कोई साहित्य अकादमी अगर अपने द्वारा प्रदत्त पुरस्कारों के लिये किसी देशी या विदेशी कंपनी को प्रायोजित करने के लिये बुलाती है तो उसमें बुराई देखना या न देखना हम जैसे असंगठित आम लेखकों के विषय के बाहर की बात है। सुनने में आ रहा है कि एक विचाराधारा विशेष के लेखक समूह उसका विरोध कर रहे हैं। तय बात है जब कोई संगठन अपनी तरफ से कोई अभियान प्रारंभ करता है तो वह आमजन का हवाला देता है वही संगठित विचाराधारा के समूह बद्ध लेखकों ने भी किया।
उनका तर्क बड़ा जोरदार है कि इस देश के लेखकों की एक बहुत बड़ी आबादी इस देश के समाज में चल रहे संघर्षों पर रचनायें कर रही हैं और इस तरह किसी बहुराष्ट्रीय को यहां बुलाकर उनका मजाक उड़ाना है।
उस साहित्य अकादमी के लोकतांत्रिक और स्वायत्त स्वरूप को क्षति पहुंचने की संभावना भी व्यक्त की जा रही है। चाहे देश में कोई भी भाषा हो, कम से कम एक आम लेखक तब तक कहीं से पुरस्कार मिलने की आशा नहीं करता जब तक वह संस्थागत होकर किसी को अपना शीर्ष पुरुष नहीं बनाता-हिन्दी का तो मामला कुछ अधिक ही विचित्र है। जब भी गणतंत्र दिवस आता है अनेक संस्थायें हिन्दी तथा अन्य भाषाओं के लेखकों को पुरस्कृत करती हैं पर यह पुरस्कार किसी आम लेखक या कवि के पास जाते हुए नहीं दिखता। अनेक पाठकों को यह पढ़कर आश्चर्य होगा कि इस देश में आजादी के बाद अनेक ऐसे शायर, कवि और लेखक हुए हैं जिन्होंने गज़ब का लिखा पर उनका नाम कभी राष्ट्रीय मानचित्र पर नहीं दिखा क्योंकि वह अपनी रोजरोटी के लिये जूझते रहे और उनके पास किसी संस्था से जुड़ने का अवसर नहीं रहा-यह लेखक कम से कम चार गज़ब के शायर और कवियों के बारे में जानता है। पता नहीं बाकी लोगों का इसमें क्या अनुभव है पर इस लेखक ने देखा है कि संस्थागत लेखन में पुरस्कार खूब बंटे पर उसे हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी भले ही उसे येनकेन प्रकरेण पाठ्य पुस्तकों में स्थान दिया गया। यही कारण है कि हिन्दी में नाटक, कहानियां और उत्कृष्ट पद्य की कमी की बात हमेशा कही जाती है।
इस बहस में मुख्य प्रश्न यह है कि जब फिल्म, क्रिकेट, व्यापार तथा अन्य क्षेत्रों में देशी तथा विदेशी कंपनियों का निवेश आ रहा है और उसका यहां के धनपति तथा अन्य लोग लाभ उठा रहे हैं तो फिर लेखकों को उससे दूर क्यों रहना चाहिये? एक बात सभी को समझना चाहिये कि भारत में हिन्दी तथा अन्य भाषाओं का आम लेखक कभी अपने लेखन की वजह से फलदायी स्थिति में नहीं रहा। संस्थागत लेखक भले ही उसका नाम लेते हों पर असंगठित लेखक इस बात को जानते हैं कि वह अपने लेखन की दम पर कभी बड़े पुरस्कार प्राप्त नहीं कर सकते। अभी जिस अभियान की बात हम कर रहे हैं उसे आम लेखक का समर्थन मिल रहा होगा यह आशा करना व्यर्थ ही है क्योंकि आम लेखक को न तो बहुराष्ट्रीय कंपनी की अनुपस्थिति में पुरस्कार मिलना था और न अब मिलना है? फिर जब हम देख रहे हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कई जगह अपने पांव फैलाये हैं तो साहित्य उससे कैसे बच सकता है? यहां राष्ट्रप्रेम की बात भी नहीं चल सकती क्योंकि यह पुरस्कार मिलना तो भारत के ही लोगों को है। दूसरी बात यह है कि पुरस्कार देने वाली सभी संस्थायें किसी न किसी विचारधारा के प्रभाव में रहती हैं और संबद्ध लेखक ही पुरस्कृत होते हैं ऐसे में एकता की बात बेमानी लगती है। दूसरा यह भी कि इन पुरस्कारों में हिन्दी के अनेक प्रदेश उपेक्षित रहे हैं और वहां के लेखकों के लिये ऐसे पुरस्कार एक अजूबा ही हैं। फिर क्षेत्र, भाषा और वैचारिक विभाजन की वजह से देश का बहुत बड़ा हिस्सा यह अनुभव कर सकता है कि संभवतः एक संस्था के लेखक पुरस्कार पायेंगे और दूसरे अपनी उपेक्षा की आशंका से पुरस्कारों के बहुराष्ट्रीय कंपनी के प्रायोजन का विरोध कर रहे हैं।
दूसरी बात यह है कि जो लेखक हैं उनको इस तरह के विरोध के लिये सड़क पर क्यों आना चाहिये? जब आम लेखक को लिखने के लिये प्रेरित करने की बात आती है तो संस्थागत लेखक कहते हैं कि पुरस्कार आदि की बात भूल जाओ क्योंकि यह स्वांत सुखाय है पर जब अपने सम्मानित होने का अवसर उपस्थित हो अपने पक्ष में ढेर सारे तर्क देते हैं। फिर सभी प्रकार के संस्थागत लेखक अपने ही निबंधों में बड़ा लेखक उसी को मानते हैं कि जिसे पुरस्कृत किया गया हो या जिसकी किताब छपी हो। ऐसे में उनको याद रखना चाहिये कि इस देश में लाखों लेखक हैं और सभी को न तो पुरस्कृत किया जा सकता है और न ही सभी किताबें छपवा सकते हैं। ऐसे में किसी अकादमी द्वारा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी से अपने पुरस्कारों का प्रायोजन बुरा हो तो भी आम लेखक उसके विरोध से परे दिखता है। संस्थागत लोग चाहे कितना भी शोर करें वह संपूर्ण भाषा साहित्य के प्रतिनिधि होने का दावा नहीं कर सकते क्योंकि उनके साथ जुड़े लोग भी सीमित क्षेत्र से होते हैं। इसके विपरीत अभी तक पुरस्कारों से वंचित कुछ उपेक्षित संगठित लेखकों का समूह इस आशा से इसका समर्थन भी कर सकता है कि कहीं उनको पुरस्कार मिल जाये। अलबत्ता हम जैसे आम लेखक के लिये ऐसे विषय केवल किनारे बैठकर देखने जैसे दिखते हैं। असंगठित क्षेत्र का लेखक चाहे कितना भी लिख ले पुरस्कार या किताब छपे बिना छोटा ही माना जाता है और देश में ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक है।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://dpkraj.blogspot.com
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1 comment:
पहली जरूरत है 'लेखकों के इस गैंग' को तोड़ने की। इसने देश में साहित्य, कला और शिक्षा को बंधक बना लिया है। स्वतंत्र-चिन्तन करने वाले इसमें पिस रहे हैं। गैंग में शामिल न होने वाले अलग-थलग और उपेक्षित रह जाते हैं। गैंग के सदस्य एक-दूसरे की पीठ थपथपाकर आपस में मलाई काटते रहे हैं और साहित्य व कला की ठेकेदारी करते रहते हैं।
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