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Thursday, January 15, 2009

महानतम दिखाने के लिये-व्यंग्य

फिल्म,खेल,कला और साहित्य का कोई देश नहीं होता-ऐसा जुमला हमारे देश के मूर्धन्य बुद्धिजीवी और लेखक मानते हैं पर अवसर पाते ही वह इनसे देशभक्ति के जज्बात जोड़ने से बाज नहीं आते। यह अवसर होता है जब कोई पश्चिम से किसी को पुरस्कार या सम्मान मिलता है या नहीं मिलता है। मिल जाये तो वाह वाह हो जाती है। देश का गौरव और सम्मान बढ़ने पर प्रसन्नता व्यक्त की जाती है और न मिले तो पश्चिमी देशों की उन संस्थाओं को कोसा जाता है जो इनको प्रदान करती है।
असल में बात यह हुई कि अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद ने अब तक दुनियां के महानतम बल्लेबाजों की सूची जारी की उसमें पहले दस में कोई भारतीय खिलाड़ी शामिल नहीं है। अपने प्रचार माध्यम उस सूची को पहले बीस तक ले गये क्योंकि बीसवें नंबर पर भारत के महानतम बल्लेबाज सुनील गावस्कर का नाम है-1983 में जीते गये इकलौते विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता में वह भारतीय टीम के वह भी सदस्य था इसलिये उनकी महानता पर कोई संदेह नहीं है। बीस के बाद उनकी नजर 26 वें नंबर पर गयी जहां उस बल्लेबाज का नाम था जिसे भारतीय प्रचार माध्यम दुनियां के क्रिकेट का भगवान घोषित कर चुके हैं। हाय! यह क्या गजब हो गया। भारतीय प्रचार माध्यमों की हवा खराब हो गयी। इस देश की जनता का भ्रम टूट न जाये इसलिये उसे बनाये रखने के लिये उन्होंने बहस शुरु कर दी है और उस सूची को नकार ही दिया।

यह होना ही था। ईमानदारी की बात यह है कि ज्ञानी लोग खेल वगैरह में देशप्रेम जैसी बात जोड़ने का समर्थन नहीं करते। दूसरी बात यह है कि जिस भगवान के किकेट अवतार को भारतीय प्रचार माध्यम जिस तरह अपने व्यवसायिक मजबूरियों के चलते अभी तक ढो रहे हैं उसके खेल पर अपने देश में ही लोग सवाल उठाते हैं। इसमें भी एक मजेदार बात यह है कि जिन बीस भारतीय बल्लेबाजों के नाम है उनमें एक ही भारतीय है बाकी विदेशी है। इसलिये भारतीय लोग उस सूची को नकारने से तो रहे। वजह यह है कि इस देश के लोग यह जानते हुए भी कि ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं’ दूर के ढोलों पर ही अधिक यकीन करते हैं और यह प्रवृति प्रचार माध्यमों ने बढ़ाई हैं कमी नहीं की।

पहले 19 खिलाड़ी विदेशी महान होंगे इस बात पर इस देश के लोग यकीन कर लेंगे क्योंंकि वह देख रहे हैं कि जिस तरह इस देश के कथित कलाकार, खिलाड़ी, लेखक, पत्रकार तथा अन्य विशेषज्ञ विदेशी पुरस्कारों और सम्मानों के लिये मरे जाते हैं उस हिसाब से वहां योग्यता और तकनीकी के ऊंचे मानदंड होंगे। तय बात है कि 19 खिलाड़ी महान ही होंगे तभी तो उनको घोषित किया गया है। भारतीय प्रचार माध्यम क्रिकेट का गुणगान तो खूब करते हैं पर यह सच छिपा जाते हैं कि 1983 के बाद विश्व क्रिकेट के नाम यहां कुछ नहीं आया। फिर उनके ,द्वारा सुझाये गये महानतम बल्लेबाज की महानता का हाल यह है कि आजकल कई लोग चाहते हैं कि वह क्रिकेट से हट जाये मगर नहीं जनाब!

वह हर बार विश्व कप क्रिकेट कप का सपना दिखाता है पर वह पूरा नहीं होता। दावा यह है कि 19 साल से क्रिकेट खेल रहा है पर भई उसने कितने विश्व क्रिकेट जिताये मालुम नहीं। यह सही है कि महानतम की सूची में उस महानतम बल्लेबाज से पहले भी कई ऐसे बल्लेबाज हैं जिन्होंने अपने देश को विश्व कप नहीं जितवाया पर इसका दूसरा पक्ष यह भी कि उनमें अधिकतर के समय में विश्व कप होता भी नहीं था पर उन्होंने किकेट के विकास में वाकई उस समय योगदान दिया जब उसमें पैसा नहीं था। वैसे प्रचार माध्यम एक नहीं अपने तीन बल्लेबाजों के महानतम न होने पर नाराज है पर 26वें नंबर पर अपने अवतारी बल्लेबाज के होने पर अधिक बवाल मचा रहे हैं जिसका क्रिकेट के विकास में नहीं बल्कि उसके दोहन में अधिक योगदान रहा है।
यार, यहां भी इतने पुरस्कार मिलते हैं पर अपने देश के गुणी लोगों को पता नहीं वह हमेशा छोटे नजर आते हैं। हमारे यहां हर साल ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाता है पर प्रचार माध्यम उसका समाचार देकर फिर मूंह फेर लेते हैं पर अगर अमेरिका की कोई संस्था- जिसका नाम तक हम लोग नहीं जानते-अगर किसी को मिल जाये तो बस वह यहां भगवान बना दिया जाता है।

इसका परिणाम यह हुआ है कि जिन संस्थाओं को अपना नाम इस देश में नाम करना होता है वह यहां के किसी ऐसे अज्ञात आदमी को पुरस्कार देती है जिसने अपने जीवन में एकाध कोई किताब लिखी हो। हमारे यहां जिन लोगों को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलता है उन्होंनें कई किताबें लिखी होती हैं पर उनको प्रचार माध्यम पहचानते तक नहीं पर कोई एक पुस्तक लिखकर विदेश से पुरस्कार प्राप्त कर ले तो उसे बरसों तक ढोते हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि जोकरों को पुरस्कार मिला हो। विदेशों से पुरस्कार विजेता तो ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे कि वह हर विषय में जानते हों। कई बार तो वह अपने देश के संवदेनशीन मामलों में ऐसे बोलते हैं जैसे कि देश के विरोधी बोल रहे हों। तब यह भी संदेह होता है कि कहीं ऐसे लोगों को बकवास करने के लिये ही तो कहीं इस आश्वासन पर तो विदेशों में सम्मान या पुरस्कार नहीं दिये जाते कि अपने देश के लोगों को भावनात्मक रूप से आहत करते रहना।

हिंदी फिल्मों का हाल देखिये। विदेशी पुरस्कारों के लिये सभी दौड़ते फिरते हैं। हालत यह है कि अगर कहीं फिल्म पुरस्कार के नामांकित हो जाये तो उसका जीभर के प्रचार कर लिया जाता है जैसे कि वह मिल ही गया हो-हालांकि यह उनको पता होता है कि वह नहीं मिलेगा शायद इसलिये प्रचार की सारी कसर नामांकन से इनाम बंटने की बची की अवधि में ही कर लेते हैं। इन हिंदी फिल्म वालों से पूछिये कि जब हिंदी फिल्मों या टीवी सीरियलों के लिये इनाम वितरण होता है तब क्या देश की गैर हिंदी फिल्मों को कभी वह इनाम देते हैं जैसा कि वह अमेरिका में अंग्रेजी फिल्मकारों के बीच सम्मान चाहते हैं। सच तो यह है कि हमारे देश के दक्षिण भाषी फिल्मकारों की बनी अनेक फिल्मों का हिंदी में पुर्नफिल्मांकन प्रस्तुत किया जाता है जो बहुत सफल रहती हैं। दक्षिण का फिल्म उद्योग हिंदी से तकनीकी,कला,कहानी,संगीत और पटकथा में अधिक सक्षम माना जाता है। फिर भी कभी आपने सुना है कि किसी दक्षिण भारतीय फिल्म को हिंदी फिल्म समारोह में कभी देश सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित किया गया हो। अपनों को सम्मान देने की बजाय दूसरों से इनाम पाने की चाहत ने गुणीजनों को पतन की गर्त में पहुंचा दिया है। सच तो यह है कि दक्ष हिंदी के लेखकों से तारतम्य के अभाव में हिंदी फिल्म उद्योग पैसा होते हुए भी लाचारगी की की स्थिति में हैं और उसकी अधिकांश फिल्में हालीवुड या दक्षिण भारतीय फिल्मों की नकल होती है। अपने ही हिंदी भाषी लेखकों,कलाकारों,गायकों, और संगीतकारों को कभी प्रोत्साहित न करने वाले हिंदी फिल्म उद्योग को विदेशों में सम्मान की आशा करना ही हास्यास्पद लगता है।

जी हां, सच यही है कि महानतम उस आदमी को कहा जाता है जो न केवल अपने जीवन में सफलता प्राप्त करे बल्कि दूसरों को भी ऐसी सफलता पाने में योगदान दे। भारत में एक ही महानतम क्रिकेट खिलाड़ी हुआ है वह कपिल देव क्योंकि उसके नाम पर एक विश्व कप हैं। हमारे महानतम हाकी खिलाड़ी स्व. ध्यानचंद के बाद वही एक लगते हैं महान जैसे। स्व. ध्यानचंद जी इसलिये महान नहीं थे कि हिटलर उनसे प्रभावित हुआ था बल्कि उन्होंने भारत को ओलंपिक में स्वर्ण पदक जितवाया था इसलिये महान कहे गये। इतना ही नहीं वह अपने खेल से अपनी टीम को प्रेरणा देते थे। सो प्रचार माध्यम यह समझ लें कि वह जिन खिलाडि़यों के महानतम न होने पर विलाप कर रहे हैं उस पर देश के लोगों की हमदर्दी उनके साथ नहीं है बल्कि उनके कार्यक्रम एक लाफ्टर शो की तरह दिख रहे हैं। वह अपने बताये माडलों को विश्व का महानतम बताने के लिये जूझ रहे हैं और यह पश्चिम वाले हैं गाहे बगाहे उन पर आघात कर जाते हैं।
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कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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1 comment:

अक्षत विचार said...

अपनी महानता का सार्टिफिकेट हमें विदेशियों से नही चाहिये। विदेशी प्रशंसा के पीछे भागने के कारण ही हमें इस प्रकार अपमानित होना पड़ता है। दरअसल कुछ लोग श्रेष्ठता की ऐसी ग्रंथि पाले बैठे हैं अगर कोई भारतीय उन्हें अपने से ज्यादा श्रेष्ठ लगता है तो उसे गिराने के प्रयास शुरु हो जाते हैं और इसमें व्यक्तियों से लेकर संस्थायें तक शामिल है।

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