चाणक्य कथन-समाज में लोकप्रियता अर्जित करने के लिए सबसे पहले दूसरों की निंदा करना बंद कर देना चाहिऐ। परनिंदा करने में रस लेना मानव की स्वाभाविक प्रवृति है। वाणी पर संयम रखना एक तरह से तपस्या है। जो दूसरों की निंदा नहीं करता वही समाज में लोकप्रियता अर्जित कर सकता है।
लेखकीय अभिमत- हमारा अध्यात्म दर्शन कहता है कि बड़ी लकीर को थूक से छोटी करने वाला वाला मूर्ख और उसके मुकाबले बड़ी लकीर खींचने वाला बुद्धिमान होता है। हमने देखा होगा कि अधिकतर लोग दूसरेको छोटा और घटिया बताकर अपने को बडा और ऊंचा साबित करना चाहते हैं। 'अमुक व्यक्ति ऐसा है', 'अमुक व्यक्ति में यह दोष है, 'और अमुक व्यक्ति वह बुरा काम करता है'-ऐसी चर्चा अक्सर लोग करते हैं और उनका आशय यह होता है कि हम भले, उस दोष से रहित और अच्छे काम करने वाले लोग हैं। आप और हम में से अधिकतर लोग ऐसा ही करते हैं।
इसका एक दूसरा रूप भी देखें। जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे की निंदा कर जब हमारे सामने से हटता है तो हम उसमें भी दोष देखने लगते हैं और वही बातें उसके बारे में सोचते हैं जो वह दूसरे के बारे में कह रहा था। मन ही मन कई बार कहते हैं कि 'उसके दोष तो देखता है अपने नहीं'।
क्या हम कभी सोचते हैं कि कहीं हम भी किसी की निंदा करते हैं और जब वहाँ से हटते हैं तो दूसरा व्यक्ति भी हमारे बारे में यही सोचता होगा। हम वाणी पर संयम की बात तो करते हैं पर आत्ममंथन नहीं करते। हम वाणी से अच्छा बोलते हैं तो वातावरण भी वैसा ही बनता है और खराब बोलते हैं तो खराब। जब हम किसी से अच्छा बोलकर अलग होंगे तो दूसरे व्यक्ति के मन में अच्छे विचार छोड़ जायेंगे तो वह अच्छा सोचेगा और खराब छोड़ जायेंगे तो वह हम में भी दोष देखेगा। हम अपनी इन्द्रियों से ही ग्रहण करते है और विसर्जन भी और सब अपने लिए ही प्रभावकारी होता है। अत: हमें अपने वाणी पर संयम रखते हुए अच्छी बात ही करना चाहिए।
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