तुन कुछ छिपा रहे हों
क्या यह वही खंजर है
जो घौंपा था किसी के विश्वास में
या किसी के धोखे से उठाया सामान है
जो नहीं दिखा रहे हो
तुम्हारे चेहरे पर पसीने की
बहती लकीरें
जुबान में कंपन
आँखों में घबडाहट
क्या वह टूटी कलम है
जिससे लिखने चले थे दूसरे की तकदीरें
मिटा बैठे पहले लिखी लकीरें
नया लिखने से लाचार रहे तुम
अब अपनी खिसियाहट मिटा रहे हो
तुम हंसते दिखना चाहते हो
अपने भय से स्वयं को ही डराते हो
बिखर गया है तुम्हारा कोई इरादा
ज़माना चला नहीं तुम्हारे बताई राह पर
अपने कहे को तुम खुद ही समझे नहीं
जो खुलती देखी अपनी पोल तो
अब मासूम शक्ल बना कर
जमाने को दिखा रहे हो
हारने पर अपनी गल्तियाँ
छिपाना सिखा रहे हो
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
1 comment:
ज़माना चला नहीं तुम्हारे बताई राह पर
अपने कहे को तुम खुद ही समझे नहीं
जो खुलती देखी अपनी पोल तो
अब मासूम शक्ल बना कर
जमाने को दिखा रहे हो
हारने पर अपनी गल्तियाँ
छिपाना सिखा रहे हो
" kmaal kee abhevykte'
regards
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