उनसे दूरी कुछ यूं बढ़ती गयी
जैसे बरसात का पानी किनारे से
नीचे उतर रहा हो
वह रौशनी के पहाड़ की तरफ
बढ़ते गये और
अपने छोटे चिराग हाथ में हम लिये
कतरा कतरा रौशनी ढूंढते रहेे
वह हमसे ऐसे दूर होते गये
जैसे सूरज डूब रहा हो
उन्होंने जश्न के लिये लगाये मजमे
घर पर उनके महफिल लगी रोज सजने
अपने आशियाना बनाने के लिये
हम तिनके जोड़ते रहे
उनके दिल से हमारा नाम गायब हो गया
कोई लेता है उनके सामने अब तो
ऐसा लगता है उनके चेहरे पर
जैसे वह ऊब रहा हो
..................................
दीपक भारतदीप
जैसे बरसात का पानी किनारे से
नीचे उतर रहा हो
वह रौशनी के पहाड़ की तरफ
बढ़ते गये और
अपने छोटे चिराग हाथ में हम लिये
कतरा कतरा रौशनी ढूंढते रहेे
वह हमसे ऐसे दूर होते गये
जैसे सूरज डूब रहा हो
उन्होंने जश्न के लिये लगाये मजमे
घर पर उनके महफिल लगी रोज सजने
अपने आशियाना बनाने के लिये
हम तिनके जोड़ते रहे
उनके दिल से हमारा नाम गायब हो गया
कोई लेता है उनके सामने अब तो
ऐसा लगता है उनके चेहरे पर
जैसे वह ऊब रहा हो
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दीपक भारतदीप
1 comment:
दीपक जी, बहुत भावभीनी रचना लिखी है।
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