लुट जाने का खतरा अब
गैरो से नहीं सताता
अपनों को ही यह काम
अच्छी तरह करना आता
पहरेदारी अपने घर की किसे सौेपे
यकीन किसी पर नहीं आता
जहां भी देखा है लुटते हुए लोगों को
अपनों का हाथ नजर आता
कई बाग उजड़ गये हैं
माली अब फूल नहीं लगाता
इंतजार रहता है उसे
कोई आकर लगा जाये पेड़ तो
वह उसे बेच आये बाजार में
इस तरह अपना घर सजाता
नाम के लिये करते हैं मोहब्बत
बेईमानी से उनकी है सोहबत
जमाने के भलाई का लगाते जो लोग नारा
लूट में उनको ही मजा आता
कहें भारतदीप
मन में है उथलपुथल तो
अमन कहां से आयेगा यहां
जिनके हाथ में बागडोर होती चमन की
किसी और से क्या खतरा होगा
वही उसका दुश्मन हो जाता
..................................
यह अव्यवसायिक ब्लॉग/पत्रिका है तथा इसमें लेखक की मौलिक एवं स्वरचित रचनाएं प्रकाशित है. इन रचनाओं को अन्य कहीं प्रकाशन के लिए पूर्व अनुमति लेना जरूरी है. ब्लॉग लेखकों को यह ब्लॉग लिंक करने की अनुमति है पर अन्य व्यवसायिक प्रकाशनों को यहाँ प्रकाशित रचनाओं के लिए पूर्व सूचना देकर अनुमति लेना आवश्यक है. लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
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Sunday, April 27, 2008
Friday, April 25, 2008
‘सिवाय रोटी के इंतजार के और क्या कर सकता हूं’-व्यंग्य कविता
कुर्ते और पैंट में लगे पैबंद
पुराना और मैला कुचला थैला लटकाये
अपनी दाढ़ी बढ़ाये लेखक
पहुंचा प्रकाशक के पास और बोला
‘‘आपके यहां कोई लेखक की
जगह खाली है
इधर मेरा पेट खाली है
बेटा रहता है बीमार और
परेशान और रोटी को तरसी घरवाली है
आप मुझे अपने यहां कम देंगे
तो आपका आभार मानूंगा
मैं बहुत अच्छा लिख सकता हूं’’
प्रकाशक ने कहा
‘‘बताने की जरूरत नहीं है
हाल तुम्हारे बता देते हैं कि
तुम्हें हिंदी में लिखना होगा
नाम तो होगा हमारे घर के ही सदस्य का
तुम्हें अपना नाम भूलना होगा
हां तुम लिख सकते हो अच्छा
यह भी समझ में आता है
तुम्हारा फटेहाल होना यह दर्शाता है
पर एक महीने तक और भी
तुम्हें भूखा रहना होगा
रोटी को भूलना होगा
कोई एडवांस नहीं मिलेगा
शर्त मंजूर हो तो तुम्हें काम पर रख सकता हूं
लेखक ने कहा
‘आप मुझे एक सप्ताह बाद
कुछ पैसे देना
फिर चाहे वेतन में से काट लेना
लिखने के साथ रोटी भी जरूरी है
पेट भरने पर मैं और भी अच्छा लिख सकता हूं’
प्रकाशक ने कहा
‘मुझे इतना भी अच्छा नहीं लिखवाना
इसीलिये पेट तुम्हारा नहीं भरवाना
अंग्रेजी के होते तो सोचता
हिंदी के हो इसलिये
नहीं दे सकता तुम्हें कोई बहाना
भूखे रहोगे तो भूख पर लिखोगे
बीमारी पर तभी लिख सकते हो
जब उस जैसे अपने को दिखोगे
मैं कोई किसी का दर्द हरने वाला नहीं
बल्कि उसका व्यापार करता हूं
लिखवाता हूं भूखे से उसकी रोटी
बहुंत समय तक उधार रखता हूं
अपनी शर्तों पर ही मैं चल सकता हूं’
इस तरह भूखा लेखक लिखने बैठ गया
सोचने लगा
‘सिवाय रोटी के इंतजार के और क्या कर सकता हूं’
पुराना और मैला कुचला थैला लटकाये
अपनी दाढ़ी बढ़ाये लेखक
पहुंचा प्रकाशक के पास और बोला
‘‘आपके यहां कोई लेखक की
जगह खाली है
इधर मेरा पेट खाली है
बेटा रहता है बीमार और
परेशान और रोटी को तरसी घरवाली है
आप मुझे अपने यहां कम देंगे
तो आपका आभार मानूंगा
मैं बहुत अच्छा लिख सकता हूं’’
प्रकाशक ने कहा
‘‘बताने की जरूरत नहीं है
हाल तुम्हारे बता देते हैं कि
तुम्हें हिंदी में लिखना होगा
नाम तो होगा हमारे घर के ही सदस्य का
तुम्हें अपना नाम भूलना होगा
हां तुम लिख सकते हो अच्छा
यह भी समझ में आता है
तुम्हारा फटेहाल होना यह दर्शाता है
पर एक महीने तक और भी
तुम्हें भूखा रहना होगा
रोटी को भूलना होगा
कोई एडवांस नहीं मिलेगा
शर्त मंजूर हो तो तुम्हें काम पर रख सकता हूं
लेखक ने कहा
‘आप मुझे एक सप्ताह बाद
कुछ पैसे देना
फिर चाहे वेतन में से काट लेना
लिखने के साथ रोटी भी जरूरी है
पेट भरने पर मैं और भी अच्छा लिख सकता हूं’
प्रकाशक ने कहा
‘मुझे इतना भी अच्छा नहीं लिखवाना
इसीलिये पेट तुम्हारा नहीं भरवाना
अंग्रेजी के होते तो सोचता
हिंदी के हो इसलिये
नहीं दे सकता तुम्हें कोई बहाना
भूखे रहोगे तो भूख पर लिखोगे
बीमारी पर तभी लिख सकते हो
जब उस जैसे अपने को दिखोगे
मैं कोई किसी का दर्द हरने वाला नहीं
बल्कि उसका व्यापार करता हूं
लिखवाता हूं भूखे से उसकी रोटी
बहुंत समय तक उधार रखता हूं
अपनी शर्तों पर ही मैं चल सकता हूं’
इस तरह भूखा लेखक लिखने बैठ गया
सोचने लगा
‘सिवाय रोटी के इंतजार के और क्या कर सकता हूं’
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Thursday, April 24, 2008
ज्ञान का व्यापार कर ले-हास्य कविता
पिता ने कहा अपने पुत्र से
‘बेटा नहीं लग रहा मन तेरा
स्कूल की पढ़ाई में तो
तो कहीं कोई गुरू ढूंढ ले
और जीवन का ज्ञान प्राप्त कर
अपना जीवन सफल कर ले’
पुत्र ने खुश होकर कहा
‘जी पिताजी आपने मेरे मन की बात कही
आज ही कोई गुरू ढूंढता हूं और
जो जीवन का ज्ञान देकर
मेरा जीवन सफल कर दे
चलूंगा उसी मार्ग पर
जहां मेरा मन सत्य के दर्शन कर ले’
सुनकर पिता को आया गुस्सा
और बोले
‘जब भी बात करना
उल्टी करना
मैं तुझे ज्ञान प्राप्त कर
उस मार्ग पर चलने के लिये नहीं कह रहा
मेरा मतलब तो यह है कि
तू भी ‘ज्ञान का व्यापार’ कर ले
अज्ञानियों के झुंड में उसे बेचकर
किसी तरह अपना घर भर ले’
....................................................
ज्ञान का व्यापार भी
अब बहुत फलफूल रहा है
जो बेचता है वह माया के झूले में झूल रहा है
कहने वाले भी कहें छोड़ दो
सुनने वाले भी दोहरायें कि
माया है महाठगिनी
नहीं है किसी की भगिनी
पकड़े हैं अपने हाथ में सभी अज्ञान
पर हर कोई ज्ञानी होने के अहंकार में फूल रहा है
....................................................
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फूल और कांटे-हिंदी शायरी
करते है लोग लोग शिकायत
असली फूलों में अब वैसी
सुगंध नहीं आती
नकली फूलों में ही इसलिये
असली खुशबू छिड़की जाती
दौलत के कर रहा है खड़े नकली पहाड़ आदमी
पहाड़ों को रौदता हुआ
नैतिकता के पाताल की तरफ जा रहा आदमी
सुगंध बिखेर कर खुश कर सके उसे
यह सोचते हुए भी फूल को शर्म आती
...............................
नकली रौशनी में मदांध आदमी
नकली फूलों में सुगंध भरता आदमी
अब असली फूलों की परवाह नहीं करता
पर फिर भी उसके मरने पर अर्थी में
हर कोई असली फूल भरता
भला कौन मरने पर उसकी सुगंध का
आनंद उठाना है
यही सोचकर असली फूलों की
आत्मा सुंगध से खिलवाड़ करता
..............................
धूप में खड़े असली फूल ने
कमरे में सजे असली फूल की
तरफ देखकर कहा
‘काश मैं भी नकली फूल होता
दुर्गंधों ने ली मेरी खुशबू
इसलिये कोई कद्र नहीं मेरी
मै भी उसकी तरह आत्मा रहित होता’
फिर उसने डाली
नीचे अपने साथ लगे कांटो पर नजर
और मन ही मन कहा
‘जिन इंसानों ने कर दिया है
मुझे इतना बेबस
फिर भी मेरे साथ है यह दोस्त
क्या मै इनसे दूर नहीं होता
........................................
असली फूलों में अब वैसी
सुगंध नहीं आती
नकली फूलों में ही इसलिये
असली खुशबू छिड़की जाती
दौलत के कर रहा है खड़े नकली पहाड़ आदमी
पहाड़ों को रौदता हुआ
नैतिकता के पाताल की तरफ जा रहा आदमी
सुगंध बिखेर कर खुश कर सके उसे
यह सोचते हुए भी फूल को शर्म आती
...............................
नकली रौशनी में मदांध आदमी
नकली फूलों में सुगंध भरता आदमी
अब असली फूलों की परवाह नहीं करता
पर फिर भी उसके मरने पर अर्थी में
हर कोई असली फूल भरता
भला कौन मरने पर उसकी सुगंध का
आनंद उठाना है
यही सोचकर असली फूलों की
आत्मा सुंगध से खिलवाड़ करता
..............................
धूप में खड़े असली फूल ने
कमरे में सजे असली फूल की
तरफ देखकर कहा
‘काश मैं भी नकली फूल होता
दुर्गंधों ने ली मेरी खुशबू
इसलिये कोई कद्र नहीं मेरी
मै भी उसकी तरह आत्मा रहित होता’
फिर उसने डाली
नीचे अपने साथ लगे कांटो पर नजर
और मन ही मन कहा
‘जिन इंसानों ने कर दिया है
मुझे इतना बेबस
फिर भी मेरे साथ है यह दोस्त
क्या मै इनसे दूर नहीं होता
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Thursday, April 17, 2008
यह कौनसी क्रिकेट-हास्य व्यंग्य
कल से क्रिकेट का कोई टूर्नामेंट शुरू हो रहा है अखबारों और टीवी पर उसका धूंआधार प्रचार होते देख एसा लगा कि क्रिकेट अब मुझसे अलविदा कह रही है।
पिछली बार इन्हीं दिनों ं मैने विश्व कप में भारत के हारने पर एक कविता लिखी थी अलविदा किकेट। उस समय सादा हिंदी फोंट में होने के कारण कोई उसे पढ़ नहीं पाया बाद में मैने इसे स्कैन कर एक ब्लाग रखा तो एक साथी ब्लागर ने लिखा कि ‘‘क्रिकेट तो मजे के लिये देखना चाहिए। कोई भी टीम हो हमें तो खेल का आनंद उठाना चाहिए। उन्होंने सभी टीमों के नाम भी गिनाए और उनमें एक भी टीम इसमें नहीं है। अगर मेरा वह यह लेख पढ़ें और उन्हें याद आये तो वह भी मानेंगे कि इस खेल से वह अब अपने को जोड़ नहीं पायेंगे।
एक अरब से अधिक आबादी वाले इस देश में बच्चा-बूढ़ा-जवान, स्त्री-पुरुष, डाक्टर-मरीज, प्रेमी-प्रेमिका, अमीर-गरीब, और सज्जन-दुर्जन सबके लिये यह खेल एक जुनून था तो केवल इसलिये कि कहीं न कहीं इसके साथ खेलने वाली टीमों के साथ उनका भावनात्मक लगाव था पर लगता है कि वह खत्म हो गया है। ऐसा लगता है कि क्रिकेट की यह प्रतियोगिता मेरी हास्य कविता का जवाब हो जैस कह रही हो ‘अलविदा प्यारे अब नहीं हम तुम्हारे’।
कोई आठ टीमें हैं जिनके नाम मैंने पढ़ें। उनमें से किसी के साथ मेरा तो क्या उन शहरों या प्रदेशें लोगों के जज्वात भी नही जुड़ सकते जिनके नाम पर यह टीमें हैं। क्या वहां लोग संवेदनहीन है जो उनको यह आभास नहीं होगा कि देश के क्रिकेट प्रेमियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा इससे अलग हो गया है। कहते हैं कि क्रिकेट ने इस देश को एक किया और विभाजित क्रिकेट को देखकर क्या कहें?
लोगों के पास बहुत सारे संचार और प्रचार माध्यम हैं और सब जानने लगे हैं। लोगों को एक रखने के लिये वैसे भी क्रिकेट की जरूरत नहीं थी पर जिस तरह यह प्रतियोगिता शुरू हो रही है और उसमें जबरन लोगों की दिलचस्पी पैदा करने की जो कोशिश हो रही है वह विचारणीय है। अखबारों ने लिखा है कि इस पर करोड़ों रुपये को खेल होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें वह सब कुछ खुलेआम होगा जो पहले पर्दे के पीछे होता था। अब आम क्रिकेट प्रेमी को किसी प्रकार की शिकायत का अधिकार नहीं है क्योंकि कौन देश के नाम उपयोग कर रहा है? पहले जिसे देखो वही टीम इंडिया की हार को भी शक से देख रहा है तो जीत को भी। तमाम चेहरे जो चमके उन पर लोग कालिख के निशान देखने लगते। अब उनका यह अधिकार नहीं है। शुद्ध रूप से मनोरंजन के लिये यह सब हो रहा है। अब यह फिल्म है या क्रिकेट हमारे पूछने या जानने का हक नहीं है।
इसके बावजूद कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनकी तरफ ध्यान देना जरूरी है। इसके सामान्य क्रिकेट पर क्या प्रभाव होंगे? चाहे कितना भी किया जाये अगर राष्ट्रीय भावनायें नहीं जुड़ने से आम क्रिकेट प्रेमी तो इससे दूर ही होगा तो फिर इसके साथ कौन जुड़ेगा? इसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेले जाने वाले मैचों पर क्या अच्छा या बुरा प्रभाव होगा? कहने को कहते हैं कि निजी क्षेत्र तो जनता की मांग के अनुसार काम करता है पर अब सारी शक्तियां निजी क्षेत्र के हाथ में है तो वह अपने अनुसार लोगों की मांग निर्मित करना चाहता है। देखा जाये तो टीवी चैनलो और अखबारों में इसके प्रचार का लोगों पर कोई अधिक प्रभाव परिलक्षित नहीं हो रहा तो क्या वह इसकी खबरों को प्रमुखता देकर इसके लिये लोग जुटाने के प्रयास में लगे रहेंगे? हर क्रिकेट प्रेमी के दिमाग में एक शब्द था ‘भारत’ जिससे क्रिकेट को भाव का विस्तार होता था तो क्या नयी क्रिकेट के पास ऐसा कोई अन्य शब्द है जो फिर उसे विस्तार दे।
बीस ओवर की प्रतियोगिता में भारत की जीत के बाद मेरा मन कुछ देर के लिये क्रिकेट की तरफ गया था पर अब फिर वही हालत हो गयी। कल शुरू होने वाली प्रतियोगिता के लिये जो टीमों की सूची देखी तो मैं अपने आपसे पूछ रहा था ‘‘यह कौनसी क्रिकेट’’। आखिर कौन लोग इसे देखकर आनंद उठायेंगे। इस देश में आमतौर से लोग कहते है कि‘‘हमारे पास टाईम नहीं है’’पर क्रिकेट के लिए उनके पास टाईम और पैसे आ जाते हैं। मतलब यह कि कुछ लोगों के पास पैसे हैं पर उसके खर्च करने और टाईम पास करने के लिए कोई बहाना नहीं है और उनके लिए यह एक स्वर्णिम अवसर होगा।
जो मैच टीवी पर दिखता है उसको देखने के लिये भूखे प्यासे मैदान पर पहुंच जाते है ऐसे लोगों की इस देश में कमी नहीं है। जहां तक उनकी क्रिकेट में समझ का सवाल है तो अधिकतर टीवी पर अपनी शक्ल दिखाते हुए यह कहते हैं कि हम अपने हीरो को देखने आये थे। अब वहां जाकर कोई पूछ नहीं सकते कि क्या वह तुम को टीवी पर नहीं दिखाई देता।
खैर, कुल मिलाकर क्रिकेट अब खेल नहीं मनोरंजन बन गया है यह अलग बात है कि हम जैसे ब्लागर के लिये तो ऐसे मैचों से अच्छा यही होगा कि कोई फालतू कविता लिखकर मजा ले लें आखिर छहः सो रुपया हम इस पर खर्च कर रहे है।
पिछली बार इन्हीं दिनों ं मैने विश्व कप में भारत के हारने पर एक कविता लिखी थी अलविदा किकेट। उस समय सादा हिंदी फोंट में होने के कारण कोई उसे पढ़ नहीं पाया बाद में मैने इसे स्कैन कर एक ब्लाग रखा तो एक साथी ब्लागर ने लिखा कि ‘‘क्रिकेट तो मजे के लिये देखना चाहिए। कोई भी टीम हो हमें तो खेल का आनंद उठाना चाहिए। उन्होंने सभी टीमों के नाम भी गिनाए और उनमें एक भी टीम इसमें नहीं है। अगर मेरा वह यह लेख पढ़ें और उन्हें याद आये तो वह भी मानेंगे कि इस खेल से वह अब अपने को जोड़ नहीं पायेंगे।
एक अरब से अधिक आबादी वाले इस देश में बच्चा-बूढ़ा-जवान, स्त्री-पुरुष, डाक्टर-मरीज, प्रेमी-प्रेमिका, अमीर-गरीब, और सज्जन-दुर्जन सबके लिये यह खेल एक जुनून था तो केवल इसलिये कि कहीं न कहीं इसके साथ खेलने वाली टीमों के साथ उनका भावनात्मक लगाव था पर लगता है कि वह खत्म हो गया है। ऐसा लगता है कि क्रिकेट की यह प्रतियोगिता मेरी हास्य कविता का जवाब हो जैस कह रही हो ‘अलविदा प्यारे अब नहीं हम तुम्हारे’।
कोई आठ टीमें हैं जिनके नाम मैंने पढ़ें। उनमें से किसी के साथ मेरा तो क्या उन शहरों या प्रदेशें लोगों के जज्वात भी नही जुड़ सकते जिनके नाम पर यह टीमें हैं। क्या वहां लोग संवेदनहीन है जो उनको यह आभास नहीं होगा कि देश के क्रिकेट प्रेमियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा इससे अलग हो गया है। कहते हैं कि क्रिकेट ने इस देश को एक किया और विभाजित क्रिकेट को देखकर क्या कहें?
लोगों के पास बहुत सारे संचार और प्रचार माध्यम हैं और सब जानने लगे हैं। लोगों को एक रखने के लिये वैसे भी क्रिकेट की जरूरत नहीं थी पर जिस तरह यह प्रतियोगिता शुरू हो रही है और उसमें जबरन लोगों की दिलचस्पी पैदा करने की जो कोशिश हो रही है वह विचारणीय है। अखबारों ने लिखा है कि इस पर करोड़ों रुपये को खेल होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें वह सब कुछ खुलेआम होगा जो पहले पर्दे के पीछे होता था। अब आम क्रिकेट प्रेमी को किसी प्रकार की शिकायत का अधिकार नहीं है क्योंकि कौन देश के नाम उपयोग कर रहा है? पहले जिसे देखो वही टीम इंडिया की हार को भी शक से देख रहा है तो जीत को भी। तमाम चेहरे जो चमके उन पर लोग कालिख के निशान देखने लगते। अब उनका यह अधिकार नहीं है। शुद्ध रूप से मनोरंजन के लिये यह सब हो रहा है। अब यह फिल्म है या क्रिकेट हमारे पूछने या जानने का हक नहीं है।
इसके बावजूद कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनकी तरफ ध्यान देना जरूरी है। इसके सामान्य क्रिकेट पर क्या प्रभाव होंगे? चाहे कितना भी किया जाये अगर राष्ट्रीय भावनायें नहीं जुड़ने से आम क्रिकेट प्रेमी तो इससे दूर ही होगा तो फिर इसके साथ कौन जुड़ेगा? इसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेले जाने वाले मैचों पर क्या अच्छा या बुरा प्रभाव होगा? कहने को कहते हैं कि निजी क्षेत्र तो जनता की मांग के अनुसार काम करता है पर अब सारी शक्तियां निजी क्षेत्र के हाथ में है तो वह अपने अनुसार लोगों की मांग निर्मित करना चाहता है। देखा जाये तो टीवी चैनलो और अखबारों में इसके प्रचार का लोगों पर कोई अधिक प्रभाव परिलक्षित नहीं हो रहा तो क्या वह इसकी खबरों को प्रमुखता देकर इसके लिये लोग जुटाने के प्रयास में लगे रहेंगे? हर क्रिकेट प्रेमी के दिमाग में एक शब्द था ‘भारत’ जिससे क्रिकेट को भाव का विस्तार होता था तो क्या नयी क्रिकेट के पास ऐसा कोई अन्य शब्द है जो फिर उसे विस्तार दे।
बीस ओवर की प्रतियोगिता में भारत की जीत के बाद मेरा मन कुछ देर के लिये क्रिकेट की तरफ गया था पर अब फिर वही हालत हो गयी। कल शुरू होने वाली प्रतियोगिता के लिये जो टीमों की सूची देखी तो मैं अपने आपसे पूछ रहा था ‘‘यह कौनसी क्रिकेट’’। आखिर कौन लोग इसे देखकर आनंद उठायेंगे। इस देश में आमतौर से लोग कहते है कि‘‘हमारे पास टाईम नहीं है’’पर क्रिकेट के लिए उनके पास टाईम और पैसे आ जाते हैं। मतलब यह कि कुछ लोगों के पास पैसे हैं पर उसके खर्च करने और टाईम पास करने के लिए कोई बहाना नहीं है और उनके लिए यह एक स्वर्णिम अवसर होगा।
जो मैच टीवी पर दिखता है उसको देखने के लिये भूखे प्यासे मैदान पर पहुंच जाते है ऐसे लोगों की इस देश में कमी नहीं है। जहां तक उनकी क्रिकेट में समझ का सवाल है तो अधिकतर टीवी पर अपनी शक्ल दिखाते हुए यह कहते हैं कि हम अपने हीरो को देखने आये थे। अब वहां जाकर कोई पूछ नहीं सकते कि क्या वह तुम को टीवी पर नहीं दिखाई देता।
खैर, कुल मिलाकर क्रिकेट अब खेल नहीं मनोरंजन बन गया है यह अलग बात है कि हम जैसे ब्लागर के लिये तो ऐसे मैचों से अच्छा यही होगा कि कोई फालतू कविता लिखकर मजा ले लें आखिर छहः सो रुपया हम इस पर खर्च कर रहे है।
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Monday, April 14, 2008
क्रिकेट में अब वह रोमांच नहीं रहा
कानपुर में कल खत्म तीसरे टेस्ट मैच को देखकर तो ऐसा लगता है कि खिलाड़ी अब पांच दिवसीय मैचों में भी ट्वंटी-ट्वंटी जैसा खेलने चाहते हैं। पिच बहुत खराब थी या उस पर खेला नहीं जा सकता है यह केवल एक प्रचार ही लगता है। इसी पिच पर लक्ष्मण और गांगुली जमकर खेले और शायद इसलिये कि उनको अब इसका आभास हो गया है कि ट्वंटी-ट्वंटी के चक्क्र में रहे तो इससे भी जायेंगे। बाकी खिलाडी तो इसी चक्कर में है कि अब ट्वंटी-ट्वंटी का समय आ रहा है और उसके लिये इन्हीं टेस्ट मैचों में ही प्रयास किये जायें तो अच्छा है। चाहे कितनी भी सफाई दी जाये पर तीन दिन मे चार परियों का होना इस बात का प्रमाण है कि खिलाडि़यों में अब पिच पर टिक कर बल्लेबाजी करने की धीरज समाप्त हो गया है।
मैने यह मैच नहीं देखा। कल ऐसा लगा रहा कि भारत जीत रहा है तब काम से चला गया। जिस तरह राहुल द्रविड़ और गांगुली को खेलते देखा तो यह लगा कि पिच कैसी भी हो बल्लेबाज पर भी बहुत कुछ निर्भर होता है। संभव है कि अब ट्वंटी-ट्वंटी की जो प्रतियोगिता हो रही है उसके लिये कुछ खिलाड़ी तैयारी कर रहे हों और जिनको वहां पैसा कमाने का अवसर नहीं मिला हो वह इस प्रयास में रहे हो कि ट्वंटी-ट्वंटी के किसी प्रायोजक की नजर उस पर पड़ जाये। भारत जीत गया इससे कुछ लोगों को बहुत तसल्ली हो गयी होगी क्योंकि पिछले टेस्ट मैच में कुछ लोग भारत की हार पर रुआंसे हो गये होंगे। कुछ मिलाकर अब क्रिकेट के प्रशंसकों के दायरा सिमट रहा है और मुझे नहीं लगता कि इसकी किसी को फिक्र है। राष्ट्रीय भावना को इस खेल से जोड़ने का कोई मतलब नहीं रहा क्योंकि अब तो विदेशी खिलाड़ी भी इसमें कुछ देश के खिलाडियों के साथ मिलकर अपनी टीमों का मोर्चा संभालेंगे। भारत के संवेदनशील लोगों को यह गवारा नहीं होगा पर यह भी सच है कि आर्थिक उदारीकरण के इस युग में यह सब तो चलता रहेगा।
1983 में विश्व कप जीतने पर ही भारत में एकदिवसीय क्रिकेट मैच लोकप्रिय हुए थे और उसका कारण था कि लोगों में राष्ट्रप्रेम का भाव जाग उठा था। अब भले ही क्रिकेट में पैसा अधिक हो गया है पर उसका जो नया रूप सामने आ रहा है उसे देखते हुए उसमें ऐसी कोई भावना रखना अपने आपको धोखा देना होगा। हम जैसे लोगों के लिये तो अब भावनात्मक रूप से इस खेल में जुड़ना मुश्किल है जो हर बात में कुछ रोमांच तो चाहते हैं पर उसके साथ अपने क्षेत्र, प्रदेश और राष्ट्र की भावना की संतुष्टि चाहते हैं। अब तो इस खेल के साथ वही लोग जुड़ेंगे जो शुद्ध रूप से मनोरंजन तथा आर्थिक फायदे चाहते हैं।
मैने यह मैच नहीं देखा। कल ऐसा लगा रहा कि भारत जीत रहा है तब काम से चला गया। जिस तरह राहुल द्रविड़ और गांगुली को खेलते देखा तो यह लगा कि पिच कैसी भी हो बल्लेबाज पर भी बहुत कुछ निर्भर होता है। संभव है कि अब ट्वंटी-ट्वंटी की जो प्रतियोगिता हो रही है उसके लिये कुछ खिलाड़ी तैयारी कर रहे हों और जिनको वहां पैसा कमाने का अवसर नहीं मिला हो वह इस प्रयास में रहे हो कि ट्वंटी-ट्वंटी के किसी प्रायोजक की नजर उस पर पड़ जाये। भारत जीत गया इससे कुछ लोगों को बहुत तसल्ली हो गयी होगी क्योंकि पिछले टेस्ट मैच में कुछ लोग भारत की हार पर रुआंसे हो गये होंगे। कुछ मिलाकर अब क्रिकेट के प्रशंसकों के दायरा सिमट रहा है और मुझे नहीं लगता कि इसकी किसी को फिक्र है। राष्ट्रीय भावना को इस खेल से जोड़ने का कोई मतलब नहीं रहा क्योंकि अब तो विदेशी खिलाड़ी भी इसमें कुछ देश के खिलाडियों के साथ मिलकर अपनी टीमों का मोर्चा संभालेंगे। भारत के संवेदनशील लोगों को यह गवारा नहीं होगा पर यह भी सच है कि आर्थिक उदारीकरण के इस युग में यह सब तो चलता रहेगा।
1983 में विश्व कप जीतने पर ही भारत में एकदिवसीय क्रिकेट मैच लोकप्रिय हुए थे और उसका कारण था कि लोगों में राष्ट्रप्रेम का भाव जाग उठा था। अब भले ही क्रिकेट में पैसा अधिक हो गया है पर उसका जो नया रूप सामने आ रहा है उसे देखते हुए उसमें ऐसी कोई भावना रखना अपने आपको धोखा देना होगा। हम जैसे लोगों के लिये तो अब भावनात्मक रूप से इस खेल में जुड़ना मुश्किल है जो हर बात में कुछ रोमांच तो चाहते हैं पर उसके साथ अपने क्षेत्र, प्रदेश और राष्ट्र की भावना की संतुष्टि चाहते हैं। अब तो इस खेल के साथ वही लोग जुड़ेंगे जो शुद्ध रूप से मनोरंजन तथा आर्थिक फायदे चाहते हैं।
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Sunday, April 6, 2008
कोई दूसरा लगता हैं शख्स-हिन्दी क्षणिकाएँ
कभी किसी की बरात में
तो कभी किसी की शवयात्रा में
और कभी किसी की तबीयत का
हाल जानने अस्पताल में
जहां कदम ले जायें
वहीं हम भी चले जाते हैं
पर जानते हैं कि
जहां खुशियां करती बसेरा
वहीं गम भी आशियाना बनाते है
किसी की खुशी में पागल न हो
किसी का गम देख बदहाल न हो
इसलिये कहीं दिल साथ नहीं ले जाते हैं
...............................................................
कभी-कभी वह दिन
हमें याद आते हैं
जब ढलने को होता सूरज
लहराती थी शाम
हमारे हाथ में होता था जाम
हम थे नशे के गुलाम
अब भी तन्हाई में आती है याद
अपना ही देखते अक्स
कोई दूसरा लगता है शख्स
जिसके हाथ में होता था जाम
जो होता पियक्कड़ और बदनाम
फिर सोचते उससे हमें क्या काम
तो कभी किसी की शवयात्रा में
और कभी किसी की तबीयत का
हाल जानने अस्पताल में
जहां कदम ले जायें
वहीं हम भी चले जाते हैं
पर जानते हैं कि
जहां खुशियां करती बसेरा
वहीं गम भी आशियाना बनाते है
किसी की खुशी में पागल न हो
किसी का गम देख बदहाल न हो
इसलिये कहीं दिल साथ नहीं ले जाते हैं
...............................................................
कभी-कभी वह दिन
हमें याद आते हैं
जब ढलने को होता सूरज
लहराती थी शाम
हमारे हाथ में होता था जाम
हम थे नशे के गुलाम
अब भी तन्हाई में आती है याद
अपना ही देखते अक्स
कोई दूसरा लगता है शख्स
जिसके हाथ में होता था जाम
जो होता पियक्कड़ और बदनाम
फिर सोचते उससे हमें क्या काम
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Wednesday, April 2, 2008
मयखाने से जब निकले थे-हिन्दी शायरी
मयखाने से जब निकले थे
आखिरी बार
तब सोचा न था कि अब
यहां फिर कभी नहीं हम नहीं आयेंगे
अब भी देखते हैं राह पर चलते हुए
मयखानों की तरफ
पर अस्पताल जाने के डर से
मूंह फेर जाते हैं
घर में रखी आधी बोतल देखकर भी
डर जाते हैं
मन में आते ही कब पी जायेंगे
पता नहीं कब मय के डर के मुक्त हो पायेंगे
आखिरी बार
तब सोचा न था कि अब
यहां फिर कभी नहीं हम नहीं आयेंगे
अब भी देखते हैं राह पर चलते हुए
मयखानों की तरफ
पर अस्पताल जाने के डर से
मूंह फेर जाते हैं
घर में रखी आधी बोतल देखकर भी
डर जाते हैं
मन में आते ही कब पी जायेंगे
पता नहीं कब मय के डर के मुक्त हो पायेंगे
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लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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