पूरे विश्व में आधुनिक
लोकतंत्र ने राजनीति शास्त्र का अध्ययन न करने वाले लोगों को भी राजकीय कर्म में
आने के अवसर दिये हैं यह अलग बात कि उससे अनेक तरह के विरोधाभासी दृश्य देखने को
मिलते हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली में राजसी कर्म के लिये पद प्राप्त करने के लिये
योग्यता से अधिक चुनाव जीतने की कला का महत्व है। विभिन्न देशों में संविधान के
अनुसार एक स्थाई राज्य व्यवस्था तो रहती है जिसे स्थाई तथा अस्थाई वेतनभोगी
कर्मचारी स्वाभाविक रूप से चलाते हैं। उन्हें न तो चुनाव लड़ना है न जनता के प्रति
जवाबदेही का भाव रखना है। वह स्थाई रूप से कार्य करते हैं यह अलग बात है कि सर या
साहब बदलता रहता है। व्यवस्था की कार स्वतः चलती है पर उसमें बैठने वाला सर
प्रजाजन अपने मत से तय करते हैं। यही कारण है कि अनेक ऐसे लोग जो व्यवस्था से
परिचित नहीं होते वह भी तमाम तरह के वादे तथा दावे लोगों के सामने जताकर चुनाव जीत जाते हैं। पद पर प्रतिष्ठत
होने के पश्चात् राजनीति तथा प्रशासन की समझ न होने के कारण वह कोई काम नहीं कर
पाते पर जनता में अपनी छवि बनाये रखने के लिये गरीबों, बीमारों, बच्चों, वृद्धों और
स्त्रियों का उद्धारक बने रहने के लिये अनेक तरह के स्वांग रचते हैं। भाषण करते हैं पर उनके दावों को कभी अमल में
आते देखा नहीं जाता। यही कारण है कि हम
देख रहे हैं कि अनेक देशों में लोकतांत्रिक प्रणाली के बावजूद वहां की जनता में
फैला असंतोष दिखाई देता है।
संत तुलसीदास कहते हैं कि
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सारदुल को स्वांग करि, कूकर की करतूति।
‘तुलसी’ ता पर चाहिए, कीरति विजय विभूति।।
सामान्य
हिन्दी में भावार्थ-लोग सिंह
की खाल ओढ़कर भी श्वान जैसा स्वांग करते हैं उस पर भी प्रतिष्ठा, विजय तथा ऐश्वर्य चाहते हैं।
राज करत बिनु काजहीं, करहि कुचालि कुसाजि।
‘तुलसी’ ते दसकंध ज्यों, जइहैं सहित समाजि।।
सामान्य हिन्दी में भावार्थ-बिना किसी विशेष कार्य किये छल कपट के साथ राज्य करने
वाले का अतिशीघ्र पतन हो जाता है।
राजकीय कर्म शुद्ध रूप से
राजसी प्रकृत्ति का परिचायक है। तय बात है कि उसके लिये राजसी बृद्धि से काम लेना
होता है जबकि देखा यह गया है कि एक बार पद
मिलने पर उच्च पदस्थ लोग अपने को मिलने वाली सुविधाओं के भोग तथा सम्मान में के
मोह में फंस जाते हैं। बौद्धिक रूप से
आलस्य करते हुए तामसी वृत्ति का शिकार हो जाते हैं। वह अपने पद का अधिक से अधिक अपने लिये उपयोग
करते हैं जिससें चुनाव के दौरान उनकी धवल छवि बाद में मलिन होने लगती है। इससे जनता में भारी निराशा व्याप्त होती है और
कभी कभी उसका उग्र रूप भी प्रकट होता है।
विश्व में लोकतांत्रिक
प्रणाली होने हमारी सभ्यता का जहां एक आभूषण है अतः उससे दूर तो हुआ नहीं जा सकता
पर यह आवश्यक है कि राजकीय पद पर प्रतिष्ठत होने के लिये उत्सुक लोग चुनाव मैदान
में उतरने से पहले अर्थशास्त्र तथा प्रबंध शास्त्र के साथ राजनीति शास्त्र का अध्ययन
भी कर लें। जब तक उनकी समझ में राजकीय कर्म के मूलतत्व न आयें तब तक वह उससे दूर
ही रहें। इससे उनका तथा जनता दोनों का भला होगा।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
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