तन्हाई से डर लगता है
इसलिये भीड़ में जाते हैं।
दीपक बापू मत पूछो किसी का दर्द
लोग उसे शर्म से छिपाते हैं।
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शब्द हो या चित्र बाज़ार में बिकते हैं,
अभद्रता ज्यादा हो तो ही टिकते हैं।
‘दीपकबापू’ हंसते रोने वालों पर
शुल्क लेकर आंसु भी लिखते हैं।
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बिठाया उनको अपने सिर आंखों पर,
उम्मीद थी लायेंगे खुशियां हमारे घर।
‘दीपकबापू’ खड़े सुन रहे उनका ज्ञान
विकास की चिंता से जुड़ा तबाही का डर।।
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यह हवा पानी रोज मिलते हैं,
सूरज चांद रौशनी के साथ खिलते हैं।
‘दीपकबापू’ अकेलेपन रोने वाले
भीड़ में सांस लेते हुए पिलते हैं।
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अपने चालचलन से स्वयं डरे हैं,
दिल में काली नीयत भी भरे हैं।
‘दीपकबापू’ किसी का हिसाब देखें नहीं,
सभी आंखो में मरी चेतना भरे हैं।
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जमीन पर गिरा मनोबल स्वयं उठाते,
दिल बहलाने का सामान भी जुटाते।
‘दीपकबापू’ देखते खड़े चौराहे पर
भीड़ में लोग अपने ही दर्द लुटाते।।
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सेवा करते सेवक से
स्वामी हो गये श्रीमान्।
‘दीपकबापू’ बेबसी बेचते हुए
बाहूबली हो गये श्रीमान्।।
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सपना छोड़कर सच साथ रखते
सौदागर मन बांधकर नहीं ले जाता।
‘दीपकबापू’ पांव रखते धरती पर
कोई गिद्ध टांगकर नहीं ले जाता ।
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