दिन के उजाले में
लगता है बाजार
कहीं शय तो कहीं आदमी
बिक जाता है
पैसा हो जेब में तो
आदमी ही खरीददार हो जाता है
चारों तरफ फैला शोर
कोई किसकी सुन पाता है
कोई खड़ा बाजार में खरीददार बनकर
कोई बिकने के इंतजार में बेसब्र हो जाता है
भीड़ में आदमी ढूंढता है सुख
सौदे में अपना देखता अपना अस्त्तिव
भ्रम से भला कौन मुक्त हो पाता है
रात की खामोशी में भी डरता है
वह आदमी जो
दिन में बिकता है
या खरीदकर आता है सौदे में किसी का ईमान
दिन के दृश्य रात को भी सताते हैं
अपने पाप से रंगे हाथ
अंधेरे में भी चमकते नजर आते है
मयस्सर होती है जिंदगी उन्हीं को
जो न खरीददार हैं न बिकाऊ
सौदे से पर आजाद होकर जीना
जिसके नसीब में है
वह जिंदगी का मतलब समझ पाता है
................................
दीपक भारतदीप
लगता है बाजार
कहीं शय तो कहीं आदमी
बिक जाता है
पैसा हो जेब में तो
आदमी ही खरीददार हो जाता है
चारों तरफ फैला शोर
कोई किसकी सुन पाता है
कोई खड़ा बाजार में खरीददार बनकर
कोई बिकने के इंतजार में बेसब्र हो जाता है
भीड़ में आदमी ढूंढता है सुख
सौदे में अपना देखता अपना अस्त्तिव
भ्रम से भला कौन मुक्त हो पाता है
रात की खामोशी में भी डरता है
वह आदमी जो
दिन में बिकता है
या खरीदकर आता है सौदे में किसी का ईमान
दिन के दृश्य रात को भी सताते हैं
अपने पाप से रंगे हाथ
अंधेरे में भी चमकते नजर आते है
मयस्सर होती है जिंदगी उन्हीं को
जो न खरीददार हैं न बिकाऊ
सौदे से पर आजाद होकर जीना
जिसके नसीब में है
वह जिंदगी का मतलब समझ पाता है
................................
दीपक भारतदीप
1 comment:
सही है महाराज!!
Post a Comment