सुनने में आया है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध कहीं जनयुद्ध शुरु हो गया है। बड़े बड़े नाम हैं जो इस युद्ध की अगुआई कर रहे हैं। ऐसे नामों की छबि को लेकर कोई संदेह है क्योंकि वह स्वच्छ है। कुछ विद्वान हैं तो कुछ कानूनविद! हम यहां कि इस जनयुद्ध के सकारात्मक होने पर संदेह नहीं कर रहे पर एक सवाल तो उठायेंगे कि कहीं यह अभियान भी तो केवल नारों तक ही तो नहीं सिमट जायेगा?
विश्व प्रसिद्ध योग शिक्षक बाबा रामदेव के व्यक्त्तिव को कोई चुनौती नहीं दे सकता पर उनके चिंतन की सीमाओं की चर्चा हो सकती है। श्रीमती किरण बेदी की सक्रियता प्रसन्नता देने वाली है पर सवाल यह है कि वह भ्रष्टाचार का बाह्य रूप देख रही हैं यह उसका गहराई से भी उन्होंने अध्ययन किया है। बाबा रामदेव योग के आसन सिखाते हैं मगर उनके परिणामों के बारे में वह आधुनिक चिकित्सकीय साधनों का सहारा लेते हैं। सच बात तो यह है कि बाबा रामदेव योग आसन और प्राणायाम जरूर सिद्धहस्त हैं पर उसके आठों अंगों के बारे में में पूर्ण विद्वता प्रमाणिक नहीं है। फिर भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनयुद्ध प्रारंभ करने वाले महानुभावों को साधुवाद! उनकी प्रशंसा हम इस बात के लिये तो अवश्य करेंगे कि वह इस देश में व्याप्त इस निराशावाद से मुक्ति दिलाने में सहायक हो रहे हैं कि भ्रष्टाचार को मिटाना अब संभव नहीं है।
सवाल यह है कि भ्रष्टाचार समस्या है या समस्याओं का परिणाम! इस पर शायद बहस लंबी खिंच जायेगी पर इतना तय है कि वर्तमान व्यवस्था में भ्रष्टाचार अपनी जगह बनाये रखेगा चाहे जितने अभियान उसके खिलाफ चलाये जायें। मुख्य समस्या व्यवस्था में है कि उससे जुड़े लोगों में, इस बात का पता तभी लग सकता है जब एक आम आदमी के चिंतक के रूप में विचार किया जाये।
जो विद्वान भ्रष्टाचार को मिटाने की बात करते हैं तो वह भ्रष्ट तत्वों को पकड़ने या उनकी पोल खोलने के लिये तैयार हैं मगर यह हल नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि हम अपने राज्य, समाज, परिवार तथा समाजसेवी संस्थाओं की संचालन व्यवस्था को देखें जो अब पूरी तरह पश्चिम की नकल पर चल रही है। ऐसा नहीं है कि कभी कोई राज्य भ्रष्टाचार से मुक्त रहा हो। अगर ऐसा न होता तो हम अपने यहां राम राज्य के ही सर्वोत्तम होने की बात स्वयं मानते हैं। इसका आशय यह है कि उससे पहले और बाद की राज्य व्यवस्थायें दोषपूर्ण रही हैं। इसके बावजूद भारतीय राज्य व्यवस्थाओं में राजाओं की जनता के प्रति निजी सहानुभूति एक महत्वपूर्ण पक्ष रहा है। इसमें राजा भले ही कोई कैसे भी बना हो वह प्रजा के प्रति निजी रूप से संवेदनशील रहता था-कुछ अपवादों को छोड़ना ही ठीक रहेगा। आधुनिक लोकतंत्र में भले ही राजा का चुनाव जनता करती हो पर वह निजी रूप से संवेदनशील हो यह जरूरी नहीं है। राज्य कर्म से जुड़ने वाले जनता का मत लेने के लिये प्रयास करते हैं। इस दौरान उनका अनाप शनाप पैसा खर्च होता है जो अंततः धनवानों से ही लिया जाता है जिनको राजकीय रूप से फिर उपकृत करना पड़ता है। उनको अपनी कुर्सी जनता की नहीं धन की देन लगती है। बस, यहीं से भ्रष्टाचार का खेल प्रारंभ हो जाता है।
अब जो देश की स्थिति है उसमें हम आधुनिक लोकतंत्र से पीछे नहीं हट सकते पर व्यवस्था में बदलाव के लिये यह जरूरी है कि राज्य पर समाज का दबाव कम हो। यह तभी संभव है जब समाज की सामान्य व्यवस्था में राजकीय हस्तक्षेप कर हो। सबसे बड़ी बात यह है कि हमें अपना पूरा संविधान फिर से लिखना होगा। पहले तो यह निश्चय करना होगा कि जो अंग्रेजों ने कानून बनाये उनको पूरी तरह से खत्म करें। अंग्रेजों ने हमारे संविधान के कई कानून इसलिये बनाये थे जिससे कि वह यहां के लोगों को नियंत्रण में रख सकें। वह यहां के समाज में दमघोंटू वातावरण बनाये रखना चाहते थे जबकि उनका समाज खुले विचारों में सांस लेता है। उनके जाने के बाद भारत का संविधान बना पर उसमें अंग्रेजों के बनाये अनेक कानून आज भी शामिल हैं। सीधी बात कहें तो यह कि समाज में राज्य का हस्तक्षेप कम होना चाहिये। भारतीय संविधान की व्यवस्था ऐसी है कि उसकी किताबों की पूरी जानकारी बड़े बड़े से वकील को भी तब होती है जब संबंधित विषय पर पढ़ता है। उसी संविधान की हर धारा की जानकारी आम आदमी होना अनिवार्य माना गया है। अनेक प्रकार के कर जनता पर लगाये गये हैं पर राजकीय संस्थाओं के लिये आम जनता के प्रति कोई दायित्व अनिवार्य और नियमित नहीं है। केंद्रीय सरकार को जनता के प्रति सीधे जवाबदेह नहंी बनाया जा सकता। कुछ हद तक राज्य की संस्थाओं को भी मुक्ति दी जा सकती है पर स्थानीय संस्थाओं के दायित्वों को कर वसूली से जोड़ा जाना चाहिये। इतना ही स्थानीय संस्थाओं में कार्यरत अधिकारियों और कर्मचारियों की जनता के प्रति सीधी जवाबदेही तय होना चाहिये। प्रशासनिक व्यवस्थाओं से अलग जनसुविधाओं वाले विभागों को-स्वास्थ्य, शिक्षा तथा परिवहन-जनोन्मुखी बनाया जाना न कि धनोन्मुखी।
सबसे बड़ी बात यह है कि सभी प्रकार के करों की समीक्षा कर उनकी दरों का मानकीकरण होना चाहिये। जनता से सीधे जुड़े काम होने की निर्धारित अवधि तय की जाना चाहिये-इस मामले में हाल ही में मध्यप्रदेश सरकार के उठाये गये कदम प्रशंसनीय है। कहने का अभिप्राय यह है कि जब लोकतंत्र है तो सरकार की शक्ति को लोगों से अधिक नहीं होना चाहिये। आखिरी बात यह कि भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिये वर्तमान व्यवस्था में बदलाव की बात सोची जानी चाहिये। यह भारी चिंतन का काम है पर इसके बिना काम भी नहीं चलने वाला। खाली नारे लगाने से कुंछ नहीं होगा।
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