उन महान शब्द ऋषि की मृत्यु की खबर ने स्तब्ध कर दिया। यह लेखक घर से बाहर अपने काम पर जाने की तैयारी कर रहा था। उसी समय टीवी पर यह खबर दिखाई दी। खबर यह थी कि‘अपने प्रिय खिलाड़ी के आउट होने के बाद भारतीय टीम की हार का सदमा उनसे सहन नहीं हुआ।’
मन ही मन यह शब्द फूट पड़े‘हे शब्द ऋषि! आप तो सत्य के अन्वेषण करने वाले तपस्वी थे फिर कहां इस मिथ्या खेल में मन फंसाये बैठे थे।’
एक तरफ उनके निधन का दुःख और दूसरा क्रिकेट के प्रति उनके लगाव पर आश्चर्य एक साथ हो रहा था। ऐसे में अधिक शब्द नहीं सूझ पाये।
इस हिंदी भाषा में अनेक पत्रकार आये और गये पर जिसने आजादी के बाद एक हिंदी पत्रकार के रूप में अकेले ख्याति अर्जित की तो उसमें वही एक व्यक्ति थे। कहने को तो अनेक प्रकाशक ही अपना नाम संपादक के रूप में लिखते हैं। इसके अलावा अधिकतर समाचार पत्र अंग्रेजी के लेखकों के अनुवाद कर उनको हिंदी में प्रतिष्ठित करते हैं इसलिये हिंदी में एक प्रतिष्ठित और ऐतिहासिक पत्रकार बनना हरेक के बूते नहीं होता। केवल हिंदी के दम पर महान पत्रकार का दर्जा केवल उन्हीं महर्षि को ही दिया जा सकता है क्योंकि उनका लिखा अनुवाद के माध्यम से नहीं पढ़ा गया।
एक गैरपूंजीपति पत्रकार हमेशा अपना जीवन एक सामान्य आदमी की तरह व्यतीत करता है और उन्होंने भी यही किया। लिखने में जब विशिष्टता प्राप्त होती है तब आदमी अत्यंत सहज हो जाता है। उसे अपनी विशिष्टता का अहंकार नहीं आता क्योंकि उसे एक के बाद दूसरी रचना करनी होती है।
वह शब्द ऋषि एक आदमी की तरह जिया। इस लेखक से कभी उनकी मुलाकात नहीं हुई पर उनके अनेक लेख पढ़े। क्या गजब की लेखनी थी? हर पंक्ति में अपना अर्थ था। उनकी भाषा शैली की नकल अनेक पत्रकार करने का प्रयास करते हैं। लंबें चैड़े वाक्यों में हिंदी के आकर्षक शब्दों का प्रयोग करने की शैली को कोई दूसरा छू नहीं पाया पर कुछ लोग कोशिश करते हैं पर जो पढ़ने वाले जानते हैं उनका स्तर कितना ऊंचा था।
फिर क्रिकेट जैसे खेल में उनका मन कैसे फंसा। वह खेल प्रेमी थे। अपने ही अखबारों में क्रिकेट के संबंध में समय समय पर जो प्रतिकूल छपता है क्या वह पढ़ते नहीं थे? हमने तो उनका अखबार पढ़ते ही पढ़ते क्रिकेट देखा और फिर देखना कम कर दिया। किसी पर यकीन नहीं है। किसी क्रिकेट खिलाड़ी में लगाव नहीं है। हार जीत के समाचार जबरन सामने आते हैं तो देख लेते हैं। जिस मैच को देखने के बाद उनके दिल ने साथ छोड़ा उसकी खबर हमने उनके परमधाम गमन के साथ ही सुनी।
संभव है कि जान बूझकर इसका प्रचार किया गया हो कि देखो कैसे इस देश में जुनून की तरह माना जाता है-हालांकि मैच के समय जिस तरह पहले सड़कों पर इसकी चर्चा देखते थे अब नहीं दिखती । एक तरह से संदेश होता है कि अगर आप क्रिकेट नहीं देखते तो इसका मतलब है कि आप युवा नहीं है-जैसे कि क्रिकेट कोई सैक्सी खेल हो।
बहरहाल उन शब्द ऋषि के देहावसान की खबर ने दुःख तो दिया पर सच बात तो यह है कि एक दिन यह सभी के साथ होना है। फिर हम कहें कि क्रिकेट की वजह से यह हुआ-गलत होगा। सत्य के अन्वेषक एक ऋषि का दिल एक मैच से टूट जाये यह संभव नहीं है। मृत्यु के लिये कोई न कोई बहाना तो बनता ही है।
इतने सारे मैच भारत हारा। सच तो यह है कि अनेक लोग तो पक गये हैं कि जीतने पर ही यकीन नहीं करते। जिसने मैच न देखा हो उसे कसम खाकर बताना पड़ता है कि भारत मैच जीत गया। उनका जो प्रिय खिलाड़ी है तो उसका कहना ही क्या? ढेर सारे रिकार्डों से लोग खुश जरूर होते हैं पर टीम कभी विश्व नहीं जीत सकी। केवल एक मैच की वजह से उनका दिल टूटेगा यह संभव नहीं हो सकता। जो आदमी जितनी सांसे लिखवाकर लाया है उतनी ही ले पायेगा।
अलबत्ता क्रिकेट वह शौकीन जो बड़ी उम्र के हैं उनको अब इसे देखना बंद करना चाहिये। कुछ लोग इसे देखते हुए ही वृद्ध हो गये हैं पर फिर भी उनका दिल मानता नहीं है। जिन लोगों ने यकीन कम होने के कारण क्रिकेट देखना बंद कर दिया है वह बहुत आराम अनुभव करते हैं। वरना पहले जब भारत हारता था तो अनेक लोगों का सदमे से सारा शरीर सुन्न हो जाता था। सारा दिन मैच आंखें लगाकर देखा और जब भारत हार गया तो बाहर जाने पर ऐसा लगता था कि नरक से बाहर आये हैं। सुबह मैच हो तो रात को नींद नहीं आती थी। वह तो भला उस भारतीय खिलाड़ी का जिसने पाकिस्तानी खिलाड़ी द्वारा इसके काले पक्ष को उजागर करने के बाद उसका समर्थन किया जिससे अनेक क्रिकेट प्रेमियों की आंखें खुल गयीं। इधर हम यह भी देखते हैं कि भारत पाकिस्तान के बीच अन्य विषयों पर भले ही दुश्मनी हो पर क्रिकेट के विषय पर एका दिखता है। इससे हमें क्या? लब्बोलुआब यह कि क्रिकेट एक पैसे का खेल है जिसमें आगे पैसा, पीछे पैसा, नीचे पैसा, ऊपर पैसा, दायें पैसा, बायें पैसा यानि हर बात में पैसा है।
उन शब्द ऋषि जैसा हम तो नहीं लिख सकते पर उन जैसे हमारे गुरु भी थे। उनके परमधाम गमन के समय हमें अपने गुरुजी की भी याद आयी। वही हमसे कहते कि क्रिकेट गुलामों का खेल है। सच तो यह है कि हमारा मन भर आया था। लोग रोये भी होंगे पर सोच रहे थे कि ‘क्या यह सच नहीं है कि आजादी के बाद वही ऐसे एकमात्र शख्स रहे हैं जिन्होंने पत्रकार के रूप में बिना धन लगाये केवल शब्दों के सहारे ख्याति अर्जित की। उनको नमन करने का मन करता है क्योंकि वह भी हमारे लेखन के प्रेरक रहे थे।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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