कहीं लगी आग है
कहीं बरसती बहार
कहीं है खुशी खेलती
कहीं गम करते प्रहार
शोक मनाओ
मूंह फेर जाओ
जीवन के पल तो गुजरते जाना है
जो दिल को तकलीफ दें
मत उठाओ उन यादों का भार
धरती बहुत बड़ी है
जबकि जिंदगी छोटी
कभी हादसे होते सामने
कभी लग जाती है हाथ मिल्कियत मोटी
धरती के कुछ टुकडों पर बरसती आग
तो बर्फ बिखेरती शीतलता का राग
जो छोड़ जाते दुनिया
उनका शोक क्यों करते
जो जिंदा है उनकी कद्र करो
कभी कभी आसमान से बरसा कहर
शब्दों को सहमा देता है
पर फिर भी समझना नहीं उनकी हार
दिखलाते है बहुत लोग तस्वीरें बनाकर
सभी को सच समझना नहीं
उनके पीछे छिपा होता है
दूसरा सच कहीं
कदम कदम पर बिखरा है प्रायोजित झूठ
तस्वीरें के पीछे देखे बिना
अपनी राय कायम करना नहीं
बिकते हैं बाजार में जज्बात
इसलिये जोड़ी जाती है उनसे हर बात
गुलाम बनाने के लिये
आदमी को पकड़ने की बजाय
उसके दिमाग पर किया जाता है घात
रची जाती है हर पल यहां
दर्द की नयी दास्तान
गिराया जाता है कोई न कोई छोटा आदमी
किसी को बनाने के लिये महान
कई हकीकतें हमेशा कहानियां नहीं बनतीं
पर कहानियां कई बार हकीकत हो जाती
जज्बात के सौदागरों का क्या
कभी दर्द तो कभी खुशी
उनके लिये बेचने की शय बन जाती
आखों से देखा
कानों से सुना
हाथों से छुआ भी झूठ हो सकता है
अगर अपनी सोच में नहीं गहराई तो
वाद और नारों का जाल में
किसी का दिमाग भी उलझ सकता है
जितना बड़ा है विज्ञान
उतना ही भ्रमित हुआ ज्ञान
इस जहां में हो गये हैं धोखे अपार
अपनी आंखों से सुनना
कानों से भी खूब सुनना
छूकर हाथ से देख लेना
पर अपने जज्बातों पर रखना काबू
नहीं आये किसी के बहकावे में
तो कुछ लोग अभिमानी कहेंगे कहेंगे
सवाल पूछोगे तो
शोर मचाने वाली कहानी कहेंगे
पल भर में टूटते और बनते लोगों के ख्याल
किसी की सोच को आगे नहीं बढ़ाते
तस्वीरों की सच्चाई में वह खुद ही बहक जाते
दुनियां इतनी बड़ी है पर
थोड़ी दुर्गंध में घबड़ाते
और मामूली सुंगंध में लोग महक जाते
कभी हादसों से गुजरती तो
कभी खुशियों के साथ बहती यह जिंदगी
बहती हुई धारा है
आदमी बनते बिगड़ते हैं हर पल
वह रंग बदलती है बारबार
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
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