बरसात का दिन, रात थी अंधियारी
गांव से दूर ऐक झौंपडी में
गरीब का चूल्हा नही जल पाया
घर में थी गरीबी की बीमारी
भूख से बिलबिलाते बच्चे और
पत्नी भी परेशानी से हारी
देख नही पा रहा था
आखिर चल पडा वह उसी साहूकार के घर
जिसने हमेशा भारी सूद के साथ
जोर जबरदस्ती वसूल की रकम सारी
जिसकी वजह से छोडा था गांव
और उसके परिवार सहित मरने की
झूठी खबर सुनकर
भूल गयी थी जनता सारी
बरसात में भीगे सफ़ेद कपडे उस पर
जमी थी धूल ढेर सारी
आंखें थीं पथराईं गाल पर बह्ते आंसू
साहूकार के घर तक पहुचते-पहुंचते
चेहरा हो गया ऐकदम भूत जैसा
रात के अंधियारे में देखकर उसे
सब घबडा गये वहां के नौकर
भागते-भागते मालिक को देते गये खबर सारी
जब तक वह संभलता पहुंच गया उसके पास
ताकतवर बना गरीब अपने भूत की बलिहारी
जिसकी आवाज थी बंद, मन था भारी
उसने मांगने के लिये हाथ एसे उठाये
जैसे हो कोई भिखारी
साहूकार कांप रहा था
भागा अंदर और अल्मारी से
निकाल लाया नोटों की गड्ढी
और आकर उसके हाथ में दी
कागज पर अंगूठा लगाने के
इंतजार में वह खडा रहा
कांपते हुए साहूकार ने कहा
''और भी दूं'
तेज बरसात की आवाज में उसने नहीं सुना
बस स्वीकरोक्ति में अपना सिर हिलाया
साहुकार फ़िर अंदर गया और गड्ढी ले आया
और उसके हाथ में दी
उसने हाथ में लेते हुए
अंगूठे के निशान के लिये किया इशारा
साहूकार था डर का मारा बोला
'महाराज उसकी कोई जरूरत नहीं है
आप मेरी जान बख्श दो, चाहे ले लो दौलत सारी'
वह लौट पडा वापस यह सोचकर कि
मेरी परेशानी से साहूकार द्रवित है
इसलिये दिखाई है कृपा ढेर सारी
साहूकार का ऐक समझदार नौकर
पूरा दृश्य देख रहा था
वह उस गरीब के पीछे आया
और उससे कहा
'मैं जानता हूं तुम भूत नहीं हो
बरसात की वजह से तुम्हें काम
नहीं मिलता होगा इसलिये कर्जा मांगने आये हो
अपने हाल की वजह से भूत की तरह छाये हो
कभी तुमने सोचा भी नहीं होगा
आज इतने पैसे पाये हो
कल तुम छोड् देना अपना घर
वरना टूट पडेगा साहूकार का कहर्
कल फ़ैल जायेगी पूरे गांवों में खबर सारी
मैं भी तुम्हारी तरह गरीब हूं
इसलिये करता हूं तरफ़दारी'
उस गरीब के समझ में आयी पूरी बात
और भूल गया वह अपनी भूख और प्यास
और नोटों की गड्ढी की तरफ़ देखते हुए बोला
'कितनी अजीब बात है
भूखे को रोटी नहीं देते और
भूत के लिये तिजोरी खोल देते
जिंदे को जीवन भर सताएं
मरों से मांगें जान की बख्शीश्
गरीब से करें सूद पर सूद वसूल
उसके भूत के आगे भूल जायें पहले
अंगूठे लगवाने का उसूल
कल छोड जाउंगा अपना घर
भूतों पर यकीन नही था मेरा
पर अपने इंसान होने की बात भी जाउंगा भूल
नहीं करूंगा फ़िर याद जिंदगी सारी
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Monday, October 13, 2008
जिन्दे को खाए, पर मरे से डरता आदमी-हास्य व्यंग्य कविता
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