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Sunday, December 27, 2009

ढपली और राग-व्यंग्य चिंतन (dhapli aur rag-hindi vyangya)

ज्यादा देखने से फायदा भी क्या था? जितना देखा उससे ही समझना काफी था। एक चेहरा निढाल पड़ा हुआ है कोई नारी या नारियां बार बार अपना चेहरा उसके पास ले जाती हैं। वह एक सनसनीखेज खबर है। 86 वर्ष के बुजुर्ग राजनीतिज्ञ पर यौन प्रकरण (sex scandle) का आरोप दर्ज करती वह खबर उसके नायक नायिका (या नायिकायें) की क्रियाओं का दृश्य प्रस्तुत करती है। जिस पर आरोप है उसका चेहरा निढाल पड़ा हुआ है। उसकी कोई हलचल नहीं दिखाई दे रही। अंतर्जाल पर इससे अधिक नहीं दिख रहा। वैसे तो समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में उस बुजुर्ग नायक के साथ तीन पायजामें और तीन नायिकाओं का भी जिक्र है पर जो अंतर्जाल पर देखा उससे तो लगता है कि जो टीवी चैनल बुजुर्ग नायक की कथित ‘रंगीन मिजाजी का रहस्योद्घाटन करने का दावा कर रहा है उसके बाकी अंश भी कुछ ऐसे ही प्रश्नवाचक चिन्ह लिये खड़े मिलेंगे।
एक आम आदमी की राजनीति में कभी सक्रिय भूमिका नहीं होती सिवाय कि वह उससे संबंधित घटनाओं को पढ़े और विचार करे। इतिहास गवाह है कि राजनीति का क्षेत्र बहुत ही अविश्वसनीय और अनिश्चित है। राज्य कर्ता अच्छा है या बुरा यह इतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना कि वह अपने विरोधियों से सतर्क कितना रहता है और यही बात उसे कार्यकुशलता का प्रमाण देती है।
राजनीति में सत्ता के लिये षड्यंत्र सदियों से चल रहे हैं और आगे भी जारी रहेंगे। सच तो यह है कि दैहिक लोभ का चरम ही है राज्य करने की भावना और इसमें अध्यात्मिक या धर्म की बात एक तरफ उठाकर रखनी पड़ती है। राजनीति इतनी विकट है कि इसमें माता और पुत्र जैसा रिश्ता भी अविश्वसनीय हो जाता है ऐसे में बाकी रिश्तों का महत्व देखना या सोचना बेकार है। यह अलग बात है कि कुछ लोग राजकाज से जुड़े होने पर भी धर्म, अध्यात्मिक तथा समाज का विचार करते हैं-ऐसे लोग धन्य हैं और ऐसा नहीं है कि इतिहास कोई उनको महत्व नहीं देता। इसके बावजूद यह सत्य है कि इतिहास में श्रेष्ठ राजाओं की गिनती अधिक नहीं मिलती बल्कि अधिकतर षड़यंत्रों का शिकार बनते हैं या फिर किसी का शिकार कर स्वयं राजा बनते रहे हैं।
वैसे आजकल की वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सीधे राजकाल से जुड़े न होने पर भी कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें रहकर उस पर नियंत्रण किया जा सकता है। यह क्षेत्र है धर्म का। धर्म के क्षेत्र में भी कुछ ऐसे लोग हैं जो अपनी पूज्यनीयता के आधार पर राजकाज पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण करते हैं। यही कारण है कि वहां भी ऐसी उठापठक होती रहती है जैसे कि राज्य जीतने का युद्ध हो।
प्रसंगवश भारत के ही एक 80 वर्षीय संत पर विदेश में ही यौन प्रकरण का ऐसा आरोप लगा था। यह आरोप इतना गंभीर था कि इसके विवाद की आग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई दी और उस देश ने उसके निपटारे तक उन संत भारत लौटने पर रोक लगा दी। हालांकि कहा यह गया कि संत अपनी इच्छा से उस विवाद के निपटारे तक वह देश नहीं छोड़ेंगे। आप देखिये उस देश की सरकार ने भी इसका खंडन नहीं किया। इससे यह साफ लगा कि कहीं न कहीं धर्म का राजनीति से कोई अप्रत्यक्ष प्रगाढ़ रिश्ता है। बाद में वह उस आरोप से बरी हो गये। सच बात तो यह है कि श्रीमद्भागवत पर प्रवचन करने वाले उस संत का प्रवचन इस लेखक को भी बहुत अच्छा लगता है। अगर आप श्रीगीता का सूक्ष्म पूर्वक अध्ययन करेंगे तो ऐसे यौन प्रकरण आपको विचार के विषय नहीं लगेंगे। संभव है कि अगर आप अल्पज्ञानी हों तो ऐसे प्रकरण में लिप्त हो जायें पर ज्ञानी हों तो फिर उससे दूर रहेंगे।
एक अध्यात्मिक लेखक के रूप में इस घटना को लेकर कोई क्षोभ या प्रसन्नता नहीं है। याद रखिये कि किसी बड़े आदमी पर कीचड़ उछलने से कुछ लोग प्रसन्न भी होते हैं पर यह उनके अज्ञान और कुंठा का परिणाम होता है।
इसके बावजूद राजनीति का समाज पर प्रभाव होता है तब उसे देखना जरूरी होता है। अब इस प्रकरण की तरफ देखें। एक निढाल चेहरा जिस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं है? प्रश्न आता है कि वह रंगीन मिजाजी कब कर रहा होगा?
बुजुर्ग के समर्थक कहते हैं कि ‘यह एक षड्यंत्र है!’
हो सकता है कि उनका कहना सही हो? पर एक राजनेता को हमेशा सतर्क रहना चाहिये। वह अगर सतर्क नहीं रहे तो फिर उनकी योग्यता पर भी प्रश्न उठता है न!
उनके एक समर्थक कहना है कि वह बुजुर्ग राजनेता एकदम लाचार हैं। यहां तक कि दीप प्रज्जवलित करने के लिये उनको किसी की सहायता चाहिए।
सवाल यह है कि क्या बड़े पदों पर शारीरिक रूप से लाचार लोगों की नियुक्ति होना चाहिए। जिस तबियत का बहाना कर उन्होंने अब इस्तीफा दिया वह पहले क्यों नहीं किया? राजनीति का क्षेत्र लोगों की सेवा करने के लिये या करवाने के लिये? राजनीति में शासन के द्वारा जलकल्याण करने आये हैं या उपभोग कर सेवा पाने।
समर्थकों का यह कहना है सही है कि जहां यह फिल्म बनायी गयी है वह उस स्थान की सुरक्षा तथा कानून से जुड़े अनेक पहलुओं को चुनौती देती है जो कि एक चिंता का विषय है। यौन प्रकरण को गंभीर बनाने के लिये इससे गरीबी और नौकरी जैसे विषय भी जोड़े गये हैं ताकि आम लोगों के तटस्थ रहने की गुंजायश कर रहे।
यह लेखक अंतर्जाल पर वह सब देखने का प्रयास नहीं करता अगर अंतर्जाल लेखकों ने ही बहुत सादगी (?) से आंध्रप्रदेश, तेलगु और यू ट्यूब का उल्लेख नहीं किया होता। यह भी एक तरीका होता है कि आप किसी को लोकप्रिय बनाना चाहें तो उसकी आलोचना कीजिये। है न चालाकी! आप बताईये कि वहां बुरी चीज है! लोग अपने आप जायेंगे और आपका काम भी हो जायेगा।
प्रसंगवश बुजुर्ग के समर्थकों का दावा है कि ‘वह पहले भी ऐसे हमलों से उबरते रहे हैं और अब भी उबर आयेंगे।’
मतलब यह कि उन बुजुर्ग सज्जन का इतिहास भी उनका पीछा कर रहा है। बुजुर्ग महोदय के विरोधियों ने भी इसका पहले इंतजाम कर लिख दिया कि ‘हो सकता है कि यह सभी प्रायोजित हो। वह बुजुर्ग राष्ट्रीय राजनीति में आने को इच्छुक हों और वहां से निकलने के लिये यह नाटक स्वयं ही रचवाया हो ताकि बाद में उसे निकलकर वाह वाही लूट सकें।’
पता नहीं सच क्या है? पर जिस तरह अंतर्जाल पर यह दो तीन फोटो दिखे उससे उन बुजुर्ग सज्जन पर किया यह शाब्दिक आक्रमण अधिक प्रभावी नहीं दिखता। हम तो एक अध्यात्मिक विचारक हैं और उनका सम्मान करेंगे पर इस मामले के कुछ पैंच हमारी समझ में आये वह लिखना जरूरी लगा।
इस बकवास में आखिरी बात यह है कि हमने युट्यूब पर ही कुछ प्रतिकियायें देखी। एक तरह से सभी छद्म नाम थे
एक प्रतिकिया देखी जिसमें भारतीय लोगों के प्रतिकूल टिप्पणी थी।
उसका जवाब भी एक छद्म नाम ‘पाकिस्तानी चुप रह’ लिख दिया।
सवाल यह है कि उस भारतीय को कैसे पता लगा कि वह पाकिस्तानी है। कहीं यह तयशुदा जंग तो नहीं थी।
एक प्रतिक्रिया यह थी कि ‘उत्तर भारतीयों को दक्षिण भारत के किसी प्रदेश में बड़े पर पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिये।’
उसका भी जवाब भी एक दूसरे ने लिखा था कि ‘यह समस्या तो विश्वव्यापी है इसलिये इसमें क्षेत्रवाद जैसी बात नहीं देखनी चाहिये।’
कहने का तात्पर्य यह है कि इस घटना के दूरगामी परिणाम होंगे। एक तमिल मित्र ने बताया था कि दक्षिण में उत्तरी लोगों के दक्षिण के लोगों पर अनाचार के अनेक किस्से किसी समय वहां प्रचलित थे। इनका प्रभाव यह था कि दक्षिण के लोगों का उत्तर के लोगों पर ही विश्वास नहीं रहता था। यह तो आजादी के बाद लोग एक दूसरे के पास आये तो अब वह बात नहीं है। उसने इस लेखक से कहा था कि ‘तुम जैसे मित्र यहां मिलते हैं यह मैं अपने रिश्तेदारों को बताता हूं तो वह हैरान रह जाते हैं।’
उस मित्र ने बताया था कि अपने शहर में बहुत समय तक लोग उससे यह पूछते थे कि‘ क्या वहां रहते हुए तुम्हें लोग परेशान तो नहीं करते?’
अब वह इस तरह के सवाल नहीं करते पर प्रचार माध्यमों को लंबे समय तक चर्चा में रहने के लिये विषय चाहिये तो संभव है वह इस पर बाल कल्याण, नारी कल्याण, संस्कृति और संस्कार के साथ जोड़कर आगे बढ़ाते रहें। संभव है कि क्षेत्रवाद के भूत को शरीर पैदा करने का प्रयास भी हो। बड़े लोगों की बड़ी बातें हैं जी! आम आदमी के रूप में जितना समझें उतना ही कम हैं! वैसे धाार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में विराजमान शिखरपुरुषों ने अपने ओहदे को शासन और अपने उपभोग योग्य समझा न कि जनकल्याण तथा समाज सेवा के लिये। यही कारण है कि अब आम आदमी की सहानुभूति उनके प्रति उतनी नहीं जितना पहले थी। बल्कि आचरण को लेकर विश्वसीनयता का भाव नहीं रहा जो खास आदमी को आम आदमी में महानता की श्रेणी दिलाता है। बाकी सच क्या है? जो आयेगा वह सच भी होगा या नहीं। आजकल प्रायोजन तो सभी जगह होने लगा है न! यहां तो बस यह कहा जा सकता है कि ‘अपनी अपनी ढपली, अपना अपना राग।’
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Wednesday, December 23, 2009

इतिहास और विश्वास-हास्य व्यंग्य (ithas aur vishvas-hasya vyangya)

इस देश में कई ऐसे लोग मिल जायेंगे जो इतिहास विषय को बहुत कोसते हैं क्योंकि उनको प्रश्नपत्रों को हल करते समय अनेक घटनाओं की तारीखें और सन् याद नहीं रहते और गलत सलत उत्तर हो जाने पर परीक्षा में उनके अंक कम हो जाते हैं। वैसे इतिहास पढ़ते समय हमें भी मजा नहीं आता था पर नंबर पाने के लिये रटना तो पढ़ता ही था। सन आदि की गलतियां कभी नहीं हुई पर उनकी आशंका हमेशा बनी रहती थी। उत्तर लिखने के बाद जब घर पहुंचते तो पहले इसकी पुष्टि अवश्य करते थे कि कहीं सन गलत तो नहीं लिख दिया।
उस समय इस बात पर यकीन नहीं होता था कि हम जो इतिहास पढ़ रहे हैं वह झूठ भी हो सकता है। मगर जैसे जैसे अखबार वगैरह पढ़ने लगे तक लगने लगा कि किसी भी इतिहासकार ने एक लेखक के रूप में अगर कुछ अनुमान कर लिखा होगा तो कल्पना भी सच बनाकर प्रस्तुत हो सकती है। जैसे जैसे समय बीता फिर हमने ऐसे लोगों को अपने सामने इतिहास बनते देखा जिनके बारे में हमें यकीन नहीं था कि इनका नाम भी कभी इतिहास में एक श्रेष्ठ मनुष्य में रूप में लिखा जा सकता है। एक दो घटनायें ऐसी भी देखी जिससे लगा कि अगर हम अपने घर में कहीं किसी पत्थर पर राज्य का राजा होने का जानकारी खुदवाकर गाढ़ दें तो कई वर्षों बाद उसकी खुदाई होने पर वह इतिहास हो जायेगा जो कि सच नहीं बल्कि कल्पना होगी। फिर कई ऐसे लोगों की भी अच्छी चर्चायें सुनी जिनके बारे में हमें यकीन था कि वह इतने उत्कृष्ट नहीं थे जितना अपने देहावसान के बाद बताये जा रहे हैं। इससे भी आगे बढ़े तो यह भी पाया कि कुछ लोगों की कभी खूब आलोचना हुआ करती थी जो कि सही भी थी पर समय के अनुसार जनमत ऐसा बदला लगा कि लोग उनको याद करते हुए कहते हैं कि ‘अगर वह होते तो ऐसा नहीं होता।’

कहने का तात्पर्य यह है कि लोग एक व्यक्ति के बारे में अपनी राय भी बदल सकते हैं और इस तरह इतिहास बदल जाता है। पूरी बात कहें तो यह कि एक झूठ हजार बार बोला जाये तो वह सच बन जाता है। इसी कारण इतिहास की अनेक बातें यकीन पर आधारित हो सकती हैं।
इधर अंतर्जाल पर सक्रिय हुए तो उसने तो हमारे एतिहासिक ज्ञान की न केवल धज्जियां उड़ा दी है कि बल्कि अनेक तरह के शक शुबहे भी पैदा कर दिये हैं। पहला शक तो हमें अपने इतिहास लिखने वालों की विश्वसनीयता और समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को ही लेकरहोता है पर उससे ज्यादा उनको अपनी राय के अनुसार प्रस्तुत करनें वाले प्रचार माध्यमों पर होता है। परस्पर विरोधाभासी तर्क देख सुनकर एक बार तो ऐसा लगता है कि दोनों में से कोई एक झूठ या भ्रमवश बोल रहा है पर फिर अपना सोचते हैं तो लगता है कि दोनों ही एक जैसे हैं। इधर कुछ लोग यह लिख रहे हैं कि ताज महल शाहजहां से अपनी बेगम मुम्ताज की याद में नहीं बनवाया बल्कि वहां पहले एक ‘शिव मंदिर’ था जिसे ‘तेजोमहालय’ कहा जाता था। किन्हीं इतिहासकार श्री ओक की खोज पर आधारित इस विचार ने हमें इतना दिग्भ्रमित कर दिया कि हमे लगने लगा कि हो सकता है वह सही हो। उनके तर्क वजनदार दिखे पर जब अपना सोचना शुरु किया तो लगने लगा कि शायद न तो यह ताजमहल होगा न यह तेजोमहालय बल्कि ताजा मोहल्ला भी हो सकता है जो शायद उस समय के साहूकार लोगों ने शायद अपनी विलासिता के लिये बनवाया हो। उनका इरादा से सामूहिक मनोरंजनालय बनाने का रहा हो जहां अनेक लोग बैठकर शतरंज या च ौपड़ खेले सकें। शायद इसमें सर्वशक्तिमान की मूर्ति भी लगवा सकते थे। उसमें जिस तरह परिक्रमा के लिये जगह बनी है उससे यह विश्वास होता है कि वह वहां कोई कलाकृति वगैरह लगाने वाले होंगे कि किसी राज कर्मचारी या अधिकारी ने बादशाह को खबर कर दी होगी कि अमुक जगह अपने नाम से करवाना बेहतर होगा।
हमें सबसे पहले ताजमहल पर हमारे मामा ले गये थे। दरअसल हमारी वहां जाने की इच्छा नहीं थी। इस अनिच्छा के पीछे इतिहास के ही पढ़ी यह बात जिम्मेदार थी कि ‘ताज महल बनाने वाले मजदूरों के हाथ इसलिये काट दिये गये थे ताकि वह दूसरी जगह ऐसी इमारत न बना सकें।’
जब पहली बार ताजमहल पर गये तब उसे देखकर अच्छा जरूर लगा पर यही बात हमारे मन में ऐसी रही कि उसका आकर्षण हमें बुरा लगा। हम न तो प्रगतिशील हैं न ही परंपरावादी पर श्रम की अवमानना करने वालों को कभी हम श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में नहीं स्वीकारते। इसके बाद भी अनेक बार ताजमहल गये पर वहां हमारे हृदय में कोई स्पंदन नहीं होता। फिर भी उसकी बनावट का अवलोकन तो हमेशा ही किया। हमें लगता है कि ताजमहल कभी एक काल खंड या राजा के राज्य में नहीं बना होगा। इसके बहुत से कारण है। सबसे बड़ी चीज यह कि हमें परिक्रमापथ कभी समझ में नहीं आया। वहां बताने वाले सारी बातें शाहजहां से जोड़कर बताते हैं कि वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करते थे इसलिये चारों तरफ घूमने के लिये उन्होंने बनवाया।
इतिहास में यह बात नहीं पढ़ाई गयी कि मुम्ताज की प्राणविहीन देह एक वर्ष तक बुरहानपुर शहर की एक कब्र में रही। यह हमें कई वर्षों बाद पता लगा। ताजमहल को आधुनिक प्रेम का प्रतीक बताकर जिस तरह फिल्में बनकर सफल रहीं और गीतों को जैसे लोकप्रियता मिली उससे भी यही लगा कि वाकई ऐसा हुआ होगा। इतना ही नहीं ताजमहल छाप साबुन, साड़ियां, बीड़ी तथा अन्य सामान भी बाजार में खूब बिकता देखा। इस पर उस समय विचार नहीं किया मगर अब जैसे बाजार और उसके सहायक प्रचार माध्यम जिस तरह इतिहास के महानायकों को गढ़ रहे हैं तब अपना ही पढ़ा इतिहास संदिग्ध लगता है।
कुछ उदाहरण तो सामने दिखते ही हैं। एक क्रिकेटर जिसने कभी इस देश को विश्वकप नहीं जितवाया उसे सर्वकालीन महान खिलाड़ी का दर्जा देते हुए यहां के प्रचार माध्यम थकते ही नहीं हैं। फिल्मों में काल्पनिक पात्रों का अभिनय करने वाले अभिनेता को देवपुरुष बना देते हैं। अगर इसी तरह चलता रहा तो यकीनन वह किसी समय इतिहास में ऐसे लोग महापुरुष की तरह अपना नाम दर्ज करवायेंगे जिन्होंने जमीनी तौर से कोई बड़ा काम नहीं किया हो।
अपनी इस हल्की सोच के साथ जीना आसान नहीं है। फिर इतिहास को समझें कैसे? क्योंकि उसके बिना आप आगे की व्याख्या भी तो नहीं कर सकते। ऐसे में हमने अपना ही सूत्र ढूंढ लिया है कि ‘‘पीछे देख आगे बढ़, आगे का देखकर पीछे का गढ़।’’
हमारे अपने तर्क हैं जो हल्के भी हो सकते हैं। हमारे महानपुरुषों ने अच्छे काम
करने को इसलिये कहा होगा क्योंकि उन्होंने अपने समय में ऐसे बुरे काम देखे होंगे। कहने का आशय यह है कि इस धरती पर धर्म और अधर्म दोनों ही रहते हैं और कम ज्यादा का कोई पैमाना नहीं है। अगर कबीर और तुलसी को पढ़ें तो यह साफ समझ में आता है कि दुष्ट प्रकृत्ति के लोग उनके समय में भी कम नहीं थे। ऐसे में बाजार और प्रचार की प्रकृत्तियां भी इसी तरह की रही होंगी। सामान्य ज्ञान की किताब में विश्व के जो सात आश्चर्य बताये गये थे उनमें ताजमहल नहीं आता था मगर पिछले साले एक प्रचार अभियान में इसे जबरदस्ती सातवें नंबर का बनाया गया। इतना ही नहीं अभियान के साथ देशप्रेम जैसे भाव भी जोड़ने के प्रयास हुए। उस समय बाजार का खेल देखकर तो ऐसा लगा था कि जैसे कि ताजमहल कोई नयी इमारत बन रही है। लोगों ने जमकर उस समय टेलीफोन पर संदेश भेजे जिसमें उनका पैसा खर्च हुआ और बाजार ने कमाया। हमने आज के बाजार और प्रचार को देखा तो लगा कि पहले भी ऐसा हो सकता है।

कहते हैैं कि ताजमहल का प्रेम प्रतीक है पर हम इसे विकट भ्रम का प्रतीक मानने लगे हैं। भारतीय अध्यात्म के अनुसार मृत्यु के कार्यक्रमों का विस्तार नहीं होना चाहिये। जिस तरह यह बताया गया कि मुम्ताज को एक साल बाद कब्र से निकालकर यहां दोबारा दफनाया गया, उस पर यकीन करना कठिन लगता है। संभव है बादशाह को इसके लिये रोकने का साहस किसी में नहीं था या लोग भी चाहते थे कि इस राजा का नाम अपने राज्य की वजह से तो लोकप्रिय नहीं होगा इसलिये इसे ताजमहल जैसी इमारत के सहारे बढ़ाया जाये। बादशाह को गद्दी पर बनाये रखना उस समय के पूंजीपतियों, जमीदारों और सेठों की बाध्यता रही होगी। इतना ही नहीं आगरा को विश्व के मानचित्र पर लाने के लिये ताजमहल के साथ प्रेम को जोड़ना आवश्यक लगा होगा इसलिये ऐसा किया गया। वरना सभी जानते हैं कि पंचतत्वों से बनी यह देह धीरे धीरे स्वतः मिट्टी होती जाती है। एक वर्ष कब्र में पड़ी देह में क्या बचा होगा यह देखने की कोशिश शायद इसलिये नहीं की गयी। जहां तक हमारी जानकारी है दुनियां में किसी भी धर्म के मतावलंबी मौत के शोक के विस्तार के रूप में इस तरह के नाटक मे नहीं करते ।

शाहजहां को इस देश का कोई अच्छा शासक नहीं माना जाता। ऐसे में लगता है कि उस समय के बाजार और प्रचार विशेषज्ञों ने उसे प्रेम का उपासक बताकर लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया होगा। उस समय आज जैसे शक्तिशाली प्रचार माध्यम नहीं थे इसलिये आपसी बातचीत के जरिये या फिर ढोल वालों से ऐसा प्रचार कराया होगा। हम किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हैं और न ही कोई ऐसी कसम खाई है कि दोबारा वहां नहीं जायेंगे-नहीं हमारा किसी के निष्कर्ष से सहमति या असहमति जताने का इरादा है। हम तो अपनी सोच को इधर उधर घुमाते ऐसे ही हैं। अलबत्ता इस बार जब जायेंगे तो उसके ताजमहल, तेजोमहालय या ताजा मोहल्ला होने के नजरिये से विचार जरूर करेंगे। इसका कारण यह है कि आजकल हम अपने सामने वर्तमान को इतिहास बनता देख रहे हैं उसने हमारे मन में ढेर सारे संशय खड़े कर दिये हैं।
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Friday, December 18, 2009

आखिर मनुष्य एक समझदार प्राणी है-आलेख (men is a social parson-hindi article)

वैश्यावृत्ति और जुआ खेलना ऐसी सामाजिक समस्यायें हैं और इनसे कभी भी मुक्ति नहीं पायी जा सकती। वैश्यावृत्ति पर कानून से नियंत्रण पाना चाहिए या नहीं इस पर अक्सर बहस चलती है। कुछ लोगों को मानना है कि वैश्यावृत्ति को कानून से छूट मिलना चाहिए तो कुछ लोगों को लगता है कि इस पर रोक बनी रहे। वैश्यावृत्ति पर कानूनी रोक का समर्थन करने वालों ने जो तर्क दिये जाते हैं वह हास्याप्रद हैं। कुछ लोग तो यहां तक कह जाते हैं कि तब तो भ्रष्टाचार, शराब तथा अन्य अपराधों को भी कानून से छूट मिलना चाहिए। अभी हाल ही में सुनने में आया कि किन्ही न्यायालय द्वारा भी इसकी वकालत की गयी है कि वैश्यावृत्ति को कानूनी शिकंजे से मुक्त किया जाना चाहिए। इसके पहले भी अनेक सामाजिक विशेषज्ञ इस बात की वकालत करते रहे हैं कि देश की सामाजिक परिस्थतियों में ऐसी रोक ठीक नहीं है।
दरअसल अंग्रेजों के समय ही वैचारिक और सामाजिक कायरता के बीज जो भारत में बो दिये गये वह अब फल और फूल की जगह सभी जगह प्रकट हो रहे हैं। याद रखने की बात यह है कि वैश्यावृत्ति कानून अंग्रजों के समय में ही बनाया गया है। इसका मतलब यह है कि इससे पहले ऐसा कानून यहां प्रचलित नहीं था।
इतना ही नहीं शराब, वैश्यावृत्ति तथा जुआ पर रोक लगाने के किसी भी पुराने कानून की चर्चा हमारे इतिहास में नहीं मिलती। इसका आशय यह है कि समाज को नियंत्रित करने की यह राजकीय प्रवृत्ति अंग्रेजों की देन है जो स्वयं ही इस तरह का कोई कानून नहीं बनाते बल्कि आजादी के नाम पर यहां अनेक अपराध भी मुक्त हैं जिनमें सट्टा भी शामिल हैं। कुछ कानूनी विशेषज्ञ तो यह बताते हैं कि अभी भी इस देश में 95 प्रतिशत कानून उन अंग्रेजों के बनाये हैं जिनके यहां कोई लिखित कानून हैं। मतलब यह है कि वह एक शब्द समूह यहां अपने गुलामों को थमा गये जिससे पढ़कर हम अभी भी चल रहे हैं।
इस मामले में हम एक सती प्रथा पर रोक के कानून का उल्लेख करना चाहेंगे जिसकी वजह से राजा राममोहन राय को भारत का एक बहुत बड़ा समाज सुधारक माना जाता है। उन्होंने ऐसा कानून बनाने के लिये आंदोलन चलाया था पर इतिहास में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि उस समय देश में सत्ती प्रथा किस हद तक मौजूद थी। अगर उनके आंदोलन की गति को देखें तो लगता है कि उस समय देश में ऐसी बहुत सी घटनायें रोज घटती होंगी पर इसको कोई प्रमाणित नहीं करता। उस समय देश में आजादी के लिये भी आंदोलन चल रहा था। ऐसे में लगता है कि भारत की सती प्रथा के लेकर अंग्रेज कहीं दुष्प्रचार करते होंगे या फिर ऐसी कृत्रिम घटनाओं का समाचार बनता होगा जिससे लगता हो कि यह देश तो भोंदू समाज है। यह कानून बनने से कोई सत्ती प्रथा कम हुई इसका भी प्रमाण नहीं मिलता। संभव है कुछ संपत्ति की लालच में औरतों को जलाकर उसके सत्ती होने का प्रचार करते हों पर ऐसी घटनायें तो देश में इस कानून के बाद भी हुईं। फिर मान लीजिये यह कानून नहीं बनता तो भी इस देश में आत्म हत्या और हत्या दोनों के लिये कानून है तब उसे सत्ती होने वाले मामलों पर लागू किया जा सकता था।
एक बार एक लेखक ने अपने लेख में लिखा था कि वैश्यावृत्ति, जुआ और शराब के कानून तो अंग्रेजों ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ऐसे मामलों में फंसाकर उन्हें बदनाम करने के उद्देश्य से बनाये थे। सच हम नहीं जानते पर इतना जरूर है कि सामाजिक संकटों को राज्य से नियंत्रित करने का प्रयास ठीक नहीं है। समाज को स्वयं ही नियंत्रित होने दीजिये। आखिर इस देश के समाजों के ठेकेदार क्या केवल उनकी भावनाओं का दोहन करने लिये ही बैठे हैं क्या?
वैश्यावृत्ति, जुआ और शराब सामाजिक समस्यायें हैं और इन पर नियंत्रण करने के दुष्परिणाम यह हुए हैं कि जिसके पास धन, बल, और बड़ा पद है पर अपनी शक्ति कानून को तोड़कर दिखाता है। आप भ्रष्टाचार या सार्वजनिक रूप से धुम्रपान करने जैसे अपराधों से इसकी तुलना नहीं कर सकते।
वैश्यावृत्ति कोई अच्छी बात नहीं है। एक समय था जो महिला या पुरुष इसमें संलिप्त होते उनको समाज हेय दृष्टि से देखता था। अनेक बड़े शहरों में वैश्याओं के बाजार हुआ थे जहां से भला आदमी निकलते हुए अपनी आंख बंद कर लेता था। धीरे धीरे वैश्यायें लुप्त हो गयीं पर आजकल कालगर्ल उनकी जगह ले जगह चुकी हैं। पहले जहां अनपढ़ और निम्न परिवारों की लड़कियां जबरन या अपनी इच्छा से इस व्यवसाय में आती थीं पर आजकल पढ़लिखी लड़कियां स्वेच्छा से इस काम में लिप्त होने की बातें समाचारों में में आती है। उसकी वजह कुछ भी हो सकती हैं-घर का खर्चा चलना या अय्याशी करना।
सवाल यह है कि इसका हल समाज को ढूंढना चाहिये या नहीं। इस देश के उच्च वर्ग ने तो अपने बच्चों की शादी को प्रदर्शन करने का एक बहाना बना लिया है। मध्यम वर्ग के परिवार उन जैसे दिखने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। नतीजा यह है कि बड़ी उम्र तक बच्चों के विवाह नहीं हो रहे। इसके अलावा बच्चों के साथ ही उनके अभिभावकों द्वारा उनके जीवन साथी के लिये अत्यंत खूबसूरत काल्पनिक पात्र सृजित कर रिश्ता तलाशा जाता है। लड़की सुंदर हो, काम काज में दक्ष हो, कंप्यूटर जानती हो और कमाना जानती हो-जैसे जुमले तो सुनने में मिलते ही हैं। उस पर दहेज की रकम की समस्या। समाज का यह अंतद्वंद्व सभी जानते हैं पर जिसका समय निकला जाता है वह उसे भुला देता है। जिन्होंने बीस वर्ष की उम्र में शादी कर ली वह अपने पुत्र या पुत्री को तीस वर्ष तक विवाह योग्य नहीं पाते-उनके बारे में क्या कहा जाये? क्या मनुष्य की दैहिक आवश्यकताओं को खुलकर कहने की आवश्यकता है? इंद्रियों को निंयत्रित करना चाहिये पर उनका दमन करना भी संभव नहीं है-क्या यह सच नहीं है।
ऐसा नहीं है कि इस सभी के बावजूद पूरा समाज इसी राह पर चल रहा है। अगर कोई वैश्यावृत्ति में संलिप्त नहीं है तो वह कानून के डर की वजह से नहीं बल्कि पुराने चले आ रहे संस्कारों ने सभी को इसकी प्रेरणा दे रखी है। हमारे संत महापुरुषों ने हमेशा ही व्यसनों से बचने का संदेश दिया है। उसके दुष्परिणाम बताये गए हैं। देश में आज भी नैतिकता को संबल मिला हुआ है क्योंकि वह संस्कारों के सहारे टिकी है। यह भरोसा वह हर विद्वान करता है जो इसे जानता है।
ऐसे में वैचारिक कायरों का वह समूह- जो चाहता है कि रात को टीवी पर खबरें देखते हुए ‘अपने देश की चारित्रिक रक्षा के दृश्य देखकर खुश हों‘-ऐसी बातें कह रहा है जिसको न तो समाज पर विश्वास है न ही अपने पर। पढ़ी लिखी लड़कियां ऐसे मामलों में पकड़े जाने मुंह ढंके दिखती हैं, तब सवाल यह उठता है कि आखिर उनका अपराध क्या है? वह किसको हानि पहुंचा रही थीं? याद रहे अपराध का मुख्य आधार यही है कि कोई व्यक्ति दूसरे को हानि पहुंचाये। अनेक बार अखबार में जुआ खेलते हुए पकड़े जाने वाले समाचार आते हैं। सवाल यह है यह भी शराब जैसे व्यसन है और जिस पर कोई रोक नहीं है।
दरअसल ऐसे कानूनों ने पुरुष समाज को गैर जिम्मेदार बना दिया है। अपने घर की औरतों की देखभाल करने के साथ ही उनपर नज़र रखना अभी तक पुरुषों का ही जिम्मा है। इस कानून ने उनको आश्वस्त कर दिया है कि औरतें डर के बारे में इस राह पर नहीं जायेंगी। समाज के ठेकेदार भी नैतिकता को निजी विषय मानने लगे हैं। इसके अलावा विवाह योग्य पुत्र के माता पिता-पुत्री के भी वही होते हैं उसका रिश्ता तय करते समय भूल जाते हैं-इस विश्वास में अधिक दहेज की मांग करते हैं कि कि कोई न कोई लड़की का बाप मजबूर होकर उनकी शर्ते मानेगा।
इसके अलावा समाज के ठेकेदार उसके नाम पर कार्यक्रम करने के लिये चंदा मांगने और चुनाव के समय उनको अपने हिसाब से मतदान का आव्हान करने के अलावा अन्य कुछ नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि बाकी सुधार के लिये तो राज्य ही जिम्मेदार है। समाज को अंधविश्वासों, रूढ़ियों तथा अनुचित कर्मकांडों से बचने का संदेश इनमें कोई नहीं देता। यही हालत आजकल के व्यवसायिक संतों की है।
एक बात यह भी लगती है कि अंग्रेजों ने इतने सारे कानून शायद इसलिये बनाये ताकि विश्व का बता सकें कि देखिये हम एक पशु सभ्यता को मानवीय बना रहे हैं और आज भी वह इसका दावा करते हैं। इधर अपने देश के वैचारिक कायर चिंतक उन्हीं कानूनों को ढोने की वकालत करते हैं क्योंकि अपने समाज पर विश्वास न रखने की नीति उन्हें अंगे्रजी शिक्षा पद्धति से ही मिलती है। अपने पूरा समाज को कच्ची बुद्धि का समझने की उनकी आदतें बदलने वाली नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि अपराध वह है जिससे दूसरे को हानि पहुंचे। वैश्यावृत्ति, जुआ या सट्टा ऐसे अपराध हैं जिसमें आदमी अपने धन और इज्जत तो गंवाता ही है अपना स्वास्थ्य भी खोता है। किसी स्त्री से जबरन वैश्यावृत्ति कराना अपराध है और इस पर सख्त कार्यवाही होना चाहिये। यही कारण है कि एक विद्वान से यह भी सलाह दी है कि वैश्यावृत्ति में पकड़े गये अपराधियों में इस बात की पहचान करने का प्रावधान हो कि कोई जबरन तो इस कार्य में नहीं लगा हो।
हमारे देश का सामाजिक ढांचा मजबूत है और पूरा विश्व इसे मानता है। हर आदमी घर परिवार से जुड़ा है। अधिकतर पुरुष अपने घरेलू समस्याओं को हल करने के लिये संघर्ष करते हैं। संभव है कुछ घरों में पुरुष सदस्य की बीमारी या आर्थिक परेशानी होने पर कुछ लड़कियां और महिलाऐं इस काम में लगती हों पर सभी एसा नहीं करती बल्कि अधिकतर नौकरी आदि कर अपना काम चलाती है। ऐसे में पूरे समाज को भ्रष्ट होने की आशंका करना बेमानी है। खासतौर से इस देश में जहां रोजगार और संपत्ति मौलिक अधिकार न बना हो। फिर जब समलैंगिकता जैसे मूर्खतापूर्ण कृत्य को छूट मिल रही है तब वैश्यावृत्ति जैसे कानून को बनाये रखने का औचित्य तो बताना ही पड़ेगा न! बुरे काम का बुरा नतीजा सभी जानते हैं और यही कारण है कि मनुष्य की आदतों को नियंत्रित करने का काम उसे ही करने देना चाहिये। आखिर मनुष्य एक समझदार प्राणी है।
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Saturday, December 12, 2009

खुदा और बंदे-हिन्दी साहित्य क्षणिकायें (khuda aur bande-hindi short poem)

धरती  का खुदा

नहीं है बंदों से जुदा।

फिर भी धरती को बचाने के लिये

चंद लोग एकत्रित हो जाते हैं

कभी कोपेनहेगन तो कभी

रियो-डि-जेनेरियों में

महंगी महफिलें सजाते हैं

बिगाड़ दिया है दुनियां का नक्शा

अब फिर तय करने लगे है नया चेहरा

बन रहे  नये खुदा

सोचते ऐसे हैं जैसे

दुनियां के बंदों से हैं जुदा।

---------

गोरों का राज्य मिट गया

पर फिर भी संसार पर हुक्म चलता है।

उसे बजाने के लिये हर

काला और सांवला मचलता है।

कुछ चेहरा है उनका गजब,

तो चालें भी कम नहीं अजब,

काला अंधेरा कर दिया

अपने विज्ञान से,

बीमार बना दिया सारा जमाना

अपने ज्ञान से,

बिछा दी चहुं ओर अपनी शिक्षा,

पढ़लिखकर साहुकार भी मांगे भिक्षा,

बिगाड़ दी हवा सारी दुनियां की

अब ताजी हवा को गोरे तरस रहे हैं,

सारे संसार पर अपने शब्दों से बरस रहे हैं,

विष  लिये पहुंचते हैं सभी जगह

अमृत की तलाश में

फिर भी दान नहीं मांगते

लूट का अंदाज है

फिर भी लोग उन्हें देखकर बहलते हैं।

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Monday, December 7, 2009

उम्मीद और विकास-हिन्दी क्षणिकायें (ummid aur vikas-hindi short poem)

 विकास के वादों का

मौसम जब आता

तब भी अब दिल नहीं मचलता

मालुम है कि

वादा भूलने के लिये ही किया जाता है।

कुछ हो जायेगा जमाने का भी भला

भर जायेगा  जब

वादे करने वालों का घर

विकास से,

तब टपक कर सड़क पर भी

कुछ बूंदें आ ही जायेगा

भले ही बरसात में बह जाता है।

-------

उम्मीद होने पर

तमाम वादे किये जाते हैं।

पूरी होने पर निभाये कोई

इस पर गौर मत करना

झोली भर गयी जिनकी विकास से

दूसरों का दर्द वह भूल जाते हैं।
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Friday, December 4, 2009

पर्यावरण पर नाटकबाजी से काम नहीं चलेगा-आलेख (Environmental drama will not work -hindi Articles)

यह आश्चर्य की बात है कि सारे संसार में आधुनिक साधनों से पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले देश ही उसकी सुरक्षा की बात कर रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस समय विश्व में जिस तरह तापमान बढ़ रहा है उससे मौसम में आया परिवर्तन इस धरती के जीवों के लिये खतरनाक है पर इसको लेकर किसी भी व्यक्ति या देश द्वारा अपनी यह कहकर अपनी शक्ति का यह प्रदर्शन करना ठीक नहीं है कि वह इसके लिये चिंतित है। केवल चिंता करना ही उनकी योग्यता का प्रमाण नहीं हो सकता। अगर किसी को अपनी चिंता की वास्तविकता सािबत करनी है तो उसे पहले अपने कृत्य से साबित करना भी होगा वरना उसे धूर्त ही समझा जायेगा। इस समय विश्व के कुछ विकसित देश अपने आपको दुनियां का सबसे बड़ा खैर ख्वाह समझ रहे हैं पर सच तो यह है कि वही इस देश का पर्यावरण बिगाड़ने के लिये जिम्मेदार हैं। सब जानते हैं कि ओजोन परत में छेद के बढ़ते जाने की वजह से हो रहा है और उसके लिये प्रथ्वी पर उपयोग में आने वाली गैस जिम्मेदार है।
यह प्रदूषण एक दिन में नहीं हुआ और न ही किसी एक गैस से हुआ है। कभी कहा जाता है कि एशिया के देश खाने की गैस का उपयोग करते हैं इसलिये यह गर्मी बढ़ रही है तो कभी अमेरिका की कंपनियों पर भी ऐसे ही आरोप लगते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि गैसों का अधिक उपयोग खतरनाक है पर इसके लिये किसी एक देश या महाद्वीप का जिम्मेदारी ठहराना ठीक नहीं है।
इस चर्चा में परमाणु ऊर्जा के उपयोग तथा उसके बमों का परीक्षण करने की चर्चा बिल्कुल नहीं आती जबकि अमेरिका और चीन ऐसे पता नहीं कितने प्रयोग समंदर और जमीन में कर चुके हैं। उससे जमीन को कितनी क्षति पहुंची और उससे कितनी गैस का विसर्जन हुआ इसका अनुमान कोई नहीं देता। इन दोनों देशों की मानसिकता ही साम्राज्यवादी है। इतना ही नहीं दोनों ही हथियारों के लिये अपना बाजार भी ढूंढते हैं। चीन ने ही पाकिस्तान को परमाणु संपन्न राष्ट्र बनने के लिये मदद की है। इन दोनों ने देशों ने परमाणु विस्फोटों से धरती को कितनी क्षति पहुुंचाई है इसका आंकलन जरूर किया जाना चाहिये। गैसों का उत्सर्जन कोई होने से कोई एक दिन में में पर्यावरण प्रदूषित नहीं हुआ। गैस कोई प्रकाश की गति से नहीं फैलती बल्कि इसके लिये पिछले कई वर्षों से मानवीय लापरवाही का यह नतीजा है। भारत जहां इस मामले में पूरी तरह ईमानदारी दिखा रहा है वहीं चीन और अमेरिका इसके लिये दिखावा अधिक करते हैं। भारत ने परमाणु परीक्षण भी इतने नहीं किये जितने इन देशों ने किये हैं। हालांकि चीन और रूस ने भारत द्वारा 25 प्रतिशत गैस उत्सर्जन कम किये जाने के प्रयास को सराहा है पर सवाल यह है कि यह दोनों देश स्वयं क्या करने जा रहे हैं और जो वादा कर रहे हैं उसे क्या निभायेंगे?
हमारे कहने का केवल यही आशय यह है कि पर्यावरण को राजनीतिक विषय न समझें बल्कि इस पर ईमानदारी से काम करें। विश्व भर में विकास के दावे तो बहुत किये जाते हैं पर साथ ही चल रहे विनाश की अनदेखी नहीं की जा सकती। इस पर अमेरिका तथा अन्य राष्ट्र ईमानदारी से सोचें। खाली नाटकबाजी से कुछ नहीं होने वाला है।
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Tuesday, December 1, 2009

सच का बयां किया-हिन्दी हास्य व्यंग्य (sach ka bayan-hindi vyangya-litreture)

दीपक बापू अपने घर से बाहर निकले ही थे कि सेवक ‘सदाबहार’जी मिल गये। दीपक बापू ने प्रयास यह किया कि किसी तरह उनसे बचकर निकला जाये इसलिये इस मुद्रा में चलने लगे जैसे कि किसी हास्य कविता के विषय का चिंतन कर रहे हों जिसकी वजह से उनका ध्यान सड़क पर जा रहे किसी आदमी की तरफ नहीं है। मगर सदाबहार समाज सेवक जी हाथ में कागज पकड़े हुए थे और उनका काम ही यही था कि चलते चलते शिकार करना। वह कागज उनके रसीद कट्टे थे जिसे लोग पिंजरा भी कहते हैं।
‘‘ऐ, दीपक बापू! किधर चले, इतना बड़ी हमारी देह तुमको दिखाई नहंी दे रही। अरे, हमारा पेट देखकर तो तीन किलोमीटर से लोग हमको पहचान जाते हैं और एक तुम हो कि नमस्कार तक नहीं करते।’उन्होंने दीपक बापू को आवाज देकर रोका
उधर दीपक बापू ने सोचा कि’ आज पता नहीं कितने से जेब कटेगी?’
उन्होंने समाज सेवक जी से कहा-‘नमस्कार जी, आप तो जानते हो कि हम तो कवि हैं इसलिये जहां भी अवसर मिलता है कोई न कोई विषय सोचते हैं। इसलिये कई बार राह चलते हुए आदमी की तरफ ध्यान नहीं जाता। आप तो यह बतायें कि यह कार यात्रा छोड़कर कहां निकल पड़े?’
सेवक ‘सदाबहार’जी बोले-अरे, भई कार के बिना हम कहां छोड़ सकते हैं। इतना काम रहता है कि पैदल चलने का समय ही नहीं मिल पाता पर समाज सेवा के लिये तो कभी न कभी पैदल चलकर दिखाना ही पड़ता है। कार वहां एक शिष्य के घर के बाहर खड़ी की और फिर इधर जनसंपर्क के लिये निकल पड़े। निकालो पांच सौ रुपये। तुम जैसे दानदाता ही हमारा सहारा हो वरना कहां कर पाते यह समाज सेवा?’
दीपक बापू बोले-‘किसलिये? अभी पिछले ही महीने तो आपका वह शिष्य पचास रुपये ले गये था जिसके घर के बाहर आप कार छोड़कर आये हैं।’
सेवक ‘सदाबहार’-अरे, भई छोटे मोटे चंदे तो वही लेता है। बड़ा मामला है इसलिये हम ले रहे हैं। उसने तुमसे जो पचास रुपये लिये थे वह बाल मेले के लिये थे। यह तो हम बाल और वृद्ध आश्रम बनवा रहे हैं उसके लिये है। अभी तो यह पहली किश्त है, बाकी तो बाद में लेते रहेंगे।’
दीपक बापू ने कहा-‘पर जनाब! आपने सर्वशक्तिमान की दरबार बनाने के लिये भी पैसे लिये थे! उनका क्या हुआ?
सदाबहार जी बोले-‘अरे, भई वह तो मूर्ति को लेकर झगड़ा फंसा हुआ है। वह नहीं सुलट रहा। हम पत्थर देवता की मूर्ति लगवाना चाहते थे पर कुछ लोग पानी देवता की मूर्ति लगाने की मांग करने लगे। कुछ लोग हवा देवी की प्रतिमा लगवाने की जिद्द करने लगे।’
दीपक बापू बोले-‘‘तो आप सभी की छोटी छोटी प्रतिमायें लगवा देते।’
सदाबहार जी बोले-कैसी बात करते हो? सर्वशक्तिमान का दरबार कोई किराने की दुकान है जो सब चीजें सजा लो। अरे, भई हमने कहा कि हमने तो पत्थर देवता के नाम से चंदा लिया है पर लोग हैं कि अपनी बात पर अड़े हुए हैं। इसलिये दरबार का पूरा होना तो रहा। सोचा चलो कोई दूसरा काम कर लें।’
दीपक बापू बोले-पर सुना है कि उसके चंदे को लेकर बहुत सारी हेराफेरी हुई है। इसलिये जानबूझकर झगड़ा खड़ा किया गया है। हम तो आपको बहुत ईमानदार मानते हैं पर लोग पता नहीं आप पर भी इल्जाम लगा रहे हैं। हो सकता है कि आपके चेलों ने घोटाला किया हो?
सदाबहार जी एक दम फट पड़े-‘क्या बकवाद करते हो? लगता है कि तुम भी विरोधियों के बहकावे मंें आ गये हो। अगर तुम्हें चंदा न देना हो तो नहीं दो। इस संसार में समाज की सेवा के लिये दान करने वाले बहुत हैं। तुम अपना तो पेट भर लो तब तो दूसरे की सोचो। चलता हूं मैं!’
दीपक बापू बोले-हम आपकी ईमानदारी पर शक कर रहे हैं वह तो आपके चेले चपाटों को लेकर शक था!
सदाबहार जी बोले-ऐ कौड़ी के कवि महाराज! हमें मत चलाओ! हमारे चेले चपाटों में कोई भी ऐसा नहीं है। फिर हमारे विरोधी तो हम पर आरोप लगा रहे हैं और तुम चालाकी से हमारे चेलों पर उंगली उठाकर हमें ही घिस रहे हो! अरे, हमारे चेलों की इतनी हिम्मत नहीं है कि हमारे बिना काम कर जायें।’
दीपक बापू बोले-‘मगर मूर्ति विवाद भी तो उन लोगों ने उठाया है जो आपके चेले हैं। हमने उनकी बातें भी सुनी हैं। इसका मतलब यह है कि वह आपके इशारे पर ही यह विवाद उठा रहे हैं ताकि दरबार के चंदे के घोटाले पर पर्दा बना रहे।’
सर्वशक्तिमान बोले-‘वह तो कुछ नालायक लोग हैं जिनको हमने घोटाले का मौका नहीं दिया वही ऐसे विवाद खड़ा कर रहे हैं। हमसे पूछा चंदे के एक एक पैसे का हिसाब है हमारे पास!
दीपक बापू बोले-‘तो आप उसे सार्वजनिक कर दो। हमें दिखा दो। भई, हम तो चाहते हैंें कि आपकी छबि स्वच्छ रहे। हमें अच्छा नहीं लगता कि आप जो भी कार्यक्रम करते हैं उसमें आप पर घोटाले का आरोप लगता है।
सदाबहार जी उग्र होकर बोले-‘देखो, कवि महाराज! अब हम तो तुम से चंदा मांगकर कर पछताये। भविष्य में तो तुम अपनी शक्ल भी नहीं दिखाना। हम भी देख लेंगे तो मुंह फेर लेंगे। अब तुम निकल लो यहां से! कहां तुम्हारे से बात कर अपना मन खराब किया। वैसे यह बात तुम हमारे किसी चेले से नहीं कहना वरना वह कुछ भी कर सकता है।’
सदाबहार जी चले गये तो दीपक बापू ने अपनी काव्यात्मक पंक्तियां दोहराई।
हमारी कौड़ियों से ही उन्होंने
अपने घर सजाये
मांगा जो हिसाब तो
हमें कौड़ा का बता दिया।
खता बस इतनी थी हमारी कि
हमने सच का बयां किया।’
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Thursday, November 26, 2009

जिंदगी का अहसास-हिंन्दी चिंतन और कविता(zindagi ka ahsas-hindi chintan aur kavita)

आदमी अपनी जिंदगी को अपने नज़रिये से जीना चाहता है पर जिंदगी का अपना फलासफा है। आदमी अपनी सोच के अनुसार अपनी जिंदगी के कार्यक्रम बनाता है कुछ उसकी योजनानुसार पूर्ण होते हैं कुछ नहीं। वह अनेक लोगों से समय समय पर अपेक्षायें करता है उनमें कुछ उसकी कसौटी पर खरे उतरते हैं कुछ नहीं। कभी कभी तो ऐसा भी होता है कि संकट पर ऐसा आदमी काम आता है जिससे अपेक्षा तक नहीं की जाती। कहने का तात्पर्य यह है कि जिंदगी भी अनिश्तताओं का से भरी पड़ी है पर आदमी इसे निश्चिंतता से जीना चाहता है। बस यहीं से शुरु होता है उसका मानसिक द्वंद्व जो कालांतर में उसके संताप का कारण बनता है। अगर आदमी यह समझ ले कि उसका जीवन एक बहता दरिया की तरह चलेगा तो उसका तनाव कम हो सकता है। जीवन में हर पल संघर्ष करना ही है यही भाव केवल मानसिक शक्ति दे सकता है। इस पर प्रस्तुत हैं कुछ काव्यात्मक पंक्तियां-
खुद तरसे हैं
जो दौलत और इज्जत पाने के लिये
उनसे उम्मीद करना है बेकार।
तय कोई नहीं पैमाना किया
उन्होंने अपनी ख्वाहिशों
और कामयाबी का
भर जाये कितना भी घर
दिल कभी नहीं भरता
इसलिये रहते हैं वह बेकरार।
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समंदर की लहरों जैसे
दिल उठता और गिरता है।
पर इंसान तो आकाश में
उड़ती जिंदगी में ही
मस्त दिखता है।
पांव तले जमीन खिसक भी सकती है
सपने सभी पूरे नहीं होते
जिंदगी का फलासफा
अपने अहसास कुछ अलग ही लिखता है।
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Wednesday, November 25, 2009

हिंदी समाचार-हास्य व्यंग्य कविता (samachar in hindi-hasya kavita)

समाचार भी अब फिल्म की तरह

टीवी पर चलते हैं।

हास्य पैदा करने वाले विज्ञापनों के बीच

दृश्यों में हिंसा के शिकार लोगों की याद में

करुणामय चिराग जलते हैं।

--------

समाचार भी खिचड़ी की तरह

परदे पर सजाये जाते हैं।

ध्यान रखते हैं कि 

हर रस वाला समाचार

लोगों को सुनाया जाये

किसी को हास्य तो किसी को वीर रस

अच्छा लगता है

कुछ लोग करुणारस पर

मंत्र मुग्ध हो जाते हैं।

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Tuesday, November 24, 2009

यकीन नहीं करना-हिंदी व्यंग्य कवितायें (yakeen nahin karna-hindi vyangya kavita)

शहर के सारे तलवारबाज बाशिंदे
कातिल को तलाश रहे थे।
मिलता कहां भला वह
शामिल जो था उनमे
उसके कातिल हाथ
पहरेदार की पहचान पा रहे थे।
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जो सुना
जो देखा
जो हाथ से छुआ
उसकी पहचान पर फिर भी यकीन नहीं करना
देखने और सुनने के
बिक रहे बाजार में नये औजार
जिनको हाथ से छूते ही
अक्ल गायब हो जाती है
झूठ भी लगता है सच
जो पैदा नहीं हुआ
वही शख्स जिंदा चलता दिखता है
सारी दुनियां कहे
फिर भी आजमाये बिना यकीन नहीं करना।

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Saturday, November 21, 2009

हाथ में हथियार हो तो मति भ्रष्ट हो ही जाती है-आलेख (hath men hathiyar-hindi lekh)

 यह आश्चर्य की बात है कि इस देश के कुछ बुद्धिजीवी हिंसक आंदोलनों में समाज के आदर्श तलाश रहे हैं।  इन बुद्धिजीवियों में कई लोग तो जो उस पश्चिम से ही अपनी रचनाओं के कारण पुरुस्कृत हैं जिनकी सम्राज्यवादी नीति के खिलाफ जूझ रहे हैं। मजे की बात यह है कि इस देश के प्रचार माध्यम-टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकायें-उनकी बात को छापते हैं जबकि आम आदमी उनको जानता तक नहीं हैं। शायद इस देश के प्रचार माध्यमों की आदत है कि वह कमाते  हिंदी भाषा से  हैं पर उनको लेखक अंग्रेजी के पंसद आते हैं और यह कथित अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भारतीय विजेता अंग्रेजी में लिखते हैं। उनका विषय भी वही होता है भारतीय गरीबी और सामाजिक शोषण।  बहरहाल उन्हें वर्तमान में हर भारतीय शिष्ट व्यक्ति शोषक नजर आता है सिवाय अपने।  इसके अलावा भी कुछ अन्य बुद्धिजीवी भी है जो इस आशा के साथ गरीब और शोषक के लिये संघर्ष करते हुए नजर आते हैं कि शायद कभी किसी पश्चिमी देश की नजर उन पर पड़ जाये और वह पुरुस्कार प्राप्त करें।  कभी कभी तो लगता है कि यह बुद्धिजीवी प्रायोजित हैं जिनको यह दायित्व दिया गया है कि जितना भी हो सके भारतीय समाज को अपमानित करो।  बहरहाल ऐसे ही बुद्धिजीवी देश में चल रहे हिंसक आंदोलनों  में नये समाज के आधार ढूंढ रहे हैं।  सच तो यह है कि वह जिसका खाते हैं उसी की कब्र खोदते हैं। 

इससे पहले कश्मीर में चल रही हिंसा में उन्होंने अपनी असलियत दिखाते रहे और अब पूर्वोत्तर में चल रही हिंसा में भी वही उनका रवैया है जो इस देश के समाज के अनुकूल कतई नहीं है।  इनमें कई तो लेखक चीन की माओवादी नीति के समर्थक हैं जो इस एशिया में हथियारों को बेचने वाला सबसे बड़ा सौदागर है।  अगर हम चीन और पश्चिमी देशों की नीतियों को देखें तो वह हिंसा भड़काकर ही अपने हथियार बेचते हैं।  कभी कभी तो लगता है कि उसके दलालों के रूप में ही यहां अनेक बुद्धिजीवी हैं जो इस हिंसा का प्रत्यक्ष समर्थन करते हैं।  दरअसल आज हम जिन आंदोलनों  में प्राचीन विद्रोहों जैसी परिवर्तन की संभावना देखते हैं वह निर्मूल हैं।  आजकल के ऐसे आंदोलनकारियों का नेतृत्व हिंसा के व्यापरियों से जुड़े दलालों  के हाथों में जाता प्रतीत होता है जिनको नेता तो बस कहा जाता है।

इनके तर्क हास्यास्पद और निराधार ही होते हैं। हम पूर्वोत्तर की हिंसा में अगर देखें तो उसमें चीनी सरकार के हाथ होने के आरोप लगते हैं।  बहरहाल किसी भी वाद या भाषा, धर्म, क्षेत्र तथा जाति के नाम पर देश में कहीं भी चल रही हिंसा को देखें तो वह केवल एक व्यापार लगती है और उनमें कोई सिद्धांत या आदर्श ढूंढना एक प्रायोजित प्रयास प्रतीत होता है।  जहां तक गरीबों और शोषकों के भले की बात है तो वह केवल एक भ्रामक प्रचार है जो आम आदमी में कल्पना की तरह स्थापित किया जाता है।  पहली बात तो आधुनिक लोकतंत्र की कर लें जिसे यह बुद्धिजीवी ढकोसला कहते हैं। चीन का मसीहा माओ कभी भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्षधर नहीं था पर भारत के इन बुद्धिजीवियों का अगर वह अध्ययन करता तो शायद अपने यहां इसकी इजाजत देता क्योंकि उसे लगता कि इसकी तो उसके अनुयायियों को जरूरत ही नहीं है।  इन बुद्धिजीवियों ने जितनी बातें यहां  की हैं उसके दसवें हिस्से में तो उनको चीन  में  फांसी हो जाती-वहां कितनी असहिष्णुता है सभी जानते हैं। यह लोकतंत्र ही जहां जो  मजे कर रहे हैं। समाज पर आक्षेप करके और कभी कभी तो कश्मीर पाकिस्तान को देने जैसी राष्ट्रद्रोही बातें करने पर भी  यहां प्रचार माध्यमों में लोकप्रिय प्राप्त करते हैं। फिर  जब वह कहते हैं कि देश की राजनीति, आर्थिक तथा सामाजिक पर बैठे शिखर पुरुष भ्रष्ट हैं तो उन्हें यह भी बताना चाहिये कि-

1-क्या उन हिंसक आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हिंसा के व्यापारिक दलाल-कथित नेता-दूध के धुले हैं?  आखिर यह बुद्धिजीवी किस आधार पर उनको अन्य शिखर पुरुषों से अलग मानते हैं। इनके व्यक्तिगत चरित्र का क्या उन्होंने पूरा आंकलन कर लिया है या करना नहीं चाहते। आप जब देश के आर्थिक, राजनीति, और सामाजिक शिखर पर बैठे लोगों के चरित्र की मीमांसा करते हैं तो आपको यह नहीं बताना चाहिये कि आपके द्वारा समर्थित हिंसक आंदोलनों के प्रमुखों का कैसा चरित्र है? क्या सभी पवित्र हैं। 

2-मुखबिरी के आरोप में आदिवासियों, गरीबों और शोषकों को ही मारने वालों में वह किस तरह उन्हीं के समाजों का रक्षक मानते हैं? क्या जिन स्वजातीय या वर्ग के जिन लोगों को उन्होंने मारा उनको सजा देने का हक उनको था? फिर जब तब वह अपहरण या हमले की वारदात करते हैं उस समय तीन चार सौ लोगों की भीड़ जुटाते हैं क्या वह डर के मारे उनके साथ नहीं आती?

3-इन हिंसक आंदोलनों के नेताओं का राजनीतिक प्रशिक्षण आखिर किन लोगों के बीच में हुआ है?

देश में शोषण और संघर्ष हुआ है पर उनमें इन हिंसक तत्वों में ही समाज का बदलाव देखना अपने आपको धोखा देना है।  इन पंक्तियों का लेखक जाति, भाषा, क्षेत्र और धर्म के नाम बने समूहों को ही भ्रामक मानता है पर दूसरा सच यह है कि फायदे के लिये लोग अपने समूहों का उपयोग करते हैं।  दलित, आदिवासियों और मजदूरों के कथित संरक्षकों  क्या यह पता है कि चीन में एक ही जाति और वर्ग के लोग सत्ता पर हावी हैं और वहां आज भी जातीय संघर्ष होते हैं। इसके अलावा तिब्बत पर कब्जा जमाये बैठा चीन भारतीय क्षेत्रों पर भी दावा जताकर अपने सम्राज्यवादी होने का सबूत देता है।  चीन की तरक्की एक धोखा है।  कुछ अमेरिकी विशेषज्ञ साफ कहते हैं कि उसके विकास के पीछे अपराध जगत का भी योगदान है।  माओ भारत का शत्रु था और उसका यहां नाम लेना एक तरह से भारतीय समाज को चिढ़ाना ही है।  गरीब और शोषक की चिंता समाज को करना चाहिये वह नहीं करता तो उसकी सजा भी वह भोगता है पर कम से कम यह हिंसक तत्व किसी भी तरह उन लोगों के हितैषी नहीं है जो बंदूक सामने रखकर लोगों को इस बात के लिये बाध्य करते हैं कि वह उनके आंदोलन का हिस्सा बने। अगर वह यह साबित करना चाहते हैं कि लोग उनके साथ आंदोलन दिल से जुड़े हैं तो वह अपने कंधों से वह बंदूक हटा लें तो अपनी औकात का पता लग जायेगा? जहां तक लोकतंत्र का सवाल है तो सत्याग्रह और प्रदर्शन कर वह अपने मसले उठा सकते हैं पर ऐसा कोई प्रयास उन्होंने किया हो कभी ऐसा समाचार देखने या पढ़ने में नहीं आता-जैसा कि अभी किसानों ने कर दिखाया था।  इन बुद्धिजीवियों ने भी भारत में यह फैला रखा है कि यहां जातीय तनाव है जबकि चीन इससे मुक्त नहीं है-संभव है इस लेख में टिप्पणियों के रूप में कोई इस बात का प्रमाण भी रख जाये जैसे कि पहले के लेखों पर लिखी गयी थी। इन टिप्पणियों से ही यह पता लगा कि वहां भी उच्च वर्ग और जातियां हैं जिन्होंने कार्ल माक्र्स की आड़ में अपनी सत्ता कायम की है। इसी कारण वहां भी जातीय संघर्ष कम नहीं होता है।  सच बात तो यह है कि अंग्रेजी लेखकों के मोह ने ही भारतीय प्रचार माध्यमों को भी आज इस हालत में पहुंचाया है कि उन पर लोग उंगली उठा रहे हैं। अपने देश के हिंदी लेखकों के प्रति अत्यंत निम्न कोटि का व्यवहार रखने वाले प्रचार माध्यमों का साथ आम आदमी इसलिये जुड़ा है क्योंकि उसे कोई अन्य मार्ग नहीं मिलता।  यही कारण है कि विदेशी लोग उन भारतीय लेखकों को पुरुस्कृत करते रहे हैं जो अंग्रेजी में लिखते हैं उनको पता है कि हिंदी में लिखे की तो यहां भी इज्जत नहीं है फिर उनको प्रचार माध्यम हाथों हाथ उठाते हैं।  इसलिये वह भारतीय समाज की खिल्ली उड़ाने  या बेइज्जती करने वाले अंग्रेजी लेखकों को पुरुस्कार देते हैं।  हिन्दी भाषा के महान लेखक श्री नरेंद्र कोहली ने  अपने भाषण में इसकी चर्चा की थी-याद रहे भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों और संस्कृति में सामयिक रूप से लिखने में उनका कोई सानी नहीं है।

कहने का तात्पर्य यह है कि गरीबों, आदिवासियों, मजदूरों और दलितों को सम्मान पूर्वक जीवन जीने का अधिकार मिलना चाहिये। इसके लिये सामाजिक आंदोलन किये जायें अच्छी बात है पर जिसमें राजनीतिक और आर्थिक-जी हां, इन हिंसक आंदोलन के अनेक नेताओं पर तमाम तरह के आर्थिक और सामाजिक आरोप हैं जो उनके ही लोग लगाते हैं-हित साधने की बात हैं वहां सिद्धांत और आदर्श तो केवल दिखावा रह जाते हैं।  बार बार यह कहना कि हिंसक आंदोलनों को कुचलने की बजाय राज्य सत्ता उनसे बात करे, पूरी तरह गलत है।  राज्य सत्ता के पास इसके अलावा कोई मार्ग नहीं होता कि वह अपने देश में चल रही हिंसा के साथ  कड़ाई से निपटे, यह उसका जिम्मा है क्योंकि हर नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना उसका दायित्व है और जिसे यह हिंसक तत्व नष्ट करते हैं।  सामान्य नागरिक को हिंसा से परहेज करना चाहिये पर राजसत्ता ऐसा नहीं कर सकती। इन बुद्धिजीवियों को पता ही नहीं इस दुनियां में चलने के दो ही मार्ग हैं। एक तो अध्यात्मिक सत्संग का है जिसमें अपनी दाल रोटी खाओ और प्रभु के गुन गाओ। दूसरा राजधर्म है जिसमें अपने नागरिकों की रक्षा के लिये राज्य प्रमुख किसी भी हद तक चला जाये।  हिंसक तत्वों से यह आशा करना ही बेकार है कि वह कोई सौहार्द भाव किसी के प्रति रखते हैं क्योंकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि जिसके हाथ में हथियार है उसकी मति भ्रष्ट हो ही जाती है। ऐसे में इन हिंसक तत्वों द्वारा प्रचारित विचारों और योजनाओं पर चर्चा करना भी बेमानी लगती है।
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Monday, November 16, 2009

पाखंड की तस्वीर-व्यंग्य कविता (pakhand ke tasvir-vyangya kavita)

कब तक पाखंड को
सच माने
उसकी भी एक उम्र होती।
सोच के अंधेरे में
जब तक दिखता
सच लगता है
जो रौशन हुए ख्याल
उसकी तस्वीर खंड खंड होती।
सौ बार बोलने से झूठ भी
सच लगने लगता है
पर उसकी तस्वीर मुकम्मल नहीं होती।

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Sunday, November 15, 2009

कपड़ो की राशि कम से कम भरना-दो हास्य व्यंग्य कविताएँ (kapdon ke rakam-hindi hasya vyangka kavitaen

अश्लीलता और श्लीतता में
अंतर कितना रह गया है
बस छह इंच के कपड़े का।
क्यों इतना रोज छोड़ मचता है
खत्म कर दो हर कायदा
कोई पहने या न पहने
लगा दो एक नारा चैराहे पर
अपनी इज्जत की रक्षा खुद करें
दूसरे में तब देखें
पहले अपनी आंखों में शर्म भरें
नहीं मिलेगा कोई पहरेदार
आपनी आबरू के लिये बनो खुद्दार
और भी जमाने में मुसीबतें हैं
नहीं करेगा कोई कायदा हिफाजत
हल खुद ही करो पहनावे के लफड़ा।
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निर्देशक ने अपनी फिल्म के
कपड़ा निर्देशक से
चर्चा करते हुए कहा
‘भई, यह कम बजट की फिल्म है
इसलिये अधिक पैसे की उम्मीद नहीं करना।
इसमें केवल नायक के कपड़े ही
अधिक बनाने होंगे
नायिका तो पूरी फिल्म में छह इंच के ही
वस्त्र धारण करेगी
कभी कभी एक फुट का भी वेश धरेगी
इसलिये अपने अनुबंध में
कपड़ों की राशि कम से कम भरना।

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Thursday, November 12, 2009

इश्क का सबूत-हास्य व्यंग्य कविता (ishq ka saboot-hasya vyangya kavita)

आशिक ने कहा माशुका से
‘तुझे में इतना प्यार करता हूं
तेरी हर अदा पर मरता हूं
तुम कहो तो चांद को जमीन
पर ले आंऊ।’
सुनकर माशुका ने कहा
’‘किस जमाने में रहते हो
जो यह पौंगापंथी बातें कहते हो
चांद क्या सिर में डालूंगी
छोटे से कमरे में
मेरा ही दम घुटता है
उसे रखकर मैं कैसे चैन पा लूंगी
वैसे तो मेरी समस्या पानी की है
जिससे भरते हुए
मेरी सुबह परेशानी में गुजरती है
नल कभी आते नहीं हैं
टैंकर के इंतजार में बैठकर आहें भरती हूं
नहीं आता तो फिर
दूर जाकर बर्तन में पानी भरती हूं
सुना है चांद पर भी पानी है
हो सके तो वहां से
पानी को धरती पर लाने का जुगाड़ बनाओे
शादी बाद में होगी
पहले तुम आधुनिक भागीरथ बन कर दिखाओ
तो मैं सारे जमाने को अपने इश्क का सबूत दिखाऊं।’’

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Wednesday, November 11, 2009

पैसे से वाहन खरीदा है सड़क नहीं-व्यंग्य लेख (vahan aur sadak-vyangya lekh)

अब यह फिल्मों का ही प्रभाव कहा जा सकता है कि रास्ते पर गाड़ी चलाने वाले लड़के लड़कियां अपने आपको नायक नायिका से कम नहीं समझा करते। फिल्मों में अनेक गीत नायक नायिका को रास्ते पर कार या मोटर साइकिलें चलाते हुए फिल्माये जाते हैं। वह लड़के लड़कियों के दिमाग में इस तरह अंकित रहते हैं कि जब गाड़ी पर उनका पंाव आता है तो वह ऐसे सोचते हैं जैसे कि वह किसी फिल्म का अभिनय कर रहे हैं। उनको शायद पता ही नहीं नायक नायिका के ऐसे गाने वाले दृश्य रास्ते पर पैदल या गाड़ियों चलाते हुए फिल्माये दृश्यों को स्टूडियो में तैयार किया जाता है। वहां उनके आसपास ऐसा आदमी नहीं आ सकता जिसे फिल्म का निदेशक न चाहे।
आम सड़क पर ऐसा नहीं होता। वह निजी सड़क नहीं है और न ही वहां आपके लिये ऐसी कोई सुविधा है।
एक समस्या दूसरी भी है जिसे समझ लें। खराब सड़कों पर कम ही दुर्घटना होती है क्योंकि वहां लोग वाहन पर ही क्या पैदल ही सोचकर धीमी गति से चलते हैं। कभी कभी तो इतनी धीमी गति हो जाती है कि स्कूटर बंद कर ही उस पर बैठकर उसे घसीटा जाता है। अधिकतर दुर्घटनायें साफ सुथरी और डंबरीकृत सड़कों पर ही होती है जहां गाड़ियां तीव्र गति से चलाने में मजा आता है।
जब भी दुर्घटना की खबरें आती हैं ऐसी ही सड़कों से आती हैं। कार या मोटर साइकिल निजी रूप से आकर्षक वाहन हैं पर सड़कें केवल उनके लिये नहीं है। इन पर ट्रक और बसें भी चलती हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि ट्राली के साथ जुड़े ट्रेक्टर भी चलते हैं जिनके कुछ चालक उनको बैलगाड़ी की तरह चलाते हैं। यह ट्राली ऐसे ही जैसे भैंस! पत नहीं कब सड़क पर थोड़ा झटका खाने से उसकी कमर मटक जाये। उसके समानांतर चलते हुए हमेशा चैकस रहना चाहिये।
आखिर यह ख्याल क्यों आया? उस दिन सड़क पर दो लड़के अपनी मोटर साइकिल पर ट्रेक्टर और ट्राली के एकदम समानातंर जा रहे थे। आगे बैठा लड़का अपनी धुन में कुछ ऐसा आया कि दोनो हाथ छोड़कर मोटर साइकिल चलाता रहा। पता नहीं वहां उसके आगे कोई छोटा पत्थर का टुकड़ा या कागज को कोई छोटा ठोस पुलिंदा आ गया जिससे मोटर साइकिल लड़खड़ी गयी। मोटर साइकिल ट्राली की तरफ बढ़ती इससे पहले ही लड़के ने संभाल लिया। यह दृश्य देखकर किसी की भी सांस थम सकती थी। याद रखिये जब वाहन की गति तीव्र होती है तब रास्ते पर पड़ी कोई छोटी ठोस चीज भी उसको विचलित कर सकती है। हवाई जहाज को आकाश में चिड़िया भी विचलित कर देती है-ऐसी अनेक घटनाएं अखबारों में पढ़ी जा सकती हैं।
यह तो केवल एक वाक्या है? यह सड़कें गरीब और अमीर दोनों के लिये बनी है। अपनी कार पर इतना मत इतराओ कि साइकिल छू जाने पर किसी गरीब को मारने लगो। यह सड़क केवल अमीर की नहीं है क्योंकि जिंदगी भी केवल वह नहीं जीते! यह सड़के के्रवल अमीरों की इसलिये भी नहीं है क्योंकि मौत भी केवल गरीब की नहीं होती। एक दिन वह अमीरों को भी लपेटती है। कार या मोटर साइकिल से टकराकर साइकिल सवार गरीब मरेगा तो कार और मोटर साइकिल वाले भी ट्रक, बस और ट्रेक्टर ट्राली से टकराकर बच नहीं सकते। तुम अपने पैसे से वाहन खरीदते हो सड़क नहीं।
नित प्रतिदिन दुर्घटनाऐं और टकराने पर जिस तरह झगड़े होते हैं उससे तो देखकर यही लगता है कि हम लोगों को रास्ते पर चलने की तमीज नहीं है। फिल्मी और धारावाहिक दृश्यों ने हमारी अक्ल का बल्ब फ्यूज कर दिया है।
कभी कभी तो लगता है कि सड़के तो उबड़ खाबड़ ही ठीक हैं क्योंकि लोग वाहनों को चलाते नहीं बल्कि घसीटते ही ठीक रहते हैं जहां उनको गति बढ़ाने का अवसर मिला वहां अपना होश हवास खो देते हैं। इसका मतलब क्या यह समझें कि हम अच्छी सड़कों के लायक नहीं है। याद रखो दुर्घटना के लिये सैकण्ड का हजारवां हिस्सा भी काफी है। इसलिये सड़क पर चलते हुए जल्दबाजी से बचो। इसलिये नहीं कि घर पर तुम्हारा कोई इंतजार कर रहा है बल्कि इसलिये क्योंकि बेमौत किसी को दूसरे क्यों मारना चाहते हो या मरना चाहते हो। न भी मरे तो शरीर का अंग भंग हमेशा ही जीवन का दर्द बन जाता है। हो सकता है कि इसमें लेख में कुछ कटु बातें हों पर क्या करें दर्द की दवा तो कड़वी भी होती है। वैसे भी कहते हैं कि नीम कड़वा है पर स्वास्थ के लिये उसका बहुत महत्व है। इस पर कुछ काव्यात्मक अभिव्यक्ति के रूप में पंक्तियां।


सड़कों पर इतनी तेज मत चलो कि
जमीन पर आ गिरो
पांव जमीन पर ही रखो
हवा में उड़ने की कोशिश मत करो कि
अपने ही ओढ़े दर्द के जाल में घिरो।
एक पल ही बहुत है दुर्घटना के लिये
वाहनों पर बिना अक्ल साथ लिये यूं न फिरो।
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Monday, November 9, 2009

शब्द ऋषि और क्रिकेट-आलेख (shabda rishi aur cricket maich-hindi lekh)

उन महान शब्द ऋषि की मृत्यु की खबर ने स्तब्ध कर दिया। यह लेखक घर से बाहर अपने काम पर जाने की तैयारी कर रहा था। उसी समय टीवी पर यह खबर दिखाई दी। खबर यह थी कि‘अपने प्रिय खिलाड़ी के आउट होने के बाद भारतीय टीम की हार का सदमा उनसे सहन नहीं हुआ।’
मन ही मन यह शब्द फूट पड़े‘हे शब्द ऋषि! आप तो सत्य के अन्वेषण करने वाले तपस्वी थे फिर कहां इस मिथ्या खेल में मन फंसाये बैठे थे।’
एक तरफ उनके निधन का दुःख और दूसरा क्रिकेट के प्रति उनके लगाव पर आश्चर्य एक साथ हो रहा था। ऐसे में अधिक शब्द नहीं सूझ पाये।
इस हिंदी भाषा में अनेक पत्रकार आये और गये पर जिसने आजादी के बाद एक हिंदी पत्रकार के रूप में अकेले ख्याति अर्जित की तो उसमें वही एक व्यक्ति थे। कहने को तो अनेक प्रकाशक ही अपना नाम संपादक के रूप में लिखते हैं। इसके अलावा अधिकतर समाचार पत्र अंग्रेजी के लेखकों के अनुवाद कर उनको हिंदी में प्रतिष्ठित करते हैं इसलिये हिंदी में एक प्रतिष्ठित और ऐतिहासिक पत्रकार बनना हरेक के बूते नहीं होता। केवल हिंदी के दम पर महान पत्रकार का दर्जा केवल उन्हीं महर्षि को ही दिया जा सकता है क्योंकि उनका लिखा अनुवाद के माध्यम से नहीं पढ़ा गया।
एक गैरपूंजीपति पत्रकार हमेशा अपना जीवन एक सामान्य आदमी की तरह व्यतीत करता है और उन्होंने भी यही किया। लिखने में जब विशिष्टता प्राप्त होती है तब आदमी अत्यंत सहज हो जाता है। उसे अपनी विशिष्टता का अहंकार नहीं आता क्योंकि उसे एक के बाद दूसरी रचना करनी होती है।
वह शब्द ऋषि एक आदमी की तरह जिया। इस लेखक से कभी उनकी मुलाकात नहीं हुई पर उनके अनेक लेख पढ़े। क्या गजब की लेखनी थी? हर पंक्ति में अपना अर्थ था। उनकी भाषा शैली की नकल अनेक पत्रकार करने का प्रयास करते हैं। लंबें चैड़े वाक्यों में हिंदी के आकर्षक शब्दों का प्रयोग करने की शैली को कोई दूसरा छू नहीं पाया पर कुछ लोग कोशिश करते हैं पर जो पढ़ने वाले जानते हैं उनका स्तर कितना ऊंचा था।
फिर क्रिकेट जैसे खेल में उनका मन कैसे फंसा। वह खेल प्रेमी थे। अपने ही अखबारों में क्रिकेट के संबंध में समय समय पर जो प्रतिकूल छपता है क्या वह पढ़ते नहीं थे? हमने तो उनका अखबार पढ़ते ही पढ़ते क्रिकेट देखा और फिर देखना कम कर दिया। किसी पर यकीन नहीं है। किसी क्रिकेट खिलाड़ी में लगाव नहीं है। हार जीत के समाचार जबरन सामने आते हैं तो देख लेते हैं। जिस मैच को देखने के बाद उनके दिल ने साथ छोड़ा उसकी खबर हमने उनके परमधाम गमन के साथ ही सुनी।
संभव है कि जान बूझकर इसका प्रचार किया गया हो कि देखो कैसे इस देश में जुनून की तरह माना जाता है-हालांकि मैच के समय जिस तरह पहले सड़कों पर इसकी चर्चा देखते थे अब नहीं दिखती । एक तरह से संदेश होता है कि अगर आप क्रिकेट नहीं देखते तो इसका मतलब है कि आप युवा नहीं है-जैसे कि क्रिकेट कोई सैक्सी खेल हो।
बहरहाल उन शब्द ऋषि के देहावसान की खबर ने दुःख तो दिया पर सच बात तो यह है कि एक दिन यह सभी के साथ होना है। फिर हम कहें कि क्रिकेट की वजह से यह हुआ-गलत होगा। सत्य के अन्वेषक एक ऋषि का दिल एक मैच से टूट जाये यह संभव नहीं है। मृत्यु के लिये कोई न कोई बहाना तो बनता ही है।
इतने सारे मैच भारत हारा। सच तो यह है कि अनेक लोग तो पक गये हैं कि जीतने पर ही यकीन नहीं करते। जिसने मैच न देखा हो उसे कसम खाकर बताना पड़ता है कि भारत मैच जीत गया। उनका जो प्रिय खिलाड़ी है तो उसका कहना ही क्या? ढेर सारे रिकार्डों से लोग खुश जरूर होते हैं पर टीम कभी विश्व नहीं जीत सकी। केवल एक मैच की वजह से उनका दिल टूटेगा यह संभव नहीं हो सकता। जो आदमी जितनी सांसे लिखवाकर लाया है उतनी ही ले पायेगा।
अलबत्ता क्रिकेट वह शौकीन जो बड़ी उम्र के हैं उनको अब इसे देखना बंद करना चाहिये। कुछ लोग इसे देखते हुए ही वृद्ध हो गये हैं पर फिर भी उनका दिल मानता नहीं है। जिन लोगों ने यकीन कम होने के कारण क्रिकेट देखना बंद कर दिया है वह बहुत आराम अनुभव करते हैं। वरना पहले जब भारत हारता था तो अनेक लोगों का सदमे से सारा शरीर सुन्न हो जाता था। सारा दिन मैच आंखें लगाकर देखा और जब भारत हार गया तो बाहर जाने पर ऐसा लगता था कि नरक से बाहर आये हैं। सुबह मैच हो तो रात को नींद नहीं आती थी। वह तो भला उस भारतीय खिलाड़ी का जिसने पाकिस्तानी खिलाड़ी द्वारा इसके काले पक्ष को उजागर करने के बाद उसका समर्थन किया जिससे अनेक क्रिकेट प्रेमियों की आंखें खुल गयीं। इधर हम यह भी देखते हैं कि भारत पाकिस्तान के बीच अन्य विषयों पर भले ही दुश्मनी हो पर क्रिकेट के विषय पर एका दिखता है। इससे हमें क्या? लब्बोलुआब यह कि क्रिकेट एक पैसे का खेल है जिसमें आगे पैसा, पीछे पैसा, नीचे पैसा, ऊपर पैसा, दायें पैसा, बायें पैसा यानि हर बात में पैसा है।
उन शब्द ऋषि जैसा हम तो नहीं लिख सकते पर उन जैसे हमारे गुरु भी थे। उनके परमधाम गमन के समय हमें अपने गुरुजी की भी याद आयी। वही हमसे कहते कि क्रिकेट गुलामों का खेल है। सच तो यह है कि हमारा मन भर आया था। लोग रोये भी होंगे पर सोच रहे थे कि ‘क्या यह सच नहीं है कि आजादी के बाद वही ऐसे एकमात्र शख्स रहे हैं जिन्होंने पत्रकार के रूप में बिना धन लगाये केवल शब्दों के सहारे ख्याति अर्जित की। उनको नमन करने का मन करता है क्योंकि वह भी हमारे लेखन के प्रेरक रहे थे।
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Sunday, November 8, 2009

शब्द धन-त्रिपदम (shabda dhan-hindi kavita)

शब्द योद्धा
छोड़ गया संसार
पता न चला।

छायी चुप्पी
बयान करती है
वह था भला।।

अमीर होता
ऐसे जमाना रोता
हुआ अबला।

लिखो या नहीं
दिखो शब्दयोद्धा
चमके गला।

अमीरा रूप
यहां पूजा जाता है
इंसानी कला।

कलम योगी
सच समझता है
शब्द जला।

धन चंचल
नाम पते के साथ
मुख बदला।

शब्द धन
रचयिता के साथ
हमेशा चला।

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Wednesday, November 4, 2009

कदमों के निशान-हिंदी कविता (kadmon ke nishan-hindi vyangya kavita)

यूं तो दर-ब-दर भटकते रहे
इस नीले आसमान के नीचे।
कभी सोचा न था कि
इस दौर में भी छप रहे हैं
धरती पर हमारे कदमों के निशान पीछे।

पल पल अपने दर्द के साथ जीते रहे
अपने गम खुद ही पीते रहे
पर अल्फाजों में कभी नहीं कहे
जमाने ने चाहे
हमारे पांव बढ़ने से रोकने के लिये खींचे।

जब बैठते हुए मुड़कर देखा
तब दिल में हुई खुशी यह देखकर कि
उन जगहों पर अल्फाजों के शेर
खिले थे फूल की तरह
जिस रास्ते हम चले थे
हमारे पांवों से गिरे पसीने ने ही वह सींचे।
---------
अपनी चाहतों का
कभी पूरा करने का मौका ही न मिला
जब एक रुपया था जेब में
तब कीमत थी दो रुपया
जब दो था तब हो गयी चार।
पैमाने के नीचे ही
झूलते रहे
जिन्होंने हमेशा साथ निभाया
वही ख्वाहिशें हमेशा बनी रही यार।


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Monday, November 2, 2009

रामचरित मानस में त्रुटियों की चर्चा-हिंदी आलेख (disscusion on mistak of ramcharit manas-hindi lekh)

रामचरित मानस लिखने के 387 वर्ष बाद एक संत ने यह शोध प्रस्तुत किया है कि उसमें व्याकरण और भाषा की तीन हजार गल्तियां हैं। हाय! भगवान राम जी के भक्त यह सुनकर उद्वेलित हो जायेंगे कि ‘देखो, रामचरित मानस का अपमान हो रहा है।’

शायद ऐसा न हो क्योंकि वह भारतीय धर्म से ही जुड़े एक संत हैं अगर ऐसा न होता तो उस पर अनेक लोग क्रोध प्रकट कर चुके होते। तुलसीदासजी ने रामचरित मानस बड़े पावन हृदय से लिखा था इसमें संदेह नहीं है। एक तो कवि मन होता ही बहुत भोला है दूसरे उन्होंने पहले ही अपने विरोधियों को यह बता दिया था कि उनका भाषा ज्ञान अल्प है-क्षमा याचना भी पहले ही कर ली थी।
यह अलग बात है कि 387 वर्ष बाद -भई, यह आंकड़ा हमें टीवी पर ही सुनाई दिया, अगर गलती हो तो क्षमा हम भी मांग लेते हैं- एक संत को यह क्या सूझा कि उसमें दोष ढूंढने बैठ गये। अगर कोई प्रगतिशील होता तो उस पर तमाम तरह की फब्तियां कसी जा सकती थीं यह कहते हुए कि ‘आप तो उसमें दोष ही ढूंढोगे’ मगर वह तो विशुद्ध रूप से पंरपरावादी विद्वान हैं। फिर संत! हमारे समाज मे जो भी कोई संतों का चोगा पहन ले वह पूज्यनीय हो जाता है-फिर लोग उसकी नीयत का फैसला उसी पर छोड़कर उसे प्रणाम करते हुए अपनी राह पकड़ते हैं। वैसे आजकल तो कथित संतों पर फब्तियां कसने वालों की कमी नहीं है पर वह लोग भी सावधानी बरतते हैं कि कहीं अधिक न लिखें।

हम भाषा से पैदल रहे हैं-इससे कमी से स्वतः ही अवगत हैं। कभी कभी कोई शब्द लिखने से कतराते हैं कि कहीं पढ़ने वाले भाषा ज्ञान को संदिग्ध न मान ले। हिंदी के बारे में हमारे गुरु की बस एक ही बात हमारे गले उतरी कि ‘जैसी बोली जाती है वैसी लिखी जाती है।’ फिर इधर हमने यह भी बात गांठ बांधली है कि ‘यहां हर पांच कोस पर बोली बदल जाती है’,मतलब किसी शब्द पर कोई बहस करे तो उससे पूछ लेते हैं कि हमसे कितना दूर रहता है? उसके पता बताने पर जब अपने घर से पांच कोस की दूरी अधिक मिलती है तो कह देते हैं कि-‘भई, हमारे इलाके में ऐसा ही है। तुम ठहरे दूर इलाके के। हमारे यहां जैसा बोला जाता है वैसा ही तो लिखा भी जायेगा न! हिंदी का नियम है।’
मगर संतों से बहस कैसे करें-तिस पर तुलसीदास जी की भाषा हिंदी की सहयोगी भाषा रही हो तब तो और भी कठिन है-संभव हो वह संत उस भाषा के ज्ञाता हों और उनके निवास की पांच कोस की परिधि मेें ही रहते हों। फिर हम तो उस प्रदेश के बाहर के ही हैं जहां तुलसीदास जी बसते थे और संभवतः संत उन्हीं के प्रदेश के हैं। एक बात तय रही कि तुलसीदास कोई दूसरा बन नहीं सकता-पर बनने की चाहत सभी में है। कई लोग इसके लिये संघर्ष करते हुए स्वर्ग में जगह बनाने में सफल रहे पर नहीं मिला तो तुलसीदास जी जैसा वह पद, जिसकी जगह लोगों के हृदय में सदैव रहती है।

तुलसीदास जी की रामचरित मानस न केवल भाषा साहित्य बल्कि अध्यात्मिक दृष्टि से भी बहुत महत्व रखती है। पहले एक पुस्तक आती थी जिसमें तुलसीदास जी को समाज का पथप्रदर्शक न बताकर पथभ्रष्ट बताया जाता था। उसमें बताया गया कि उन्होंने बाल्मीकी रामायण के श्लोकों का हुबहु अनुवाद भर किया है। इसके अलावा भी तमाम तरह की टीका टिप्पणियां भी थी।
इस पर हमने एक अखबार में संपादक के नाम पत्र में लिखा था-हां, हमारे अधिकतर कचड़ा चिंतन वहीं जगह पाते थे-कि ‘चलिये, सब बात मान ली। मगर एक बात हम कहना चाहते हैं कि उस दौर में जब समाज के सामने वैचारिक संकट था तब भगवान श्रीराम जी के चरित्र को लगभग लुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी संस्कृत भाषा से निकालकर देशी भाषा में इतने बृहद ढंग से प्रस्तुत करने का जो काम तुलसीदास जी ने किया उसके लिये समाज उनका हमेशा ऋणी रहेगा। इसका केवल साहित्य महत्व नहीं है बल्कि उन्होंने राम को इस देश जननायक बनाये रखने की प्रक्रिया को निरंतरता प्रदान की जो संस्कृत के लुप्त होने के बाद बाधित हो सकती थी। वैसे राम चरित्र भारत में सदियों गाया जाता रहेगा पर रामचरित मानस ने उसे एक ऐसा संबल दिया जिससे उसमें अक्षुण्ण्ता बनी रहेगी।’
वैसे तुलसीदासकृत राम चरित मानस एक भाव ग्रंथ है। उसमें शब्द गलत हों या सही पर वह पढ़ने वाले के हृदय को उनके भाव वैसे ही छूते हैं जैसे उनका अर्थ है। उसमें भाषा और व्याकरण संबंध त्रुटियों को निकलाने की क्षमता शायद ही किसमें हो क्योंकि अपने यहां बोली वाकई हर पांच कोस पर बदलती है। अभी भी गांव से जुड़े शिक्षित लोग शहर में आकर ‘इतके आ’, ‘काहे चलें’ ‘वा का मोड़ा’ तथा कई ऐसे शब्द बोलते हैं पर उनकी बात पर कोई आपत्ति नहीं करता। वजह! वह अपने अर्थ के अनुसार भाव को संपूर्णता से प्रकट करते हैं। इनको आप भाषा संबंधी त्रुटि मानकर अपनी अज्ञानता और असहजता का परिचय देते हैं।
आखिरी बात संत कहते हैं कि दूसरे में दोष मत देखो। उनकी बात सिर माथे पर। संत एक सामाजिक चिकित्सक हैं इसलिये उनको तो इलाज करने के लिये दोष और विकार देखने ही पड़ते हैं-यह भी सच! मगर एक सच यह भी है कि संत को किसीके दोषों की चर्चा दूसरों के सामने-कम से कम सार्वजनिक रूप से-तो नहीं करना चाहिए। वैसे उस संत की महत्ता ज्ञानियों की दृष्टि में कम हो जाती है जो दूसरों के दोष इस तरह गिनाते हैं। कहते हैं कि तुलसीदासकृत रामचरित मानस में तीन हजार गल्तियां ढूंढने वाले विद्वान ने स्वयं भी अस्सी पुस्तके लिखी हैं, मगर इससे उनको इस तरह की टिप्पणी से बचना ही चाहिये था।
आप कितने भी अच्छे हिंदी भाषी ज्ञाता हों पर लेखक अच्छे नहीं हो जाते। लेखक होते हैं तो भी पाठक पसंद करे तो यह जरूरी नहीं। यह सच है कि लिखने में जितना हो सके त्रुटियों से बचें पर यह भी याद रखें दूसरे के लिखे का अगर भाव सही मायने में प्रकट हो तो आक्षेप न करना ही अच्छा। दूसरी बात हिंदी का यह नियम याद रखें कि जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है। ऐसे में यह भी देखना चाहिये कि लेखक किस इलाके का है और उसका शब्द कहीं ऐसे ही तो नहीं बोला जाता। सच तो यह है कि तुलसीदास जी की रामचरित मानस एक शाब्दिक या साहित्य रचना नही बल्कि भाव ग्रंथ है और उसमें तीन लाख त्रुटियां भी होती तो इसकी परवाह कौन करता जब समाज का वह अभिन्न हिस्सा बन चुका है। वैसे इसकी टीवी पर चर्चा सुनी तो लगा कि संभव है कि इस बहाने उस पर अपनी विद्वता दिखाने और प्रचार पाने का एक नुस्खा हो।
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Sunday, November 1, 2009

कर्मजोग और धर्मजुद्ध-हिंदी व्यंग्य कविता (karmyog aur dharamuyddh-hindi vyangya kavita)

वह धर्मजुद्ध से करने निकले
जमाने भर की सफाई।
अमन का नारा लगाते किया शोर
शीतलता के लिये चहुं ओर आग लगाई।।

तलवार से लड़ते धर्मजुद्ध तो
धरा पर सिर कटकर गिरते हैं,
शब्द घौंपते है खंजर की तरह तो
भले इंसानों के दिल भी हिलते हैं,
एक पल भी मोहब्बत का नहीं जुटाते
कर लेते हैं धर्मजोद्धा नाम की कमाई।।

कहें दीपक बापू
इतिहास भरा पड़ा है
पहले से ही तयशुदा धर्मजुद्धों से
मिले जहां दो धर्मजोद्धा
बन जाते हैं इंसानियत के पुरोधा
बांटकर आपस में किताबें
कहीं शाब्दिक शास्त्रार्थ करते
कहीं तलवार से प्रहार करते
सारे जमाने को लोगों का सिर कट जाये
या दिल फट जाये
पर धर्मजोद्धाओं ने अपनी
जान कभी न गंवाई,
उनके जाल में फंसा वही
जिसकी खुद की मति काम न आई।
ओ भलेमानसों!
धर्मजुद्धों से कभी इंसानियत पैदा नहीं होती,
उनके बुरे नतीजों से
हर बार दुनियां रोती,
कर्मजोगी इसलिये देते हैं
हमेशा अहिंसा, प्रेम और दया की दुहाई।
धर्मजोद्धाओं के जुद्ध में
कभी न दिखलाओ अपनी दिलचस्पी
अपने कर्मजुद्ध का मोर्चा संभाले रहो
यह दुनियां कर्मजोगियों ने ही चलाई।

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Monday, October 26, 2009

चलता रहेगा यह सिलसिला-व्यंग्य कविता (yah silsila-hindi vyangya kavita)

गरीब से हमदर्दी
परेशानहाल की फांकेगर्दी
और जमाने की बेरुखी और बेदर्दी
जिन किताबों में है
वह बाजार में बिकती महंगे दाम।
कहीं कहीं पुरस्कार के लिये भी
सज जाता है उसका नाम।

अपनी अय्याशी से उकताये
अपने बड़े ओहदे पर आराम के सताये
और अपनी ही सोच गुलाम रख आये
लोगों को जमाने के रोते चेहरे
और उससे कागज पर छपे शब्द गहरे
देते है दिल को बहुत आराम।
हम बेहतर है इनसे
यह सोचकर मिलता
उनके दिमाग को विराम।
दिल बहलाने को भी दर्द उनको चाहिये
सुबह और शाम।
चलता रहेगा यह सिलसिला
जब तक गरीब
उन जैसे होने के ख्वाब देखते
देगा अपनी सोच को आराम।

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Sunday, October 25, 2009

अन्दर के अँधेरे में-हिंदी कविता (andar ke andhere men-hindi kavita)

अपनी महफ़िल में उन्होंने बुलाया नहीं
हमारी परवाह न होने का अहसास जताया.
खूब चिराग जलाए उन्होंने
पर अन्दर के अँधेरे में
चमकता रहा हमारा चेहरा और नाम
बड़ी मेहनत से उन्होंने छिपाया.
हमारा नाम लेने पर उन्होंने
अपने मेहमान पर गुस्सा दिखाकर
अपनी नापसंदगी दिखाई
पर सच है कि जो खौफ है
उनके दिमाग में
हमारे हाथ से जलते चिरागों से
ज़माने के रौशन होने का
वही अनजाने में बाहर आया.

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Saturday, October 24, 2009

अदाओं से पहचाना जाता है-हिंदी कविता (adaon se pahachan-hindi poem)

रोज रचते हैं नया स्वांग
चेहरे पर लगाते नए मुखौटे
और बदलकर आते हैं कपड़े
मगर छद्म होकर भी करते हैं हमेशा लफड़े.
आदमी अपना बाहर का रूप
कितना भी बदल ले
अदाओं से पहचाना जाता है,
जहां स्वर बदले
शब्दों से पकड़ा जाता है,
खुलकर सांस लेने से घबड़ाते हैं जो लोग
छिपकर करते वार
पर अपने हथियारों की शकल
और तौरतरीकों से जाते हैं पकड़े.

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Friday, October 23, 2009

जिंदगी धुऐं में-व्यंग्य कविता (jindgi dhuen men-vyangya kavita)

पूरे रास्ते जलते हुए ईंधन के
धुंऐं के रूप में प्रतिशोध
और वाहनों के पहिये तले
कुचली जाती धूल का प्रतिरोध
आंखों को जला और थका देता है।
देता है ऐसे अपराध की सजा जो
मैंने किया ही नहीं
गागर से भरकर पानी
जब मूंह और आंखों पर छिड़कता हूं
तब मिलती है राहत
सोचता हूं
इतना क्यों महंगा है वाहनो का तेल
जिंदगी तो है पानी का खेल
दुनियां में सबसे अधिक धनी है
अपनी नदियों और तालाबों के कारण
सस्ता है फिर भी जिंदगी देता है।
क्या कहूं शिक्षित हो रहे जमाने को
जो गंवारों की तरह अपनी जिदंगी धुंऐं में
उड़ा देता है।
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Thursday, October 22, 2009

पहले अपने शब्द चखें-हिंदी कविता (pahle apne shabd chakhen-hindi poem)

पहले पीछे से वार कर दें, जखम।
फिर सामने आकर लगायें महरम।।
जमाने में चमकना है जिनको सदा,
पहले करें हमला, फिर दिखायें रहम।।
शोर मचाते हैं इतनी जोर से अमन का,
जमाना खामोशी ओढ़ लेता, जाता सहम।।
चेहरे बदल बदल कर सामने आते बुत,
पहले कत्ल करते, फिर मनाते आकर मातम।।
फरिश्ते के भेष में छिपा शैतान, सभी जानते,
‘भारतदीप’ खराब नीयत देखकर भी खामोश हैं हम।
..................................

मुखिया हमेशा अंग्रेजी में बोलें, चमचे हिंदी बकें।
भाषा के झगड़े, अंतर्जाल पर भी अब लोग रखें।।
चालांकियों साथ लिये चले रहे हैं यहां और वहां
‘हिंदी सेवक’ की उपाधि अपने साथ रखें।।
हिंदी जिनकी अभिव्यक्ति का एकमात्र सहारा
उनको गरीब कहकर, अपनी प्रतिष्ठा खुद रखें।।
‘लिखो-लिखो’ का नारा लिखकर होते खामोश
कविता समझे नहीं, कहानियों से आंख परे रखें।
उठाये झंडा, बन रहे खैरख्वाह हिंदी भाषा के,
भूले लोग ‘भारतदीप’, पहले अपने शब्द को चखें।।
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Wednesday, October 21, 2009

सेल का रोग-हास्य व्यंग्य कविता (sele ka rog-hindi hasya vyangya kavita)

अपने साथ फंदेबाज एक पर्चा लेकर आया
और हाथ में देते हुए बोला-
‘दीपक बापू,
बूढ़े आदमियों के लिये
तैयार कपड़ों की एक सेल लगी है
चलो तुम्हें वहां से
टोपी, कुर्ता धोती और स्वेटर दिलवायें
बहुत पुराने लगते हैं तुम्हारी तरह
तुम्हारें कपड़े भी सजायें।
यह ठीक है अभी तक फ्लाप हो
चिंता की बात नहीं
पर कल हिट हो जाओगे
तो कैसे सम्मेलनों में अपना चेहरा दिखाओगे
सेल में एक चीज पर एक मुफ्त है
एक रख लेना रोज पहनने के लिये
दूसरा बाहर के लिये रख लेना
चलो तो मौके का पूरा फायदा उठायें।’

सुनते ही भड़के फिर
अपनी पुरानी टोपी की तरफ
निहारते हुए बोले दीपक बापू
‘कमबख्त, हमारे फ्लाप होने का ताना
देने के लिये कोई बहाना ढूंढ जरूर लेना
अरे, इस टोपी, धोती और स्वेटर के
पुराने होने पर तुम्हें तरस आ रहा है
पर कोई दूसरा तो नहीं गा रहा है
एक के साथ एक फ्री ले आये थे
पहले इसी इरादे से
पर दोनों ही घिस गये
अंतर्जाल पर टाईप करते
पर हमारे ब्लाग अभी आहें भरते
पैकिंग में धोती, कुर्ता, टोपी और स्वेटर
बहुत अच्छे दिखे
पर घर लाये तो सभी में छेद दिखे
फिर तुम सभी जगह हमारे
फ्लाप होने की कथा सुना रहे हो
आपने हिट दोस्त होने का अच्छा साथ भुना रहे हो
हम किस हाल में है
भला कौन पाठक जानता है
इतना ही ठीक है
इस ‘एक के साथ एक फ्री’ में
पगला गये हैं कई लोग
जिसका इलाज नहीं है
ऐसा बन गया है यह सेल का रोग
हम तो मुफ्त में ब्लाग लिखने के साथ
यह दूसरा फ्री का रोग नहीं पाल सकते
रुपये भला कैसे लगायें।
दो रोग पालना एक साथ मूर्खता है
यह तुम्हें कैसे समझायें’’
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Sunday, October 18, 2009

‘पुराने माल' का नया स्वयंवर-व्यंग्य आलेख (purane mal ka naya svyanvar-hindi vyangya)

जहां तक भारत की स्वयंवर परंपराओं से जुड़ी कथाओं की हमें जानकारी है तो उसके नायक नायिका तो नयी उम्र के एकदम ताजा पात्र होते थे पर इधर दूरदृश्य प्रसारणों (टीवी कार्यक्रम) में देख रहे हैं उस परंपरा के नाम पर एक तरह से पुराना कबाड़ सजाया जा रहा है।
उच्च शिक्षा-अजी, यही वाणिज्य स्नातक की-के दौरान महाविद्यालयों के आचार्य अपने अपने विषयों के पाठ्य पुस्तकें लाने के निर्देश साथ उनके लेखकों का नाम भी लिखाते थे। चूंकि अपने यहां शिक्षा के दौरान उस समय तक-अब पता नहीं क्या स्थिति है- आचार्य का वाक्य ब्रह्म वाक्य समझा जाता था इसलिये हम उन पुस्तकों ढूंढने निकलते थे। पुराने साथी छात्रों ने बता दिया कि इसके लिये ‘द्वितीय हस्त पुस्तकें (सैकिण्ड हैण्ड बुक्स) लेना बेहतर रहेगा। वह यह राय इसलिये देते थे कि वह अपनी पुस्तकें बेचकर आगे की पुस्तकें इसी तरह लाते थे। उनके मार्गदर्शन का विचार कर हम भी ‘द्वितीय हस्त पुस्तकें’ हम खरीद लाते थे अलबत्ता उनको बेचने कभी नहीं गये।
उस समय शहर में एक दुकान तो ऐसी थी जो उच्च और तकनीकी शिक्षा की द्वितीय हस्त पुस्तकों का ही व्यापार करती थी। पहले से दूसरे हाथ में जाती पुस्तकें उनके लिये कमीशन जुटाने का काम करती थी। हम सोचते थे कि ‘द्वितीय हस्त पुस्तकें’ खरीद रहे हैं पर बाद में जब थोड़ा भाषा ज्ञान हुआ तो पता लगा कि पुस्तकें तो पुस्तकें हैं उनके लिये द्वितीय हस्त -हो सकता है तृतीय और चतुर्थ भी हो- हम ही उनके लिये होते थे।
बहरहाल इतना तय रहा कि हमने अपनी उच्च शिक्षा ऐसी ‘द्वितीय हस्त पुस्तकों’ के सहारे ही प्राप्त की। इसलिये जब कहीं नयी पुरानी चीज की चर्चा होती है तब हमें उस द्वितीय हस्त पुस्तकों का ध्यान आता है।

देखा जाये तो हम जीवन में कभी न कभी द्वितीय हस्त या कहें पुराना माल बन ही जाते हैं। कम से कम शादी के मामले में तो यही होता है। पहली शादी का महत्व हमेशा ही रहता है दूसरी शादी का मतलब ही यही है कि आप सैकिण्ड हैंड हैं या आपकी साथी? इस पर विवाद हो सकता है।
इधर एक दूरदृश्य (टीवी कार्यक्रम) धारावाहिक में हमने देखा कि एक तलाकशुदा आदमी अपना स्वयंवर रचा रहा है। तब हमें भी सैकिण्ड पुस्तक का ध्यान आया। हम आज तक तय नहीं कर पाये कि उन पुस्तकों के लिये हम द्वितीय हस्त थे या वही हमारे लिये पुरानी थी। अलबत्ता उन पुस्तकों को पाठक मिला और हमें ज्ञान-इसका प्रमाण यह है कि हम इतना लिख लेते हैं कि लोगों की हाय निकल जाती है। फिर हम स्वयंवर प्रथा पर विचार करते हैं जिनका अध्यात्म पुस्तकों में-जी, वह बिल्कुल नयी खरीद कर लाते थे क्योंकि पाठ्य पुस्तकों के मुकाबले वह कुछ सस्ती मिलती थी-इस प्रथा का जिक्र पढ़ते रहे हैं। जहां तक हमारी जानकारी है स्वयंवर ताजा चेहरों के लिये आयोजित किया जाता था। तलाक शुदा या जीवन साथी खो चुके लोगों के लिये कभी कोई स्वयंवर आयोजित हुआ हो इसका प्रमाण नहीं मिलता। हम यह जरूर कहते हैं कि स्त्री के प्रति समाज के मानदण्ड अलग हैं पर जहां तक पहली शादी की बात है तो उसका ताजगी का पैमाना दोनों पर एक जैसा लागू होता है। वैसे हमारे यहां प्रचलित विदेशी विचार के अनुसार पहला प्यार ही आखिरी प्यार होता है पर देसी भाषा में ‘पहली शादी’ को ही आखिरी शादी माना गया है। उसके बाद आदमी हो या औरत- जहां तक सामाजिक रूप से शादी का प्रश्न है-बासी चेहरे की श्रेणी में आ जाते हैं। अगर स्त्री का दूसरा विवाह हो तो एकदम सादगी से होता है और पुरुष का कुछ धूमधाम से होने के बावजूद बारातियों का चेहरा बासी लगता है क्योंकि वह इतने खुश नहीं दिखते जितना पहली शादी में थे-यह अनुभव की हुई बात बता रहे हैं। तात्पर्य यह है कि यह स्वयंवर केवल ताजा चैहरे वाले नवयुवा वर्ग-जी, युवा वर्ग से पहले का वर्ग- के सदस्यों के लिये रहा है। इसमें लड़का लड़की आपस में दूर किसी दूसरे से भी नहीं मिले होते थे। इसलिये उनके विवाहों का वर्णन आज भी ताजगी से भरा लगता है।
अभी एक अभिनेत्री का स्वयंवर हुआ था। वह वर चुनने नहीं आई बल्कि मंगेतर चुनने आयी थी और फिर उसे प्रेमी बताने लगी। उसी अभिनेत्री का एक अभिनेत्रा से प्रेम संबंध कुछ दिन पहले ही विच्छेद हुआ था। देखा जाये तो उसे एकदम ताजा चेहरा नहीं माना जा सकता था क्योंकि अंततः उसने प्रचार माध्यमों में अनेक बार उस अभिनेता से प्रेम संबंध होने की बात स्वीकारी थी। मगर बाजार ने उसका स्वयंवर बेचा और कमाया भी।

इधर एक बड़े आदमी का बेटे ने भी दूरदृश्य धारावाहिकों में अपने को अभिनेता के रूप में स्थापित कर लिया है। उस पर मादक द्रव्यों के सेवन का आरोप तो एक बार लग ही चुका है साथ ही उसने एक विवाह भी किया जिसकी परिणति तलाक के रूप में हुई। अब उसके स्वयंवर का कार्यक्रम हो रहा है। देश में जो बौद्धिक जड़ता है उसे देखकर उसके कार्यक्रम की सफलता में कोई संदेह नहीं है। कहने को तो लोग कहते हैं कि भारतीय अध्यात्म ग्रंथों को पढ़ने से कुछ नहीं होता पर बाजार उसमें से बेचने योग्य परंपराओं क्यों ला रहा है? सच बात तो यह है कि हमारे धर्म ग्रंथों में शिक्षा, तत्व ज्ञान के साथ मनोरंजन भी है इसलिये उनका आकर्षण सदाबहार रहता है। दूसरा सच यह भी है कि रामायण, श्रीमद्भागवत, महाभारत, वेद, पुरान, उपनिषद जिस तरह लिखे गये हैं उसकी बराबरी अब कोई लिखने वाला कर ही नहीं सकता। शायद यही कारण है कि आधुनिक विद्वानों ने जहां तक हो सके समाज से उनको बहिष्कृत करने के लिये हर संभव प्रयास किया है क्योंकि उनके प्रचलन में रहते उनकी रचनायें प्रतिष्ठित नहीं हो पाती। आधुनिक भारत में विवेकानंद जैसे जो दिग्गज हुए हैं वह भी इन्हीं महाग्रंथों के अध्ययन के कारण हुए हैं। इसलिये बकायदा इन महाग्रंथों से समाज को दूर रखने का प्रयास किया गया। उसका परिणाम यह हुआ कि आजकल की नयी पीढ़ी के वही सदस्य अपने देश को समझ सकते हैं जिन्होंने घर पर इनका अध्ययन किया है, बाकी के लिये यह संभव नहीं है क्योंकि इनके अध्ययन के लिये कोई औपचारिक शिक्षा केंद्र नहीं है। अगर भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों के लिये कोई शैक्षणिक केंद्र खुले तो आज भी लोग उसमें अपने बच्चों को ही नहीं पढ़ायेंगे बल्कि स्वयं भी जायेंगे। यह कमी पेशेवर संतों से नहीं पूरी हो सकती। ऐसे मे स्वयंवर जैसी व्यवस्था के बारे में किसी को अधिक पता नहीं है या फिर लोग ध्यान में नहीं ला रहे।
बाजार के प्रभाव में तो प्रचार माध्यम खलनायकों को नायक बनाये जा रहे हैं। पता नहीं वह कैसे वह इन सितारों को चमका रहे हैं जिनके चरित्र पर खुद इन्हीं प्रचार माध्यमों ने कभी दाग दिखाये हैं। देखा जाये तो यह स्वयंवर कार्यक्रम देश का मजाक उड़ाने जैसा ही है। अगर विदेशी लोग इनको देखेंगे तो यही सोचेंगे कि-‘अरे, यह कैसी इस देश की घटिया प्रथा है? जिसमें चाहे कभी भी किसी का स्वयंवर रचाया जा सकता है
वैसे बाजार जो कर रहा है उस पर किसी का नियंत्रण नहीं है। होना भी नहीं चाहिए पर लोगों में जागरुकता आ जाये तो हो सकता है ऐसे कार्यक्रम ऊंची वरीयता प्राप्त नहीं कर सकते। कम से कम सैकिण्ड हैण्ड पुस्तक को नया बेचने का काम तो करने से उन्हें रोका जा सकता है।
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Friday, October 16, 2009

उनको चाहिए और रौशनी-हिन्दी कविता (unko chahie aur roshni)

जिनको रौशनी दी थी
वही बांट रहे हैं जमाने में अंधेरा
अपने विश्वास में टूट गये हैं
किससे करें शिकायत
अपनों ने ही गैर बनकर घेरा।

लेकर जमाने भर की रौशनी
वादा करते रहे हमेशा चिराग जलाने का
अब लगे हैं इस कोशिश में
चाहे जमाने में रौशनी न हो
पर कभी खुद के घर में न हो अंधेरा।

रुख बदल गये हैं तेल के दरिया
जो बांटते थे रौशनी इंसानों को
मुड़कर चले जा रहे उनके घरों में
जहां पहले ही है, रौशनी का डेरा।

आंखों में जब पड़ती है रौशनी
इंसान अंधा हो ही जाता है
मगर ‘और चाहिये रौशनी’ की चाहत
करने वालों को भला यह कहां समझ में आता है
फिर मजा तो सभी को मिलता है
जब अपने घर में हो रौशनी
दूसरे के घर में हो धुप्प अंधेरा।
गैरों से जंग लड़ते लड़ते थक गये
कैसे लड़े
जो किया अपनों ने ही अंधेरा।

.....................

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Monday, October 12, 2009

खड़ा कर दो किराये का शैतान-हिंदी व्यंग्य कविता (kiraye ka shaitan-hindi vyangya kavita)

अमन का फरिश्ता बनने के लिये
पहले इस जहां में आग लगा दो
फिर उसे बुझा दो।
खड़ा कर दो किराये का शैतान
जिससे लड़ो नकली लड़ाई
तना रहे जब तक तुम चाहो
फिर उसे अपने सामने झुका लो।
ऐसे ही अफसाने खेलते हुए
अपना नाम आकाश में उड़ा दो।
जहां तक चलता है तुम्हारी
दौलत और शौहरत का रुतवा
वहीं तक खेलो नाटक
चाटुकार दर्शक बन जायेंगे
चाहे जब पर्दा गिराओ
चाहे जब उठा दो।
........................
कामयाबी का नशा
जब सिर चढ़कर बोलता है
तब इंसान के नजरिये में
जहर घोलता है।
तब कामयाब इंसान ही
दूसरे इंसान को
दौलत और शौहरत के भाव से तोलता है।

.................................

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
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Monday, October 5, 2009

दूसरे के जख्म देखकर मुस्कराते-हिंदी कविता (doosre ke jakhma-hindi kavita)

अक्सर सोचते हैं कि
कहीं कोई अपना मिल जाए
अपने से हमदर्दी दिखाए
मिलते भी हैं खूब लोग यहाँ
पर इंसान और शय में फर्क नहीं कर पाते.
हम अपने दर्द छिपाते
लोग उनको ही ढूंढ कर
ज़माने को दिखाने में जुट जाते
कोई व्यापार करता
कोई भीख की तरह दान में देता
दिल में नहीं होती पर
पर जुबान और आखों से दिखाते.
हमदर्दी होती एक जज़्बात
लोग बेजान होकर जताते.
दूसरे के जख्म देखकर मन ही मन मुस्कराते.
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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Friday, October 2, 2009

लकीर के फकीर-हिंदी लघुकथा (lakir ke faqir-short hindi story)

उस उद्यान में ज्ञानियों के बीच देश की गरीबी मिटाने के लिये बहस चल रही थी। विषय था देश में गरीबी और शौषण खत्म कैसे किया जाये। सभी सजधजकर बहस करने आये थे। सभी वक्ता अपने अपने विचार रख रहे थे।
एक ने कहा ‘हमें गरीबों के दिमाग में अपने अधिकार के लिये चेतना जगाने का अभियान छेड़ना चाहिये।
वहीं एक फटीचर आदमी भी बैठा था। उसने उठकर पूछा-‘पर कैसे? क्या कहें गरीबों से जाकर कि अमीरों का पैसा छीन लो!’
सभा के संचालक ने उसे बिठा दिया और कहा‘-आप आमंत्रित वक्ता नहीं है इसलिये बहस मत करिये।’
दूसरे वक्ता ने कहा-‘हमें एक आंदोलन छेड़ना चाहिये।’
वह फटीचर फिर उठकर खड़ा हो गया और बोला-‘बहस और आंदोलन तो बरसों से चल रहे हैं।’
संचालक फिर चिल्लाया-‘चुपचाप बैठ जाओ। वरना बाहर फैंक दिये जाओगे। हम कितने गंभीर विषय पर बहस कर रहे हैं और तुम अपनी टिप्पणियां मुफ्त में दिये जा रहे हो।’
वह फटीचर आदमी वहां से चला गया तो एक विद्वान ने दूसरे से पूछा-‘यह कौन फटीचर यहां आ गया था।’
दूसरे ने कहा-‘पता नहीं।’
वहीं एक दूसरा फटीचर आदमी र्बैठा था वह बोला-‘वह मेरा दोस्त था। पहले किताबें पढ़कर बहुत बहस कर चुका है पर जब से बहुत ज्ञानी हो गया तब से उसने ऐसी बहसें बंद कर दी हैं। अलबत्ता कभी कभी चला आता है ऐसी बहसें देखने। क्योंकि इसे इसमें कामेडी नजर आती है।’
यह बात सुनते ही दोनों विद्वानों का खूल खौल उठा वह बोले-‘तू हमारी बहस को कामेडी कहता है।’
वह दोनों उठकर खड़े गये और चिल्लाने लगे कि‘यह हमारी बहस को कामेडी कह रहा है। इसे मारो पीटो।’
सब लोग उस पर चढ़ पड़े। वह चिल्लाता रहा‘मैं नहीं वह कहता है।’
उसके पुराने कपड़ों में पहले ही पैबंद लगे थे वह और अधिक फट गये। जब वह पिट पिटकर बेहोश हो गया तब उसे छोड़ दिया गया। विद्वान फिर बहस करने लगे। कुछ देर बात उसे होश आया तो वह दोनों विद्वान वहीं बैठे बहस मेें व्यस्त थे। उसने उनसे कहा-‘यार, मैं थोड़े ही कहता हूं। वह कहता है। तुम दोनों क्यों पिटवाया।’
उनमें से एक ने कहा-‘हम विद्वान है सांप को निकलने देते हैं उसके बाद लकीर पीटते हैं।’
वह बिचारा वापस अपने दोस्त के पास पहुंचा और पूरा हाल बताकर बोला-‘यार, किस मुसीबत में फंसा आये। हम तो सोच रहे थे कि विद्वान हैं पर वह हिंसा पर उतर आये।’
उसने जवाब दिया-‘यह भ्रम मुझे भी होता था। इसलिये तुझसे कहता हूं कि ऐसी जगहों पर अधिक मत रुका करो। वहां बहस वही करते हैं जो किताबी ज्ञानी हैं। कबीरदास जी कह गये हैं कि किताब पढ़ने वालों को अहंकार आ ही जाता है। मैं भी तुझसे कहता हूं कि ऐसी बहसें कामेडी नाटक की तरह हैं क्योंकि किताबी ज्ञानी लकीर के फकीर होते हैं पर वहां सबके बीच में नहीं कहा। सच बात भी सही जगह और सही समय पर बोलना चाहिये। बस तुम्हारे और मेरे बीच यही अंतर है। इसलिये मैं तुम्हें अल्पज्ञानी कहता हूं। मैंने खतरा देखा तो निकल लिया और तुम फंसं गये।’

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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Saturday, September 26, 2009

क्रिकेट मैच और हिंदी ब्लाग-हास्य व्यंग्य (cricket match and hindi blog-hindi hasya vyangya)

अंतर्जाल पर लिखने के अलग ही अनुभव है। इनमें से कुछ अनुभव ऐसे हैं जो समाज की गतिविधियों से इस तरह परिचय कराते हैं जिसका संबंध ब्लाग लिखने से सीधे न होते हुए भी लगता है। खासतौर से जब हिंदी में लिख रहे हैं तब कुछ अच्छी और बुरी घटनायें ऐसी होती हैं जिनको दर्ज करना जरूरी लगता है-ऐसे में क्रिकेट से संबंध हो तो हम उससे बच नहीं सकते।
वजह इसकी यह है कि कवितायें, कहानियां और व्यंग्य तो लिखना बहुत पहले ही शुरु किया था पर अखबारों में एक लेखक के रूप में छपने का श्रेय हमें 1983 में भारत के विश्व कप जीतने पर लिखे विषय के कारण ही मिला था। उसके बाद जो दौर चला वह एक अलग बात है पर अंतर्जाल पर भी हमने सबसे पहले अपना एक व्यंग्य क्रिकेट में सब चलता है यार शीर्षक से लिखा। उसमें 2007 में होने वाले संभावित विश्व क्रिकेट प्रतियोगिता में भारतीय टीम के चयन पर व्यंग्य कसा गया था। सामान्य हिन्दी फोंट में होने के कारण वह कोई पढ़ नहीं पाया पर उस समय रोमन लिपि में हिन्दी लिखना आसान नहीं था इसलिये 200ल में विश्व कप में भारतीय टीम की हार पर लिखे गये छोटे पाठ पर हमें पहली प्रतिक्रिया मिली थी। दरअसल वह पाठ एक पुराने खिलाड़ी के बयान पर था जिनकी हाल ही में मृत्यु गयी और टिप्पणी में उनके प्रति गुस्से का भाव था सो टिप्पणी उड़ाने के लिये पूरा पाठ ही उड़ाना पड़ा-उस समय तकनीकी जानकारी इतनी नहीं थी।
क्रिकेट में फिक्सिंग जैसी कथित घटनाओं ने हमें क्रिकेट से विरक्त कर दिया था और हम मन लगाने के लिये ही अंतर्जाल पर लिखने आये। उन्हीं दिनों विश्व कप भी चल रहा था और इधर ब्लाग बनने के दौर भी-कोई तकनीकी जानकारी देने वाला नहीं था वरना आज तो हम पांच मिनट में ब्लाग बनाकर कविता ठेल सकते हैं। कोई अनुभव नहीं था और क्रिकेट पर लिखने का हमारा कोई इरादा नहीं था। जब भी क्रिकेट पर लिखा तो व्यंग्य या हास्य कविता ही लिखी। एक बार जरूर बहक गये जब पिछले वर्ष बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता में भारत जीता तो उस पर एक पाठ लिखा मगर वह बिना टिप्पणी के रहा तो हैरानी हुई तब हमने पता लगाया कि वह तो फोरमों पर पहुंचा ही नहीं। वजह हमने फीड बर्नर का कोड इस तरह लगााया कि वह ब्लाग हमारे यहां ही दिख सकता था। दो दिन बाद हमने उसको हटाया तो देखा कि वह फोरमों पर दिख रहा था।
इसी के चलते गुस्सा आया तो फिर एक हास्य कविता लिख डाली ‘बीस का नोट पचास में नहीं चलेगा’। कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि हमें ही बेकार लगने वाली वह कविता सबसे अधिक टिप्पणियां प्राप्त कर चुकी है। अलबत्ता कुछ हिंदी ज्ञाता उस तमाम तरह की नाराजगी भी जता चुके हैं। उसका कविता में हमारा आशय यही था कि कुछ पुराने खिलाड़ी े केवल इसलिये पचास ओवर वाली टीम में बने हुए हैं क्योंकि उनके पास विज्ञापन मिलते हैं। ऐसे तीन खिलाड़ी बीस ओवरीय प्रतियोगिता में नहीं गये थे और अब उस विश्व कप की आड़ में उनको जीवनदान इसलिये मिलने वाला था क्योंकि विरक्त हो रहा भारतीय समुदाय फिर क्रिकेट की तरफ आकर्षित होने वाला था। पचास ओवरीय विश्व कप के बाद भारतीय बाजार प्रबंधकों को मूंह सूख गया था जिसे बीस ओवर से अमृत मिलने वाला था। हुआ भी यही। अब देखिए फिर क्रिकेट की तरफ लोगों का आकर्षण पहले जैसा ही हो गया जैसे 1983 के बाद बना था। वही हीरो अभी भी चल रहे हैं जिन्होंने कभी एक भी विश्व कप नहीं जितवाया। इस देश की हालत यही है कि जहां देखते हैं कि आकर्षण हैं वहीं अपना लोग मन लगा देते हैं।

हमें इस पर भी कोई आपत्ति नहीं है। हम कोई यह थोड़े ही कहते हैं कि हमारे ब्लाग पढ़ो जिसमें हम अनेक बार बेकार सी कवितायें और व्यंग्य ठूंस देते हैं।
दरअसल बात यह है कि क्रिकेट मैच वाले दिनों में हमारे ब्लाग सुपर फ्लाप हो जाते हैं। वैसे भी कोई हम हिट ब्लाग लेखक नहीं माने जाते पर जिस दिन क्रिकेट मैच हो उस दिन स्वयं को यह समझाते हुए भी डर लगता है कि हम हिंदी में ब्लाग लिख रहे हैं। अगर कोई क्रिकेट प्रेमी मित्र मिल जाये तो उससे इस विषय पर बात ही नहीं करते कि ब्लाग पर आज किस विषय पर लिखेंगे। शेष दिनों में ऐसे मित्रों से हमारी अपने ब्लाग के विषयों पर चर्चा होती है।
ब्लाग पर पाठ पठन/पाठक संख्या बताने वाले अनेक कांउटर लगाये जाते हैं। हमने भी दूसरों की देखादेखी अनेक प्रकार के काउंटर लगा चुके हैं-यह अलग बात है कि एक ‘गुड कांउटर’ की वजह से हमारे दो ब्लाग जब्त भी हो चुके हैं क्योंकि वह कांउटर किसी जुआ वगैरह से संबंधित था। कहें तो घुड़दौड़ की फिक्सिंग से भी हो सकता है। पूरी तरह हम भी उसके बारे में समझ नहीं पाये। हालांकि हमें लगता था कि पाठ पठन/पाठक संख्या बताने वाली उस वेबसाईट में कुछ गड़बड़ है पर फिर सोचते थे कि क्रिकेट जैसी ही होगी। वहां सब चल रहा है तो यहां चलने में क्या है?
उसका अफसोस भी नहीं है। मगर आज कुछ अधिक अफसोस वाला दिन था तो सोचा कि क्यों न अपने सारे गम एक ही दिन याद कर लिये जायें। रोज रोज का क्लेश हम नहीं पाल सकते। जब हम यह पाठ लिख रहे हैं तब कहीं भारत पाकिस्तान का क्रिकेट मैच चल रहा है। उससे हमारा लेना देना बस इतना ही है कि हमारे ब्लाग पचास फीसदी पिट रहे हैं। जो पचास फीसदी बचे हैं वह इसलिये क्योंकि वह मैच दिन में नहीं था-यानि अब सौ फीसदी पिट रहे हैं। ऐसा पहले भी हुआ है पर भारत पाकिस्तान का मैच बहुत दिन बाद हो रहा है इसलिये अधिक लोग देख रहे हैं। फिर इधर भाई लोगों ने जनता को बीसीसीआई की क्रिकेट टीम ‘विश्व में नंबर वन’होने’ की नशीली गोली पिला दी है। बस! सारी पब्लिक उधर!
हम इससे भी परेशान नहीं है। अरे, आज ब्लाग पिट रहे हैं कल फिर अपनी जगह पर आ जायेंगे। समस्या यह है कि हम इसमें कुछ ज्यादा ही सोच रहे हैं पर चिंतन नहीं लिख पा रहे। इस पर फिर कभी लिखेंगे। अलबत्ता हम यह सोच रहे हैं कि क्या क्रिकेट ने भारत की युवा पीढ़ी को दिमागी रूप से पंगु तो नहीं बना दिया। हमने पूरी युवावस्था क्रिकेट के खेल होने के भ्रम में गुजारी और अपनी नयी पीढ़ी को इसमें जाता देख रहे हैं। यकीनन हमने अगर अपना समय क्रिकेट पर बरबाद नहीं किया होता तो इस समय तीस से चालीस उपन्यास, सौ पचास कहानी संगह, एक हजार कविता संग्रह और पचास कभी चिंतन संग्रह छपवा चुके होते-यह अलग बात है कि पढ़ने वाले भी हम ही होते पर कम से कम अपना समय तो नष्ट करने का गम तो नहीं होता।
कहते हैं कि इस देश में हिंदी के अच्छे लेखक नहीं मिलते। मिलेंगे कहां से? हर नयी पीढ़ी को क्रिकेट खाये जा रहा है। न हिंदी के लेखक मिलते हैं न पाठक! यह ज्ञान हमें आज नहीं प्राप्त हुआ बल्कि पिछले तीन वर्ष से इस तरह अपने ब्लाग का उतार चढ़ाव देखकर सोचते थे।
आज हुआ यह कि हम पास के शहर में एक मंदिर में गये थे। लौटते हुए रास्ते में हमारा एक मित्र मिल गया और बोला-‘आज मेरे घर में लाईट नहीं है इसलिये दूसरे मित्र के घर मैच देखने जा रहा हूं। तुमने तो मना ही कर दिया कि मंदिर जाऊंगा।’
हमने कहा-‘पर तुमने बताया नहीं था कि मैच देखना है। अब चलो।’
वह बोला-‘अब क्या? मैंने उसे फोन कर दिया है। फिर मैच तो अब निकल ही रहा है।’
वह चला गया पर वहां हमें अपने ब्लाग याद आये-ऐसा बहुत कम होता है कि हम घर के बाहर कभी ब्लाग वगैरह याद करते हों । मित्रों के साथ किसी विषय पर होते समय यह जरूर कहते हैं कि इस पर लिखेंगे। हमने उसी मित्र को यह बताया था कि क्रिकेट मैच वाले दिन ब्लाग पिट जाता है। यही कारण है कि जब बातचीत के बाद वह जा रहा था तब उसने कहा‘हां, पर आज पाकिस्तान के साथ मैच है तुम्हारे ब्लाग तो पिट जायेंगे।’
इस बात ने हमारी चिंतन क्षमता जगा दी और घर आकर ब्लागों की पाठ पठन/पाठक संख्या देखी तो उसने इसकी पुष्टि की। मैच अधिक आकर्षक है तो हिंदी ब्लाग उतनी ही बुरी तरह से पिट रहा है। हो सकता है कि यह हमारे साथ ही होता हो और जो अच्छे लिखने वाले हों उनकी संख्या इतनी अधिक होती होगी कि उनको इसमें कमी का पता अधिक नहीं चले। हमें जरूर इसका आभास होता है तब सोचते हैं कि ‘क्या क्रिकेट मैचों की हिंदी से भला कोई ऐसी अदृश्य प्रतिस्पर्धा है जो इस तरह हो रहा है। वैसे संभवत कुछ अनुभवी लोग इस बात से सहमत हो सकते हैं कि क्रिकेट ने हमारी रुचियों को अप्राकृतिक और कृत्रिम आकर्षण का गुलाम बना दिया है और जिसकी वजह से हिंदी का रचनाकर्म भी प्रभावित होता है क्योंकि उसको समाज से अपेक्षित प्रोत्साहन नहीं मिलता। अपनी अपनी सोच है। हमने क्रिकेट मेें समय गंवाया है उसकी भरपाई करने के लिये अपनी बात लिखने बाज नहीं आते। लोग भी भला अपनी आदत से कहां बाज आते हैं और कहां क्रिकेट की हार पर विलाप करते हुए उसे भूल रहे थे फिर उसे याद करने लगे हैं।
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