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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Friday, January 27, 2017

धोखे की हांडी-हिन्दी व्यंग्य कविता (Dhokkhe ki Handi-HindiVyangyakavita

सामान से भरी बंद बोरी
सौदागर मूंह मांगे दाम
बेच जाते हैं।

सपनों के खरीददार
जेब खाली करते
खोलने पर कबाड़ पाते हैं।

कहें दीपकबापू आग पर
धोखे की हांडी चढ़ती देखी
हमने कई बार
वह रोज मालिक बदलती
हम कहां ताड़ पाते हैं।
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