सभी इंसान स्वभाव से चिकने हैं, स्वार्थ के मोल हर जगह बिकने हैं।
‘दीपकबापू‘ फल के लिये जुआ खेलें, सत्संग में कहां पांव टिकने हैं।।
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सामानों के दाम ऊंचाई पर डटे हैं, समाज में रिश्तों के दाम घटे हैं।
‘दीपकबापू’ राख से सजाते चेहरा, अकेलेपन से दिल सभी के फटे हैं।।
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खुशी कहीं दाम से नहीं मिलती, सोचने से कभी तकदीर नहीं हिलती।
‘दीपकबापू’ दिल लगाया लोहे में, जहां संवेदना की कली नहीं खिलती।
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इंसानों ने जिंदगी सस्ती बना ली, ऋण का घृत पीकर मस्ती मना ली।
‘दीपकबापू’ ब्याज भूत लगाया पीछे, छिपने के लिये अंधेरी बस्ती बना ली।।
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संवेदनाओं को लालच के विषधर डसे हैं, दिमाग में जहरीले सपने बसे हैं।
‘दीपकबापू’ हंस रहे पराये दर्द पर, सभी इंसान अपने ही जंजाल में फसे हैं।।
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किसी की छवि खराब करना जरूरी है, प्रचार युद्ध में सभी की यही मजबूरी है।
‘दीपकबापू’ अपने पराये में भेद न करें, कचड़ा शब्द फैंकने की तैयारी पूरी है।।
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कागज के शेर रंगीन पर्दे पर छाये हैं, काले इरादे से सफेद चेहरा लाये हैं।
‘दीपकबापू’ शोर से आंख कान लाचार, रोशनी के सौदे में अंधेरा सजाये हैं।
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पीपल की जगह पत्थर के वृ़क्ष खड़े हैं, विकास के प्रतीक की तरह अड़े हैं।
‘दीपकबापू’ किताब पढ़ प्यास बुझाते, जलाशय उसमें चित्र की तरह जड़े हैं।।
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कुचली जाती हर दिन धूल पांव तले, सिर पर करे सवारी जब आंधी चले।
‘दीपकबापू’ ज्ञानी मत्था टेकते धरा पर, गिरें कभी तो दिल में दर्द न पले।।
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बेचैन दिल बाहर भी न रम पाये, घर की याद हर जगह जम जाये।
‘दीपकबापू’ पैसे से पा रहे मनोरंजन, हिसाब लगाकर फिर गम पाये।।
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समाज कल्याण के लिये सक्रिय दिखते, विरासत परिवार के नाम लिखते।
‘दीपकबापू’ मानव उद्धार के बने विक्रेता, पाखंड से ही बाज़ार में टिकते।।
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स्वाद लोभी अन्न का पचना न जाने, रंग देखते चक्षु अंदर का इष्ट न माने।
‘दीपकबापू’ बाज़ार की रोशनी में अंधे, उजाले के पीछे छिपा अंधेरा न जाने।।
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ढोंगी भ्रम का मार्ग बता नर्क में डालें, फिर स्वर्ग का ख्वाब दिखाकर टालें।
‘दीपकबापू’ ओम का जाप नित करें, घर में ही बाहरी सुख का मंत्र पालें।।
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