लोगों की भीड़ को भागते देख रहा है
पूछता है एक एक से उसकी मंजिल का पता
हर मुख से अलग अलग जवाब आ रहा है
कोई इंजीनियर बनने जा रहा है
कोई डाक्टर बनने जा रहा है
कोई एक्टर बनने जा रहा है
जो खुद नहीं बन सका वह आदमी
अपने बच्चों का हाथ पकड़े उसे
खींचता ले जा रहा है
ढूंढता है वह जो इंसानों की तरह
जीने की कोशिश करना सीख रहा हो
कोई जो दूसरों का हमदर्द
बनना सीख रहा हो
वह जो किसी के पीछे न भागना
सीख रहा हो
वह निराश हो जाता है यह देखकर
क्योंकि इंसानों की भीड़ नहीं
जैसे भेड़ों का झुंड जा रहा हो
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यह कविता मूल रूप से इस ब्लाग दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका पर ही प्रकाशित है। इसकी अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
कवि एवं संपादक-दीपक भारतदीप
1 comment:
क्योंकि इंसानों की भीड़ नहीं
जैसे भेड़ों का झुंड जा रहा हो
बहुत बढिया। बधाई।
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