शहर-दर-शहर घूमता रहा
इंसानों में इंसान का रूप ढूंढता रहा
चेहरे और पहनावे एक जैसे
पर करते हैं फर्क करते दिखते
आपस में ही एक दूसरे से
अपने बदन को रबड़ की तरह खींचते
हर पल अपनी मुट्ठियां भींचते
अपने फायदे के लिये सब जागते मिले
नहीं तो हर शख्स ऊंघता रहा
अपनी दौलत और शौहरत का
नशा है
इतराते भी उस बहुत
पर भी अपने चैन और अमने के लिये
दूसरे के दर्द से मिले सुगंध
हर इंसान इसलिये अपनी
नाक इधर उधर घुमाकर सूंघता रहा
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दीपक भारतदीप
2 comments:
bilkul sahi likha hai. aajkal ke log aese hi hote hai.
bahut sahi kuch logo ko dusre ke dard mein hi maza aata hai
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