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Monday, June 30, 2008

बांट लेते हैं रौशनी भी-हिंदी शायरी


कभी तृष्णा तो कभी वितृष्णा
मन चला जाता है वहीं इंसान जाता
जब सिमटता है दायरों में ख्याल
अपनों पर ही होता है मन निहाल
इतनी बड़ी दुनिया के होने बोध नहीं रह जाता
किसी नये की तरह नजर नहीं जाती
पुरानों के आसपास घूमते ही
छोटी कैद में ही रह जाता

अपने पास आते लोगों में
प्यार पाने के ख्वाब देखता
वक्त और काम निकलते ही
सब छोड़ जाते हैं
उम्मीदों का चिराग ऐसे ही बुझ जाता

कई बार जुड़कर फिर टूटकर
अपने अरमानों को यूं हमने बिखरते देखा
चलते है रास्ते पर
मिल जाता है जो
उसे सलाम कहे जाते
बन पड़ता है तो काम करे जाते
अपनी उम्मीदों का चिराग
अपने ही आसरे जलाते हैं जब से
तब से जिंदगी में रौशनी देखी है
बांट लेते हैं उसे भी
कोई अंधेरे से भटकते अगर पास आ जाता
....................................

दीपक भारतदीप

2 comments:

Anonymous said...

अपने पास आते लोगों में
प्यार पाने के ख्वाब देखता
वक्त और काम निकलते ही
सब छोड़ जाते हैं
उम्मीदों का चिराग ऐसे ही बुझ जाता
कई बार जुड़कर फिर टूटकर
अपने अरमानों को यूं हमने बिखरते देखा
bhut khub.ati uttam.

Udan Tashtari said...

बहुत खूब कहा है, दीपक बाबू. लगे रहिये.

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