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Monday, July 28, 2008

वेदना बेचने और संवेदना खरीदने का व्यापार-हिंदी शायरी

कुछ लोग होते हैं पर
कुछ दिखाने के लिये बन जाते लाचार
अपनी वेदना का प्रदर्शन करते हैं सरेआम
लुटते हैं लोगों की संवेदना और प्प्यार
छद्म आंसू बहाते
कभी कभी दर्द से दिखते मुस्कराते
डाल दे झोली में कोई तोहफा
तो पलट कर फिर नहीं देखते
उनके लिये जज्बात ही होते व्यापार

घर हो या बाहर
अपनी ताकत और पराक्रम पर
इस जहां में जीने से कतराते
सजा लेते हैं आंखों में आंसु
और चेहरे पर झूठी उदासी
जैसे अपनी जिंदगी से आती हो उबासी
खाली झोला लेकर आते हैं बाजार
लौटते लेकर घर दानों भरा अनार

गम तो यहां सभी को होते हैं
पर बाजार में बेचकर खुशी खरीद लें
इस फन में होता नहीं हर कोई माहिर
कामयाबी आती है उनके चेहरे पर
जो दिल में गम न हो फिर भी कर लेते हैं
सबके सामने खुद को गमगीन जाहिर
कदम पर झेलते हैं लोग वेदना
पर बाहर कहने की सोच नहीं पाते
जिनको चाहिए लोगों से संवेदना
वह नाम की ही वेदना पैदा कर जाते
कोई वास्ता नहीं किसी के दर्द से जिनका
वही बाजार में करते वेदना बेचने और
संवेदना खरीदने का व्यापार
.........................................................
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Saturday, July 26, 2008

जब तक बाजार में बिकेगी सनसनी-हिंदी शायरी

खबर केवल खबर हो तो
कौन लिखता और कौन पढ़ता है
देखते और पढ़ते हैं सभी खबर वही
जिससे फैलती हो सनसनी
लिखने से खबर नहीं बनती
बेअसर रहते हैं शब्द तब
नहीं फैलती जब सनसनी

खबरफरोश ढूंढते खबर ऐसी
जो हिला दे पढ़ने वालों को
तोड़ दे जज्बातों के तालों को
भूखे का भूखा रहना
प्यासे का पानी के लिये तरसना
कोई खबर नहीं होती
मिलती है उनको भी जगह
जब कहीं नहीं फैली हो सनसनी

घायल आदमी अस्पताल में चिल्लाता
पर कोई उसका हमदर्द नहीं आता
भीड़ लग जाती है दर्द सहलाने वालों की
अगर उसके जख्मों में से
बहती हो खून के साथ सनसनी
लोगों के दिल और दिमाग में
भर गया है शोर चारों तरफ
पर कोई नहीं देता उसकी तरफ कान
उसमें नहीं होता किसी को सनसनी का भान
जब तक तड़प कर मर न जाये आदमी
नहीं फैलती जमाने में सनसनी

ढूंढते हुए खबर जब
पहुंचते हैं अपने मुकान पर खबरफरोश
तब उसमें न भी हो तो
पैदा कर देते सनसनी
कभी कभी उनको बैठे बिठाये
दहशत के सौदागर
जो फैले हैं चारों तरफ
कभी-कभी भिजवा देते उनके पास
बमों के धमाके कर सनसनी
सड़कों पर जलती बस
बिखरा हुआ निर्दोषों का खून
कांपते हुए चेहरों का देखकर
फैलती है दहशत
बिकती है तब सनसनी
तब तक जारी रहेगा यह सिलसिला
जब तक बाजार में बिकेगी सनसनी
.......................................................................
यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका’ पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

Friday, July 25, 2008

मिट्टी और मांस की मूर्ति-लघुकथा

मूर्तिकार फुटपाथ पर अपने हाथ से बनी मिट्टी की भगवान के विभिन्न रूपों वाली छोटी बड़ी मूर्तियां बेच रहा था तो एक प्रेमी युगल उसके पास अपना समय पास करने के लिये पहुंच गया।
लड़के ने तमाम तरह की मूर्तियां देखने के बाद कहा-‘अच्छा यह बताओ। मैं तुम्हारी महंगी से महंगी मूर्ति खरीद लेता हूं तो क्या उसका फल मुझे उतना ही महंगा मिल जायेगा। क्या मुझे भगवान उतनी ही आसानी से मिल जायेंगे।’

ऐसा कहकर वह अपनी प्रेमिका की तरफ देखकर हंसने लगा तो मूर्तिकार ने कहा-‘मैं मूर्तियां बेचता हूं फल की गारंटी नहीं। वैसे खरीदना क्या बाबूजी! तस्वीरें देखने से आंखों में बस नहीं जाती और बस जायें तो दिल तक नहीं पहुंच पाती। अगर आपके मन में सच्चाई है तो खरीदने की जरूरत नहीं कुछ देर देखकर ही दिल में ही बसा लो। बिना पैसे खर्च किये ही फल मिल जायेगा, पर इसके लिये आपके दिल में कोई कूड़ा कड़कट बसा हो उसे बाहर निकालना पड़ेगा। किसी बाहर रखी मांस की मूर्ति को अगर आपने दिल में रखा है तो फिर इसे अपने दिल में नहीं बसा सकेंगे क्योंकि मांस तो कचड़ा हो जाता है पर मिट्टी नहीं।’
लड़के का मूंह उतर गया और वह अपनी प्रेमिका को लेकर वहां से हट गया

यह लघु कथा मूल रूप से ‘दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका’ पर लिखा गया है। इसके प्रकाशन की कहीं अनुमति नहीं है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, July 24, 2008

जैसे भेड़ों का झुंड जा रहा हो-व्यंग्य कविता

रास्ते के किनारे खड़ा वह
लोगों की भीड़ को भागते देख रहा है
पूछता है एक एक से उसकी मंजिल का पता
हर मुख से अलग अलग जवाब आ रहा है

कोई इंजीनियर बनने जा रहा है
कोई डाक्टर बनने जा रहा है
कोई एक्टर बनने जा रहा है
जो खुद नहीं बन सका वह आदमी
अपने बच्चों का हाथ पकड़े उसे
खींचता ले जा रहा है

ढूंढता है वह जो इंसानों की तरह
जीने की कोशिश करना सीख रहा हो
कोई जो दूसरों का हमदर्द
बनना सीख रहा हो
वह जो किसी के पीछे न भागना
सीख रहा हो
वह निराश हो जाता है यह देखकर
क्योंकि इंसानों की भीड़ नहीं
जैसे भेड़ों का झुंड जा रहा हो
.........................
यह कविता मूल रूप से इस ब्लाग दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका पर ही प्रकाशित है। इसकी अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
कवि एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Wednesday, July 23, 2008

कोई बिकाऊ है तो कोई खरीददार-हिंदी शायरी

दिन के उजाले में

लगता है बाजार

कहीं शय तो कहीं आदमी

बिक जाता है

पैसा हो जेब में तो

आदमी ही खरीददार हो जाता है

चारों तरफ फैला शोर

कोई किसकी सुन पाता है

कोई खड़ा बाजार में खरीददार बनकर

कोई बिकने के इंतजार में बेसब्र हो जाता है

भीड़ में आदमी ढूंढता है सुख

सौदे में अपना देखता अपना अस्त्तिव

भ्रम से भला कौन मुक्त हो पाता है

रात की खामोशी में भी डरता है

वह आदमी जो

दिन में बिकता है

या खरीदकर आता है सौदे में किसी का ईमान

दिन के दृश्य रात को भी सताते हैं

अपने पाप से रंगे हाथ

अंधेरे में भी चमकते नजर आते है

मयस्सर होती है जिंदगी उन्हीं को

जो न खरीददार हैं न बिकाऊ

सौदे से पर आजाद होकर जीना

जिसके नसीब में है

वह जिंदगी का मतलब समझ पाता है
................................
दीपक भारतदीप

Monday, July 21, 2008

अपने अहसास अपने से छिपाते हो-हिंदी शायरी

इस भीड़ में तुम क्यों

अपनी आवाज जोड़ कर

शोर मचाते हो

लोगों के कान खुले लगते हैं

पर बंद पर्दे उनके तुम

अपनी आंखों से भला कहां देख पाते हो

कौन सुनेगा तुम्हारी कहानी

किसे तुम अपना दर्द सुनाते हो

सड़क पर जमा हों या महफिल में

लोग बोलने पर हैं आमादा

अपनी असलियत सब छिपा रहे हैं

भल तुम क्यों छिपाते हो

तुम्हें लगता है कोई देख रहा है

कोई तुम्हारी सुन रहा है

पर क्या तुम वही कर रहे हो

जिसकी उम्मीद दूसरों से कर रहे हो

भला क्यों अपने अहसास अपने से छिपाते हो
.........................................

दीपक भारतदीप लेखक संपादक

Sunday, July 20, 2008

कतरा कतरा रौशनी हम ढूंढते रहे-हिंदी शायरी

उनसे दूरी कुछ यूं बढ़ती गयी
जैसे बरसात का पानी किनारे से
नीचे उतर रहा हो
वह रौशनी के पहाड़ की तरफ
बढ़ते गये और
अपने छोटे चिराग हाथ में हम लिये
कतरा कतरा रौशनी ढूंढते रहेे
वह हमसे ऐसे दूर होते गये
जैसे सूरज डूब रहा हो

उन्होंने जश्न के लिये लगाये मजमे
घर पर उनके महफिल लगी रोज सजने
अपने आशियाना बनाने के लिये
हम तिनके जोड़ते रहे
उनके दिल से हमारा नाम गायब हो गया
कोई लेता है उनके सामने अब तो
ऐसा लगता है उनके चेहरे पर
जैसे वह ऊब रहा हो
..................................

दीपक भारतदीप

Friday, July 18, 2008

कभी फिर अँधेरे में टकराएंगे-हिन्दी शायरी


बरसात की अंधेरी रात में
वह मिले और बिछड़े
तब सोचा था कि
चंद्रमा की रौशनी होने पर
हम उनको जरूर ढूंढ पायेंगे
देखा नहीं था उनका चेहरा
इसलिये जब भी चांद निकलता है
उसमें उनका चेहरा नजर आता है
इंतजार है अब इसका
कभी अंधरे में फिर टकरायेंगे
तभी कोई रिश्ता जोड़ पायेंगे

..................................
दीपक भारतदीप

Wednesday, July 16, 2008

प्यार में भी भला कभी वादे किये जाते हैं-हिंदी शायरी

जन्नत में बिताने के लिये सुहानी रात
आसमान से चांद सितारे तोड़कर लाने की बात
प्यार के संदेश देने वाले ऐसे ही
किये जाते हैं
बातों पर कर ले भरोसा
शिकार यूं ही फंसाये जाते हैं
प्यार किस चिडिया का नाम
कोई नहीं जान पाया
रोया वह भी जिसने प्यार का फल चखा
तरसा वह भी जिसने नहीं खाया
प्यार का जो गीत गाते
कोई ऊपर वाले का तो
कोई जमीन पर बसी सूरतों के नाम
अपनी जुबान पर लाते
कोई नाम को योगी
तो कोई दिल का रोगी
धोखे को प्यार की तरह तोहफे में देते सभी
जो भला दिल में बसता है
किसी को कैसे दिया जा सकता है
सर्वशक्तिमान से ही किया जा सकता है
उस प्यार के में भी भला
कभी वादे किये जाते हैं
....................................
दीपक भारतदीप

Sunday, July 13, 2008

जिंदगी में असहज हो जाओगे-हिन्दी शायरी



जितना चाहोगे

उतना असहज हो जाओगे

दौड़ते हुए बहुत कुछ जुटा लोगे

अपने जीने का सामान

पर फिर उसका बोझ नहीं

उठा पाओगे

जिंदगी की गति चलती है

अपनी गति से

उसे ज्यादा तेज दौड़ने की कोशिश न करो

असहजता में जो पाया है

उसको भी नहीं भोग पाओगे
........................
दीपक भारतदीप

Saturday, July 12, 2008

प्यार की डील दिल में कील की तरह लगती हो-हास्य कविता

लड़के ने लड़की को
प्रेम का प्रस्ताव देते हुए कहा
‘तुम अमेरिका की तरह सौंदर्य में अमीर
अदाओं में ब्रिटेन की तरह चतुर
और दिखने में फ्रांस जैसी आकर्षक लगती हो
तुम मुझसे प्यार की डील कर लो
तुम मुझे कनाडा की तरह फबती हो’

लड़की ने दिया जवाब
‘तुम मुझे चीन की तरह धूर्त,
पाकिस्तान की तरह बेईमान और
नेपाल की तरह डांवाडोल लगते हो
अगर भारत की तरह होते भरोसेमंद
और दिखने में मजबूत तो कुछ सोचती
तुंम तो ईरान की तरह दंभी लगते हो
तुम से प्यार की डील करने की बात
मुझे जैसे दिल में कील की तरह चुभती हो
...............................

Thursday, July 10, 2008

रिश्तों के कभी नाम नहीं बदलते-हिन्दी ग़ज़ल


दुनियां में रिश्तों के तो बदलते नहीं कभी नाम
ठहराव का समय आता है जब, हो जाते अनाम
कुछ दिल में बसते हैं, पर कभी जुबां पर नहीं आते
उनके गीत गाते हैं, जिनसे निकलता है अपना काम
जो प्यार के होते हैं, उनको कभी गाकर नहीं सुनाते
ख्यालों मे घूमते रहते हैं, वह तो हमेशा सुबह शाम
रूह के रिश्ते हैं, वह भला लफ्जों में कब बयां होते
घी के ‘दीपक’ जलाकर, दिखाने का नहीं होता काम

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दीपक भारतदीप

Monday, July 7, 2008

दूसरे के दर्द में ढूंढते सुगंध-हिंदी शायरी

शहर-दर-शहर घूमता रहा

इंसानों में इंसान का रूप ढूंढता रहा

चेहरे और पहनावे एक जैसे

पर करते हैं फर्क करते दिखते

आपस में ही एक दूसरे से

अपने बदन को रबड़ की तरह खींचते

हर पल अपनी मुट्ठियां भींचते

अपने फायदे के लिये सब जागते मिले

नहीं तो हर शख्स ऊंघता रहा

अपनी दौलत और शौहरत का

नशा है

इतराते भी उस बहुत

पर भी अपने चैन और अमने के लिये

दूसरे के दर्द से मिले सुगंध

हर इंसान इसलिये अपनी

नाक इधर उधर घुमाकर सूंघता रहा
.................................
दीपक भारतदीप

Sunday, July 6, 2008

यूं तो जमाना दोस्त बन जाता है-हिन्दी शायरी

दूर भी हों पर उनके होने के
अहसास जब पास ही होते
वही दोस्त कहलाते हैं
यूं तो पास रहते हैं बहुत लोग
बहुत सारी बातें बतियाते
पर सभी दोस्त नहीं हो जाते हैं
जिनकी आवाज न पहुंचती हो
पर शब्द कागज की नाव पर
चलकर पास आते हैं
और दिल को छू जाते हैं
ऐसे दोस्त दिल में ही जगह पाते हैं

यूं तो जमाना दोस्त बन जाता है
पर परेशान हाल में छोड़ जाता है
जिनके दो शब्द भी देते हों
इस जिंदगी की जंग में लड़ने का हौंसला
वही दोस्त दूर होते भी
पास हो जाते हैं

Friday, July 4, 2008

चिराग की रौशनी और उम्मीद-हिंदी शायरी

शाम होते ही
सूरज के डूबने के बाद
काली घटा घिर आयी
चारों तरफ अंधेरे की चादर फैलने लगी थी
मन उदास था बहुत
घर पहुंचते हुए
छोटे चिराग ने दिया
थोड़ी रौशनी देकर दिल को तसल्ली का अहसास
जिंदगी से लड़ने की उम्मीद अब जगने लगी थी
.........................................
दीपक भारतदीप

Wednesday, July 2, 2008

अपने अंदर ढूंढे, मिलता तभी चैन है-हिंदी शायरी

घर भरा है समंदर की तरह
दुनियां भर की चीजों से
नहीं है घर मे पांव रखने की जगह
फिर भी इंसान बेचैन है

चारों तरफ नाम फैला है
जिस सम्मान को भूखा है हर कोई
उनके कदमों मे पड़ा है
फिर भी इंसान बेचैन है

लोग तरसते हैं पर
उनको तो हजारों सलाम करने वाले
रोज मिल जाते हैं
फिर भी इंसान बेचैन है

दरअसल बाजार में कभी मिलता नहीं
कभी कोई तोहफे में दे सकता नहीं
अपने अंदर ढूंढे तभी मिलता चैन है
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