कौन लिखता और कौन पढ़ता है
देखते और पढ़ते हैं सभी खबर वही
जिससे फैलती हो सनसनी
लिखने से खबर नहीं बनती
बेअसर रहते हैं शब्द तब
नहीं फैलती जब सनसनी
खबरफरोश ढूंढते खबर ऐसी
जो हिला दे पढ़ने वालों को
तोड़ दे जज्बातों के तालों को
भूखे का भूखा रहना
प्यासे का पानी के लिये तरसना
कोई खबर नहीं होती
मिलती है उनको भी जगह
जब कहीं नहीं फैली हो सनसनी
घायल आदमी अस्पताल में चिल्लाता
पर कोई उसका हमदर्द नहीं आता
भीड़ लग जाती है दर्द सहलाने वालों की
अगर उसके जख्मों में से
बहती हो खून के साथ सनसनी
लोगों के दिल और दिमाग में
भर गया है शोर चारों तरफ
पर कोई नहीं देता उसकी तरफ कान
उसमें नहीं होता किसी को सनसनी का भान
जब तक तड़प कर मर न जाये आदमी
नहीं फैलती जमाने में सनसनी
ढूंढते हुए खबर जब
पहुंचते हैं अपने मुकान पर खबरफरोश
तब उसमें न भी हो तो
पैदा कर देते सनसनी
कभी कभी उनको बैठे बिठाये
दहशत के सौदागर
जो फैले हैं चारों तरफ
कभी-कभी भिजवा देते उनके पास
बमों के धमाके कर सनसनी
सड़कों पर जलती बस
बिखरा हुआ निर्दोषों का खून
कांपते हुए चेहरों का देखकर
फैलती है दहशत
बिकती है तब सनसनी
तब तक जारी रहेगा यह सिलसिला
जब तक बाजार में बिकेगी सनसनी
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1 comment:
बहुत सार्थक रचना है।बधाई स्वीकारें।
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