गुजरात के एक शहर में एक दिलचस्प समाचार टीवी चैनल पर देखने को मिला। वहां एक मंदिर निर्माण में धन जुटाने के लिये नृत्य और संगीत का कार्यक्रम आयोजित किया गया ताकि उससे मिलने वाली राशि से सर्वशक्तिमान को अनुग्रहीत किया जा सके। खबर देखकर तो हंसी आ गयी। वहां कार्यक्रम देखने के लिये अनेक लोग आये पर वह इतनी कम देर चला कि उससे अपने को ठगा अनुभव कर रहे अनेक दर्शक नाराज हो गये और उन्होंने कुर्सियां तोड़ डाली। इस धर्म और मनोरंजन के बीच रिश्ता देखकर बहुत सारे ख्याल मन में आये।
कार्ल मार्क्स की बहुत सारी बातें हमारे समझ में नहीं आती पर उसने जो कहा है कि धर्म एक अफीम की तरह है उसमें कोई शक नहीं है। मगर कार्ल मार्क्स ने कहा है कि दुनियां का सबसे बड़ा सच रोटी है, यही कारण है कि उसका कोई चेला इस बात पर यकीन नहीं करता कि जिसने पेट दिया है वह भोजन भी देता है। इसलिये सभी गरीबों और मज़दूरों को रोटी दिलाने में लगे हैं। मगर सत्य रोटी नहीं जीवन है जो कि अपनी गति से इस धरती पर विचरण करता है भले ही जीव पैदा होने के साथ ही मरते हैं भी हैं पर सभी भूखे नहंी मरते।
अलबत्ता अगर कार्ल मार्क्स भारत आया होता तो वह अनेक अन्य सत्य भी जान जाता। इस देश में रोटी के साथ ही स्वाद भी बड़ा सत्य है। लोग रोटी से अधिक स्वाद पर अपना ध्यान रखते हैं। रोटी पेट भरने के लिये नहीं पेट भरने को ही जीवन मानते हैं। पेट भर कर उनका मन मनोरंजन की तरह भागता है और यह मनोरंजन भी कहीं इतना बड़ा सत्य बन जाता है कि रोटी को भी आदमी भूलकर उसमे मस्त रहता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि गरीबी से जूझ रहे इस देश में भूख से कम बल्कि भरपेट और गंदा खाने से लोग अधिक बीमार पड़ने के साथ ही मरते भी हैं। यही कारण है कि कार्ल मार्क्स के शिष्य तथा अनुयायी बरसों तक इस पूरे देश में भूखों और गरीबों के सहारे सत्ता का स्वाद चखने का सपना पाले रहे पर चंद इलाकों के अलावा कुछ हाथ नहीं आता। धर्म को अफीम मानने वाले इस गुरु के चेले आज की धर्मनिरपेक्षता का स्वांग रच रहे हैं और उसमें अब उनको अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच अपना सपना साकार होता दिखता है। इनमें कई तो सर्वशक्तिमान के एक दरबार ढहने पर अपना विलाप हर साल करते हैं। वैसे रोटी का सत्य ही केवल सत्य नहीं है। रोटी का स्वाद भी सत्य नहीं है। मनोरंजन भी सत्य नहीं है। उनके लिए सत्य केवल धर्मनिरपेक्षता है। बहुसंख्यक समाज के कुछ टुकड़े गरीबी, भुखमरी तथा बेकारी के नाम पर तो वैसे ही उनके साथ हो जाते हैं अब समूचा अल्पसंख्यक समाज भी हाथ आ जाये तो ही उनके सपने पूरे होंगे। यह अलग बात है कि बाबा रामदेव, आसाराम बापू तथा श्री रविशंकर जैसे संगठित धर्म प्रवर्तकों की धारा उसे पूरा होने देगी या नहीं क्योंकि देखा जा रहा है कि अपने धर्मों के पाखंड से उकताये भारतीय लोग एक नयी रौशनी योग तथा भारतीय अध्यात्म में ढूंढ रहे हैं।
इधर इन कार्ल मार्क्स के चेलों का सामना भारतीय धर्म रक्षकों से भी होता रहता है। शक है कि यह सब फिक्सिंग के तहत ही होता है। यह धर्म रक्षक भी वह हैं जो केवल मंदिरों के बनाने तक ही अपना अभियान रखते हैं। उनके लिए मंदिर बनाना ही धर्म निभाना है। ऐसा इसलिये कि मंदिर बनाने में ईंट, पत्थर, सीमेंट, लोहा, लकड़ी तथा अन्य सामान लगता है और उसकी खरीद में कमीशन बनने के साथ ही बाद में चढ़ावा भी आता है। गुजरात में तो धर्म की प्रवृत्ति बहंुत ज्यादा है। हमारे अध्यात्म के आधार स्तंभ भगवान श्रीकृष्ण ने वहीं अपना निवास बनाया था। आज भी अनेक बड़े संत वहीं के हैं। प्रसंगवश हम अनेक बार यह कह चुके हैं कि जिस तरह कमल कीचड़ में और गुलाब कांटों के बीच पनपता है उसी तरह हमारा अध्यात्म ज्ञान इसलिये ही सटीक है क्योंकि हमारे देश में अज्ञान का बोलबाला अधिक रहा है। दुष्टता में रावण और कंस जैसे प्रतापी शायद ही कहीं हुए जिनकी वजह से हम भगवान श्रीकृष्ण के साथ ही भगवान श्रीराम का नायकत्व हम अकेले ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लोग पहचान पाये। लोगों के मन में अज्ञान, लोभ, लालच तथा काम का ऐसा वास है कि वह उससे विरक्त होने पर अध्यात्म शांति के लिये भी उतनी तेजी से भागते हैं और फिर देश के चालाक धार्मिक ज्ञानी उनका दोहन करते हैं। ऐसा भी कहीं विश्व में अन्यत्र होता नहीं दिखता। जिस भारतीय योग को पूरा विश्व बरसों से मान रहा है उसकी मान्यता अब कहीं जाकर बाबा रामदेव के आकर्षण से बड़ी है। कोई येागी भी बिना युद्ध के महान बन सकता है, यही सोचकर योग की तरफ आम लोग आकर्षित हुए हैं। नतीजा यह है कि कहीं, हॉट योग, कहीं सैक्सी योग, कहीं नग्न योग तो कहीं हास्य योग भी होने लगा है। उसे एक नयी शैली में विक्रय वस्तु बना दिया है। मतलब धर्म कहीं न कहीं अफीम या व्यसन की तरह बिकने का काम करता ही है।
गुजरात में जिस जगह मंदिर बनाने के लिये आयोजन किया गया होगा उनकी ईमानदारी या बेईमानी पर हम सवाल नहीं उठा रहे बल्कि उनके चिंतन के तरीके पर ही अपनी राय रख रहे हैं जिसमें यह मान लिया गया है कि जिस तरह इस दुनियां में बिना गलत राह चले बड़ा आदमी नहीं बना जा सकता वैसे ही भगवान का मंदिर बनना भी संभव नहीं है।
हैरानी की बात है कि लोग दान देने की बजाय नृत्य और गीत के लिये पैसा खर्च कर आये-यकीनन उन्होंने सोचा होगा कि इस तरह हम धर्म का काम कर रहे हैं। अब दान लेना भी आसान नहीं रहा न! पहले अनेक स्थानों पर मंदिर बनाने या नवरात्रि और गणेश प्रतिमाओं की स्थापना को लेकर जबरदस्ती चंदा लेने के आरोप लगते थे। अब तो इस देश मे धर्मनिरपेक्षता मय वातावरण बना दिया गया है तो धार्मिक व्यवसायियों ने नृत्य और गीत के माध्यम से धन जुटाने के प्रयास शुरु किये हैं। कहीं गणेशोत्सव और नवरात्रि पर बाकायदा ऐसे कार्यक्रम हुए जिनमें भक्ति दिखावे की थी जिस पर मनोंरजन का लेबल चिपका दिया गया। मतलब भक्तों को अब दर्शक और श्रोता को चोला भी पहनाया जा रहा है।
हम यहां केवल इसके लिये शिखर पुरुषों को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। आम लोग भी कम नहीं है। वह भी चाहते हैं कि हम दर्शक और श्रोता की तरह लुत्फ उठायें पर दिखें भक्त की तरह! अध्यात्मिक ज्ञान के बिना यह समाज भटकाव की तरफ जा रहा है।
हम अगर भारतीय अध्यात्म ज्ञान की बात करें तो उसे समझने वाले यहां कितने हैं, यह तय करना कठिन है! वजह यह है कि आदमी के अंदर स्वयं अभिव्यक्त होने की भावना उसे अहंकार की तरफ ले जाती है और अहंकार नैतिक पतन की तरफ! बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि योगसाधना भी अगर नियमित की जाये तो वह व्यसन की तरफ चिपक जाती है यह अलग बात है कि वह खतरनाक नहीं है। ध्यान लगाने का अभ्यास हो जाये तो सारी दुनियां में चल रहे घटनाक्रम में स्वयं को देखने की इच्छा से आदमी विरक्त हो जाता है। मगर इससे यह फायदा होता है कि आपको कोई दूसरा संचालित नहंी कर सकता। भटकाव इसलिये नहीं होता क्योंकि अपना लक्ष्य हमेशा अपने पास रहता है जिसे हम कहते हैं मन की शांति! मनोरंजन कभी शांति नहीं देता बल्कि अपने साथ विकारों का ऐसा पिटारा ले आता है कि रात की नींद और दिन का चैन नहीं रह जाता। योग साधक भीड़ में इस बात का अहसास नहीं होने देता कि वह उससे अलग है पर होता तो है। धार्मिक तथा मनोंरजन के व्यवसायी इस कदर चालाक होते हैं कि वह आम इंसानों का अस्तित्व ही उससे अलग कर देते हैं पर योग साधक पर उनका जादू नहीं चलता। यही कारण है कि मनोरंजन और भक्ति को प्रथक रखने की कला वही जानते हैं। यह अलग बात है कि वह भक्ति में ही मनोरंजन करते हैं और बिना अध्यात्मिक ज्ञान के मनोरंजन को वह एक घटिया काम मानते हैं भले ही उसें सर्वशक्तिमान के लिये ढेर सारे निवेदन वाले गीत शामिल हों।
निष्कर्ष यही है कि जिस तरह इस संसार में कार्ल मार्क्स के अनुसार दो ही जातियां हैं एक अमीर और दूसरी गरीब! उसी तरह अपने देश में भी दो प्रकार के मनुष्य रहते हैं एक तो वह सच्चे भक्त हैं और दूसरे महा पाखंडी। मुश्किल यह है कि धर्म की ठेकेदारी अब विशुद्ध रूप से पाखंडियों के हाथ में आ गयी है जिनसे बचने की आवश्यकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय अध्यात्म के मूल तत्व अत्यंत प्रभावी हैं पर इसके लिये यह जरूरी है कि हम अपने धर्म ग्रंथों का स्वयं अध्ययन करें।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://dpkraj.blogspot.com
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