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Wednesday, January 1, 2014

लोकतंत्र में बाज़ार और प्रचार समूहों की शक्ति अधिक-ईसवी संवतः 2014 पर एक संदेशपूर्ण चिंत्तन लेख (loktanta mein bazar aur prachar samoohon ki shakti adhik- a massege and thought article on new year 2014)



            ईसवी संवत् 2014 प्रारंभ हो गया है।  वैसे देखा जाये तो हमारे यहां हिन्दू संवत् अध्यात्मिक रूप से हमारे हृदय के अधिक निकट होता है पर उसका राजकीय महत्व न होने से उसे केवल सामाजिक उत्सव मनाया जाता है जिसे बाज़ार और प्रचार माध्यम अधिक समर्थन नहीं देते। आजकल समाज पर बाज़ार और प्रचार का अधिक प्रभाव है और इससे सामाजिक संस्कार और संस्कृति निश्चित रूप से प्रभावित हो रही है।  देखा जाये तो जब तक पारंपरिक पर्वों से बाज़ार का लाभ होता था तब तक प्रचार माध्यम अपने विज्ञापन स्वामियों के लिये भारतीय संस्कृति का बोझ ढोते रहे।  अब पश्चिमी संस्कृति से बाज़ार में  विदेशी प्रभाव से परिष्कृत उत्पादों का प्रभाव बढ़ा है। खान पान, रहन सहन तथा मनोरंजन के साधन अब स्वदेशी रूप का प्रभाव खो चुके हैं। इसलिये वैलंटाईन डे तथा ईसवी नव संवत् पर नये उपभोग के रूपों के निर्मित  उत्पाद बेचने के लिये प्रचार माध्यम अपनी रणनीति बनाते हैं।
            एक बात हमारे समझ में नहीं आती कि आनंद में यह उत्तेजना क्या होती है? टीवी पर बर्फीले इलाके में घूम रहे पर्यटक ने साक्षात्कार में कहा कि यहां बहुत एक्साईटमेंट हो रहा है।’’
            हमें अंग्रेजी कम आती है पर एक्साईटमेंट का आशय उत्तेजना से होता है।  आनंद की यह उत्तेजना शराब से अधिक मिलती है।  इस तरह की उत्तेजना मनुष्य के विवेक का हरण करती है। शराब के बाद दूसरा आंनद तब आता है जब उसके चरम पर होते ही आदमी  किसी से लिपट जाता है। मां अपने बच्चे की लीला से जब आनंदित होती है तब वह उसे गले से लिपटा देती हैं। पिता जब बेटी से प्रसन्न होता है तो उसके सिर पर हाथ फेरता है।  कहने का आशय यह है कि आदमी आनंद की उत्तेजना में किसी दूसरे देह का स्पर्श करता है।  इस तरह बर्फ पर पांव रखकर चलना या उसे उछालना किस तरह आनंद के चरमोत्कर्ष पर पहुंचाता है यह कहना कठिन है।  बहरहाल बाज़ार के प्रचारक आदमी को आनंद के चरमोत्कर्ष पर पहुंचाने का तीव्र प्रयास करता है जिसमें विवेक के हृास के साथ  परंपरा और संस्कारों की मूल्यहीनता प्रकट होने की संभावना अधिक रहती है।
            बाज़ार और प्रचार समूहों की शक्ति के आगे समाज किस तरह नाचता है यह हम देख ही चुके हैं।  जिसे समाज पर नियंत्रण करना हो वह बाज़ार के सौदागरों सांठगांठ कर प्रचार प्रबंधकों के दम पर ढेर सारी लोकप्रियता हासिल कर सकता है। देश में उदारीकरण के बाद मध्यमवर्गीय समाज बुरी तरह से बिखरा है। खासतौर से लड़कों को रोजगार और लड़कियों के विवाह की समस्या इस वर्ग के लिये जटिल हुई है।  सबसे बड़ी बात यह कि रोजगार में असुरक्षा का भाव पैदा हुआ है।  एक अर्थशास्त्री के नाते हम देखें तो आज से पंद्रह बीस वर्ष पूर्व तक एक स्थिर समाज था जो स्वयं को अस्थिर अनुभव कर रहा है।  बड़ी कंपनियों के आगमन से नौकरियों का सृजन हुआ है पर लघु तथा व्यवसायों में लगे मध्यम वर्ग के लिये अब अस्तित्व बचाने का संकट सामने हैं। कंपनी नामक दैत्य समाज को खाता जा रहा है। छोंटे व्यवसायी का सम्मान लगभग खत्म हो चुका है।
            अभी हाल ही में राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य पर एक नये दल का उदय हुआ है। अन्ना हजारे जी ने एक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन प्रारंभ किया जिससे उनके कुछ भक्तों को विशेष प्रचार मिला।  उन्होंने एक राजनीतिक दल बनाया और सफल रहे। इस दल को पूरी तरह से प्रचार समूहों का सहारा मिला इसमें संशय नहीं है। अन्य स्थापित दल इससे विचलित हो गये हैं क्योंकि अब देश के युवा इस दल की तरफ आकर्षित हो रहे हैं।  इसका कारण भी वाली है। इस दल ने भले ही दंत तथा नखहीन अल्पमत वाली सरकार बनायी है पर उसके मंत्री एकदम आम आदमी रहे हैं।  पच्चीस छब्बीस साल की लड़की मंत्री बन गयी है। अनेक युवा मंत्री बने है। इससे पहले स्थापित राजनीतिक दलों में युवाओं को कभी इस तरह उभरने का अवसर नहीं मिला।  सच बात तो यह है कि आज कोई भी आम परिवार अपने युवा पुत्र तथा पुत्री को राजनीतिक क्षेत्र में जाने की सलाह नहीं देता। यह एक तरह स्थापित रजनीतिक दलों में व्याप्त जड़ता के भाव के अनेक ऐसे प्रमाण है कि युवाओं के नाम राजनीतिक दलों में परिवारवाद के आधार पर चयन को प्राथमिकता दी। नये दल ने राजनीति मे ंव्याप्त इस जड़भाव के स्थान पर आशावाद का संचार किया है।  इससे वही लोग समझते हैं जिन्होंने कभी किसी राजनीतिक दल से नाता नहीं रखा।  दूसरी बात यह कि इसके मंत्री आम आदमी के बीच जिस तरह विचर रहे हैं उससे लोगों में उत्सुकता का भाव पैदा हो रहा है। आधुनिक लोकतंत्र में प्रचार के सहारे ही चुनाव में जीत या हार मिलती है ऐसे में आम आदमी का इस नये के प्रति रुझान एक या दो नहीं वरन् समस्त राजनीतिक दलों के संकट का कारण बन सकता है, एक सामान्य निरपेक्ष लेखक के रूप में हमारा तो ऐसा ही मानना है।
            आज 1 जनवरी 2014 को इसी नये दल के हमने कुछ जगह सदस्यता अभियान के लिये स्टॉल लगे देखे।  ऐसा लगा कि किसी कंपनी का प्रचार हो या जैसे एक नयी दुकान खुल गयी है। हमें पता नहीं इस दल के पीछे कौनसे वास्तविक तत्व हैं पर जब अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चल रहा था तब हमने कहा था कि वह प्रायोजित किया गया हो सकता है। विश्व में चल रहे असंतोष का प्रभाव भारत में परिलक्षित न हो इसलिये बाजार तथा प्रचार समूही इसे प्रायोजित कर रहे हैं। दूसरा यह भी कि बाज़ार तथा प्रचार समूहों के शिखर पुरुष विदेश में अपने समकक्ष लोगों के सामने सीना तानकर कह सकते होंगे कि उनके यहां भी इस तरह का आंदोलतन चल रहा है। इस तरह के ंसदेह का  कारण यह था कि इस अंादोलन के समाचारों तथा बहसों के बीच बाज़ार के उत्पादों का ही विज्ञापन हो रहा था। नया दल इसी आंदोलन की देन है और संभव  है कि वही आर्थिक ताकतें राजनीतिक प्रभाव बनाये रखने के लिये इस आशा के साथ मदद कर रही हों ताकि लोगों का आज की राजनीति के प्रति खत्म हो रहा रुझान बना रहे। इस तरह का अनुमान इसलिये भी किया जा सकता है कि इस दल के पर्दे पर दिख रहे कर्णधार पेशेवर समाज सेवक यानि चंदा लेकर लोगों का भला करते रहे हैं।  संभव है पर्दे के पीछे कुछ उत्साही, निष्कर्मी, तथा विद्वान इसे सहायता कर रहे हों क्योंकि उनका लक्ष्य समाज हित करना ही रहता है। कम से कम हम जैसे बौद्धिक लोग तो यह मानते हैं कि इस दल का उदय होना ही चाहिये था।  देश के निर्जीव होते जा रहे लोकतंत्र के लिये यह आवश्यक भी था।  संभव है कि हम जैसी सोच अनेक लोगों की हो बाज़ार और प्रचार समूहों ने इसे समझा हो इसलिये ही इस दल के अभ्युदय में जुटे हों।  इस दल को ढेर सारे सदस्य और चंदा मिल जायेगा इसमें संदेह नहीं है पर सवाल यह है कि देश में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्र मेें जो समस्यायें उनके निराकरण में यह दल कितना सहायका होगा? दिल्ली देश नहीं है पर वहां से कोई  निकले हल्के आशावादी संदेश पर लोगों का ध्यान जाता है।  संभव है कि कि हम जैसे लोगों यह सोच भी  बाज़ार तथा प्रचार समूहों के संयुक्त समाज नियंत्रण की रणनीति के प्रभाव में फंसने के कारण बनी हो। हमारे पास अपना कोई साधन तो है नहीं इसलिये वर्तमान सक्रिय प्रचार माध्यमों के आधार पर ही अपना चिंत्तन लिखते हैं।
            हमें सबसे अधिक चिंता अस्थिर समाज को लेकर है।  जाति, भाषा, वर्ण, धर्म तथा अन्य आधारों पर बने समाज टूट चुके हैं पर नया कुछ नहीं बन रहा है।  उम्मीद है नये ईसवी संवत् में कुछ नया होगा।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  'Bharatdeep',Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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