्रीराम की धीरता और वीरता देखकर उन्हें यह लगा कि वही राक्षसों का समूल नाश कर सकते हैं। भगवान श्रीराम के चरित्र पर भारत के महान साहित्यकार श्री नरेंद्र कोहली द्वारा एक उपन्यास भी लिखा गया है और उसमें उनके तार्किक विश्लेषण बहुत प्रभावी हैं। उन्होंने तो अपने उपन्यास में कैकयी को कुशल राजनीतिज्ञ बताया है। श्री नरेद्र कोहली के उपन्यास के अनुसार कैकयी जानती थी रावण के अनाचार बढ़ रहे हैं और एक दिन वह अयोध्या पर हमला कर सकता है। वह श्रीराम की वीरता से भी परिचित थी। उसे लगा कि एक दिन दोनों में युद्ध होगा। यह युद्ध अयोध्या से दूर हो इसलिये ही उसने श्रीराम को वनवास दिलाया ताकि वहां रहने वाले तपस्पियों पर आक्रमण करने वाले राक्षसों का वह संहार करते रहें और फिर रावण से उनका युद्ध हो। श्रीकोहली का यह उपन्यास बहुत पहले पढ़ा था और उसमें दिये गये तर्क बहुत प्रभावशाली लगे। बहरहाल भगवान श्रीराम के चरित्र की चर्चा जिनको प्रिय है वह उनके बारे में किसी भी सकारात्मक तर्क से सहमत न हों पर असहमति भी व्यक्त नहीं कर सकते।
रावण के समकालीनों में उसके समान बल्कि उससे भी शक्तिशाली अनेक महायोद्धा थे जिसमें वानरराज बलि का का नाम भी आता है पर इनमें से अधिकतर या तो उसके मित्र थे या फिर उससे बिना कारण बैर नहीं बांधना चाहते थे। कुछ तो उसकी परवाह भी नहीं करते थे। ऐसे में श्रीराम जो कि अपने यौवन काल में होने के साथ ही धीरता और वीरता के प्रतीक थे उस समय के रणनीतिकारों के लिये एक ऐसे प्रिय नायक थे जो रावण को समाप्त कर सकते थे। भगवान श्रीराम अगर वन न जाकर अयोध्या में ही रहते तो संभवतः रावण से उनका युद्ध नहीं होता परंतु देवताओं के आग्रह पर बुद्धि की देवी सरस्वती ने कैकयी और मंथरा में ऐसे भाव पैदा किये वह भगवान श्रीराम को वन भिजवा कर ही मानी। कैकयी तो राम को बहुत चाहती थी पर देवताओं ने उसके साथ ऐसा दाव खेला कि वह नायिका से खलनायिका बन गयी।
श्री नरेंद्र कोहली अपने उपन्यास में उस समय के रणनीतिकारों का कौशल मानते हैं। ऐसा लगता है कि उस समय देवराज इंद्र अप्रत्यक्ष रूप से अपनी रणनीति पर अमल कर रहे थे। इतना ही नहीं जब वन में भगवान श्रीराम अगस्त्य ऋषि से मिलने गये तो देवराज इंद्र वहां पहले से मौजूद थे। उनके आग्रह पर ही अगस्त्य ऋषि ने एक दिव्य धनुष भगवान श्रीराम को दिया जिससे कि वह समय आने पर रावण का वध कर सकें। कहने का तात्पर्य यह है कि जब हम रामायण का अध्ययन करते हैं तो केवल अध्यात्मिक, वैचारिक तथा भक्ति संबंधी तत्वों के साथ अगर राजनीतिक तत्व का अवलोकन करें तो यह बात सिद्ध होती है कि राम और रावण के बीच युद्ध अवश्यंभावी नहीं था पर उस काल में हालत ऐसे बने कि भगवान श्रीराम को रावण से युद्ध करना ही पड़ा। मूलतः भगवान श्रीराम सुकोमल तथा अहिंसक प्रवृत्ति के थे।
जब रावण ने सीता का हरण किया तब भी देवराज इंद्र अशोक वाटिका में जाकर अप्रत्यक्ष रूप उनको सहायता की। इसका आशय यही है कि उस समय देवराज इंद्र राक्षसों से मानवों और देवताओं की रक्षा के लिये रावण का वध श्रीराम के हाथों से ही होते देखना चाहते थे। अगर सीता का हरण रावण नहीं करता तो शायद ही श्रीराम जी उसे मारने के लिये तत्पर होते पर देवताओं, गंधर्वों तथा राक्षसों में ही रावण के बैरी शिखर पुरुषों ने उसकी बुद्धि का ऐसा हरण किया कि वह श्रीसीता के साथ अपनी मौत का वरण कर बैठा। ऐसे में जो लोग भगवान श्रीराम द्वारा किये युद्ध पर ही दृष्टिपात कर उनकी निंदा या प्रशंसा करते हैं वह अज्ञानी हैं और उनको भगवान श्रीराम की सौम्यता, धीरता, वीरता तथा अहिंसक होने के प्रमाण नहीं दिखाई दे सकते। उस समय ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों, देवताओं, और मनुष्यों की रक्षा के लिये ऐसा संकट उपस्थित हुआ था कि भगवान श्रीराम को अस्त्र शस्त्र एक बार धारण करने के बाद उन्हें छोड़ने का अवसर ही नहीं मिला। यही कारण है कि वह निरंतर युद्ध में उलझे रहे। श्रीसीता ने उनको ऐसा करने से रोका भी था। प्रसंगवश श्रीसीता जी ने उनसे कहा था कि अस्त्र शस्त्रों का संयोग करने से मनुष्य के मन में हिंसा का भाव पैदा होता है इसलिये वह उनको त्याग दें, मगर श्रीराम ने इससे यह कहते हुए इंकार किया इसका अवसर अभी नहीं आया है।
उस समय श्रीसीता ने एक कथा भी सुनाई थी कि देवराज इंद्र ने एक तपस्वी की तपस्या भंग करने के लिये उसे अपना हथियार रखने का जिम्मा सौंप दिया। सौजन्यता वश उस तपस्वी ने रख लिया। वह उसे प्रतिदिन देखते थे और एक दिन ऐसा आया कि वह स्वयं ही हिंसक प्रवृत्ति में लीन हो गये और उनकी तपस्या मिट्टी में मिल गयी।
भगवान श्रीराम की सौम्यता, धीरता और वीरता से परिचित उस समय के चतुर पुरुषों ने ऐसे हालत बनाये और बनवाये कि उनका अस्त्र शस्त्र छोड़ने का अवसर ही न मिले। भगवान श्रीराम सब जानते थे पर उन्होंने अपने परोपकार करने का व्रत नहीं छोड़ा और अंततः जाकर रावण का वध किया। ऐसे भगवान श्रीराम को हमारा नमन।
रामनवमी के इस पावन पर्व पर पाठकों, ब्लाग लेखक मित्रों तथा देशभर के श्रद्धालुओं को ढेर सारी बधाई।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Sunday, March 14, 2010

लायक बच्चे पैदा करने का नारा-व्यंग्य चिंतन और हास्य कविता (woman and child-hindi article and comic poem)

यह एक अजीब बहस है। इस पर केवल हंसा ही जा सकता है जब कोई धर्म गुरु नारियों से कहता है कि ‘उन्हें तो लायक बच्चे पैदा करना चाहिये।’
आखिर उनके कहने का क्या मतलब है कि अगर कोई इंसान नालायकी या शैतानियत पर उतारू हो तो उसकी जननी को जिम्मेदार माना जाना चाहिये। फिर उस पुरुष के बारे में क्या विचार है जो बच्चे के जन्म और पालने के लिये बराबर जिम्मेदार होता है?
दरअसल सर्वशक्तिमान इस दुनियां के निर्माण के लिये जिम्मेदार है पर संचालन का जिम्मा तो उसके द्वारा पैदा किये गये जीवों का स्वयं का है। वह केवल जन्म और मृत्यु के लिये जिम्मेदार है बाकी तो अपने जीवन की जिम्मेदारी सभी जीवों की स्वयं की है।
वह धर्मगुरु कहते हैं कि लायक और कुछ न कर केवल लायक बच्चे पैदा करें तो उनसे पूछना चाहिये कि ‘अगर नारियां इतनी क्षमतावान हो गयी तो वह उस सर्वशक्तिमान के नाम पर लिखी गयी उन किताबों को इस दुनियां में पढ़ने की क्या जरूरत रह जायगी। क्या पुरुष केवल उन किताबों को पढ़ेंगे और नारियां उससे दूर रहें? फिर तो उन पर कोई भी धार्मिक कर्मकांड नहीं लादना चाहिए।’
श्रीमद्भागवत गीता में लिखा गया है परमात्मा के केवल योनि में जीवन स्थापित करता है।’
उसके बाद तो जीव अपने कर्म और विचार के अनुसार जीवन जीता है। जैसे वह संकल्प धारण करता है वैसा ही संसार उसके लिये हो जाता है। उसे तत्वज्ञान हो जिसे वह सहजता से जीवन जी सके-यही ज्ञान श्रीगीता में वर्णित है। चूंकि आत्मा सच है और देह माया। यह माया सर्वशक्तिमान के बस में है तो केवल उसके संकल्प के कारण पर वह अपने द्वारा उत्पन्न जीवों में भी वह शक्ति प्रदान करे यह संभव नहीं है। अगर इंसान अपने अंदर तत्व ज्ञान के द्वारा दृढ़ संकल्प धारण कर ले तो वह इस माया के चक्कर में वैसे काम नहीं करेगा जैसे कि शैतान प्रवृत्ति के लोग करते हैं। जहां तक जन्म के आधार पर आदमी के अच्छे और बुरे होने की बात है तो वह एक हास्यास्पद तर्क है। ऐसा भी देखा गया है कि अनेक स्त्री पुरुष अपनी हालातों की वजह से अपने बच्चे को कम समय दे पाते हैं पर उनके बच्चे योग्य निकलते हैं। इसके विपरीत जो अपने बच्चों को बड़े स्नेह से पालते हैंे उनमें अनेक नालायक निकल जाते हैं। इतना ही नहीं अनेक ऐसे परिवार भी देखे गये हैं जिनको समाज में अच्छा नहीं समझा जाता पर उनके बच्चों ने अपनी योग्यता से नाम रौशन किया और इसके अनेक प्रतिष्ठित परिवारों के बच्चों ने अपना डुबाया।
हमारे कहने का अभिप्राय का अभिप्राय है कि बच्चों में अच्छे संस्कार डालने की जिम्मेदारी अकेली नारी की नहीं होती बल्कि पिता, दादा, दादी तथा अन्य निकटस्था रिश्तेदारों के अलावा गुरुजनों की भी होती है। सीधी बात तो यह है कि पूरे स समाज का एक तरह से जिम्मा है कि उनके सदस्य सही राह चलें।
प्रस्तुत है इस पर एक हास्य कविता।
______________________________
‘नारियों को कुछ अधिक न कर
केवल लायक बच्चे पैदा करने चाहिये’
यह एक धर्म गुरु ने बताया।
बच्चे तो स्वाभाविक ढंग से पैदा होते हैं
पर योग्य कैसे हों यह नहीं समझाया।

दोष उनको क्या दें
पवित्र किताबों को तोते की तरह
रटने वालों ने भी
भला इस दुनियां को समझ कहां पाया।

जिस सर्वशक्तिमान का नाम लेकर
लिखी गयी किताबें
उसने इंसान पैदा किये
पर कोई बनता फरिश्ता
किसी पर पड़ जाती है शैतान की छाया।

इस धरती पर फरिश्ते रहें
और शैतान कभी दिखे नहीं
यह तो सर्वशक्तिमान भी तय नहीं कर पाया।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Wednesday, March 10, 2010

बौद्धिक शोध-हिन्दी व्यंग्य चिंतन (Intellectual research - Hindi satirical article)

अगर आप लेखक या चित्रकार हैं और केवल अभिव्यक्ति के लिय ही रचनाकर्म करते हुए उससे आय की आशा नहीं करते तो फिर अपने पुजने का अहंकार भी छोड़ देना चाहिये। पता नहीं भारतीय समाज की यह पुरानी आदत है या फिर अंग्रेज इसे छोड़ गये कि यहां लेखक या चित्रकार की कामयाबी का पैमाना उसकी इन पेशों से कमाई या सम्मान ही माना जाता है। दरअसल हम यह विषय एक चित्रकार के भारत छोड़कर खाड़ी के ही एक देश में स्थाई रूप से बसने के संदर्भ में उठा रहे हैं। वह एक चित्रकार है और कथित रूप विश्व प्रसिद्ध होने के बावजूद भारतीय जनमानस में उसकी कोई छबि नहीं है। पिछले कई बरसों से देश के बुद्धिजीवी और प्रचार माध्यम लगे हुए हैं उसका प्रचार करने में! इसके बावजूद आम जनमानस में कोई उसका स्थान नहीं है।
अनेक लोग तो आज तक यही समझ नहीं पाये कि आखिर उस चित्रकार को इतना महत्व क्यों दिया जा रहा है? कागज पर आड़ी तिरछी रेखायें-एक आम आदमी के लिये यही स्थिति है-खींचने को आधुनिक चित्रकला कहा जाता है। ऐसे चित्रों की भारत के बाहर बहुत मांग होती है और जिसने बाजार प्रबंधन अपने साथ कर लिया वह स्थापित चित्रकार हो सकता है। वह भी अमेरिका और ब्रिटेन जैसे मुल्कों में अपनी जगह बना सकता है जहां चित्रकला नयी है-दूसरे शब्दों में कहें कि जहां के लोग चित्रों के बारे में अधिक नहीं जानते। भारत, इटली और मिस्त्र जैसे देश जहां प्राचीन काल से ही चित्रकला संपन्न रही है वहां आधुनिक चित्रकला सिवाय आड़ी तिरछी रेखाओं के अलावा कुछ नहीं समझी जाती। जिस तरह कहा जाता है कि चाहे कोई कितना भी अच्छा लिख ले पर तुलसीदास जी की तरह रामचरितमानस नहीं लिख सकता वही स्थिति चित्रकला की है। चाहे कोई कितना भी अच्छा चित्रकार हो वह खजुराहो और अजन्ता एलोरा जैसी कलाकृतियां नहीं बना सकता। हम कहते हैं कि हमारे देश में अशिक्षित और निरक्षर लोगों की भरमार है पर सच तो यह है कि असली कला के असली पारखी वही हैं। बात दूसरी भी है कि यहां भगवान राम, कृष्ण, ब्रह्मा, शिवजी तथा माताओं के ऐसे चित्र कलाकार बनाते हैं कि लोग उनको ही पसंद कर अपने घरों में लगाते हैं। मजे की बात यह है कि दीवार पर लगे चित्र पुराने हो जायें तो फिर उनकी जगह दूसरे आ जाते हैं पर मन का चित्र तो हमेशा ही ताजा रहता है और हर कोई अपने इष्ट का नया चित्र लगाये पर वह उसे बदलता नहीं है।
इससे अलग भी फिल्मी हीरो और हीरोईनों के चित्र भी लोग रखते हैं। भारत का शिवाकाशी कैलेंडर चित्रों के लिये मशहूर है और वहां से अनेक प्रकार की तस्वीरें बाजार में आती है। एक भारतीय गहरे रंगों में स्पष्ट तस्वीर को देखने का आदी है इसलिये उसे आधुनिक चित्रकला से अधिक सरोकार नहीं है।
भारत मेें ऐसे अनेक कलाकार देखे गये हैं जो आदमी को सामने बैठाकर या फोटो से उसकी तस्वीर बनाते हैं। इनको काम अधिक नहीं मिलता इसलिये वह बोर्ड़ आदि रंगने का काम भी करते हैं। ऐसे ही एक पेंटर का चित्र इस लेखक ने देखा था जो उसने एक सज्जन का फोटो देखकर हाथ से बनाया था जिसे देखकर ऐसा लगता था कि कैमरे से हुबहु खींचा गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि चित्रकार तो यहां गली मोहल्ले में रहे हैं पर रोजी रोटी के कारण उनको स्वतंत्र रूप से अपनी चित्रकला से काम करने का अवसर नहीं मिला।
इधर नया समाज बनाने का सपना देखने वालों ने विदेशों से विचाराधारायें उठायीं तो वहां के कुछ रिवाज भी उठा लिये। फिर इधर प्रचार माध्यम भी बाजार से प्रतिबद्ध रहा है सो कुछ चित्रकार आड़ी तिरछी रेखाओं के कारण लोकप्रिय बनाये गये हैं। ऐसे ही वह चित्रकार है जिन्होंने भारतीय देवी देवताओं के बारे में मजाक उड़ाने वाले चित्र बनाये। इन चित्रों के बारे में शायद किसी को पता ही नहीं चलता अगर कथित रूप से उनके विरोधियों ने उसका प्रचार नहीं किया होता। फिर विरोधियों के विरोधी उनके समर्थक नहीं हो गये होते। कभी कभी तो लगता है कि यह एक प्रायोजित विवाद है जिसे लोगों को मानसिक रूप से व्यस्त रखने के लिये ही समय समय पर उठाया जाता है। वह चित्रकार खाड़ी के एक देश में गये हैं जो बहुत छोटा है पर जहां माया बरसती है।
एक मजे की बात यह है कि हमें उनके चित्र उनके विरोधियों ने ही दिखाये हैं इसका मतलब यह कि अगर वह नहीं दिखाते तो हम देख ही नहीं पाते। दूसरी बात यह कि वह ऐसे देश में गये हैं जहां अगर उन्होंने वहां के महापुरुषों पर कहीं ऐसे चित्र बनाये तो फिर उनका क्या हश्र होगा, यह कहना कठिन है।
अब अनेक बुद्धिजीवी उनके वापस आने की बात कह रहे हैं। अनेक बुद्धिजीवी स्यापा कर परंपरवादी लोगों को कोस रहे हैं। इधर परंपरावादी लोग भी उनकी वापसी पर नाराज न होने की बात कह रहे हैं। सवाल यह है कि एक मामूली चित्रकार-कहने को स्वतंत्र है पर यकीनन वह दूसरों के कहने पर ही चित्र बनाते हैं ऐसा भी पता लगा-पर इतना बवाल क्यों? यह समझ में परे है। हम न तो उनके समर्थक न विरोधी क्योंकि हमने देखा है कि अनेक चित्रकार और लेखक अपनी कुंठाओं के साथ जीते हैं और उनकी रचनाओं में कलुषिता का भाव दिखाई देता है। अपनी रचना या चित्र के साथ आनंद उठाने वाले बहुत कम हैं क्योंकि वह उसे बेच कर दूसरों को आनंदित करने के लिये परिश्रम करते हैं।
आखिरी बात उनके समर्थक और विरोधी दोनों के लिये। हमने अध्यात्मिक पुस्तकों का अध्ययन करते हैं तो उससे पता चलता है कि भले ही देवताओं को न माने पर उनका न तो अपमान करें और न ही मजाक उड़ायें वरना वह कुपित होकर दंड देते हैं। याद रखिये विश्व के भूगर्भशास्त्री कहते हैं कि भारत में जलस्तर सबसे ऊंचा है और ऐसा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। यह जल ही जीवन है जो प्राणवायु का संचार भी करता है। अपने देश में इंद्र, वायु, अग्नि तथा अन्य देवताओं की पूजा होती है इसलिये प्रकृति की कृपा भी यहीं है जिसकी वजह से अपने यहां भगवान अवतार लेकर यहां का उद्धार करते हुए अध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार भी करते हैं। इस कारण भारत विश्व में अध्यात्म गुरु भी माना जाता है। ऐसा देश छोड़कर एक ऐसे देश में रहना जहां अकेले तेल देवता की-अब भारत में पेट्रोल की खपत बढ़ गयी है इसलिये कभी कमी न हो इसलिये उनको भी ऐसी मान्यता देते हैं-कृपा हो, वहां उनका बसना हमें दंड से कम नहीं लगता। यह तेल देवता बेजान गाड़ियां कुछ देर खींच सकता है पर जल एवं वायु की तरह हमेशा सहजता से सभी जगह उपलब्ध नहंी रहता। फिर सुनने में आया है कि उन्होंने मां सरस्वती का भी विकृत चित्र बनाया था जो कि मनुष्य की बुद्धि की स्वामिनी है। ऐसे में अगर अब उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी जो इतना हरा भरा विशाल देश छोड़कर एक छोटे देश में बसाहट कर ली तो कहना चाहिये कि देवताओं ने एक तरह से उनको सजा दी है। ऐसे में उनके समर्थक या विरोधी उनका नाम ले लेकर खाली पीली बहसें कर रहे हैं। उनका नाम लेने की बजाय बुद्धिमान लोग देवताओं का नाम लें तो अच्छा है क्योंकि इधर पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है और देवताओं को प्रसन्न किये बिना उसमें सुधार नहीं आने वाला। वैसे चिंता की बात नहीं है। आम भारतीय देवताओं की आराधना करता रहता है और इसलिये आशा है कि देवता अधिक प्रसन्नता दिखाते हुए यहां जल और वायु की प्रचुरता बनाये रखेंगे। आम आदमी की आड़ में बुद्धिजीवी सुरक्षित हैं इसलिये उनको इसका आभास नहीं है कि देवताओं का प्रकोप कैसा होता है? जिसकी दुर्गति करनी हो उसकी पहले ऐसे ही बुद्धि हर लेते हैं और फिर आदमी स्वयं ही ऐसा कदम उठाता है कि उसे शत्रु के रूप में इंसान की आवश्यकता ही नहीं होती। कमबख्त इतना लिख लिया पर उस चित्रकार का नाम हमें याद नहीं आया। इसकी जरूरत भी क्या है? अपने देश के बुद्धिजीवी कोई दूसरा खड़ा कर लेंगे। ऐसी कहानियां    तो बनती रहेंगी। उसके नायकों और खलनायकों पर भी यह लेख फिट हो जायेगा। पता नहीं हम गलत हैं या सही पर अपने बौद्धिक शोध से हमें ऐसा ही लगता है कि अपने कर्म आदमी का पीछा करते हैं और बुरे होने पर दंड से कोई बचा नहीं सकता।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Sunday, March 7, 2010

प्रायोजित सनसनी-हिन्दी व्यंग्य कविता (sporsard story-hindi satire poem)

वस्त्रों के रंगों से चरित्र की पहचान
कभी नहीं होती है,
पद का नाम कुछ भी हो
इंसानों से निभाये बिना
उसकी कदर नहीं होती है।
जोगिया पहनकर करते जिस्म का व्यापार
जोगी धन जुटाने का कर रहे चमत्कार,
जब पोल सामने आये
जयकारा बोलने वालों के मुख से भी
हाहाकार की आवाज बुलंद होती है।
कहें दीपक बापू
बाजार और प्रचार के हाथों में है
सारा खेल,
कब सजाये स्वयंवर
कब निकाल दें तेल,
खड़े किये हैं
फिल्म, खेल, और धर्म में बुत
जो दिखते इंसान हैं,
फैलायें जो भ्रम वह कहलाते महान
सनसनी बिकवा दें वही शैतान हैं,
लगता है कभी कभी
पहले जिनका पहले नायक बनाने के लिये
करते हैं प्रायोजन,
छिपकर पेश करते हैं
सुंदर देह और भोजन
करवाते हैं शुभ काम,
चमकाते हैं उसका नाम,
फिर पोल खोलकर
अपने लिये उनको खलनायक सजाते हैं,
जिन तस्वीरों पर सजवाये थे फूल
उन पर ही पत्थर बरसाते हैं,
कुछ कल्पित, कुछ सत्य कहानियां
प्रायोजित लगती हैं
जिन पर जनता कभी हंसती कभी रोती है।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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