वाद और नारों पर ताउम्र चलते रहे
उधार के तेल पर घर के चिराग जलते रहे
अक्ल भी उधार की थी सो रौशनी अपनी समझी
जब हुआ अंधेरा तो हाथ मलते रहे
जब मांगा साहूकारों ने अपने सामान का हिसाब
तो लगाने लगे नारे
वाद में ही ढूंढने लगे अपना जवाब
भीड़ में भेड़ की तरह चले
पर अकेले हुए तो
अपनी हालातों पर आंखें से आंसू ढलते रहे
जिन्होंने किये थे वादे हमेशा
रौशनी दिलाने का
वह तो पा गये सिंहासन
भूल गये अंधेर घरों को
उनके घर पर चमक बिखरी थी
अंधेरे उनसे दूर डरे लगते रहे
वाद पर चले थे जितने कदम
उनके निशान नहीं मिले
अपने ही लगाये नारों को ही भूल गये
भलाई के सौदागर तो कर गये अपना काम
बिके थे बाजार में सौदे की तरह
वह इंसान अपने हाथ मलते रहे
......................
उधार के तेल पर घर के चिराग जलते रहे
अक्ल भी उधार की थी सो रौशनी अपनी समझी
जब हुआ अंधेरा तो हाथ मलते रहे
जब मांगा साहूकारों ने अपने सामान का हिसाब
तो लगाने लगे नारे
वाद में ही ढूंढने लगे अपना जवाब
भीड़ में भेड़ की तरह चले
पर अकेले हुए तो
अपनी हालातों पर आंखें से आंसू ढलते रहे
जिन्होंने किये थे वादे हमेशा
रौशनी दिलाने का
वह तो पा गये सिंहासन
भूल गये अंधेर घरों को
उनके घर पर चमक बिखरी थी
अंधेरे उनसे दूर डरे लगते रहे
वाद पर चले थे जितने कदम
उनके निशान नहीं मिले
अपने ही लगाये नारों को ही भूल गये
भलाई के सौदागर तो कर गये अपना काम
बिके थे बाजार में सौदे की तरह
वह इंसान अपने हाथ मलते रहे
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
3 comments:
बहुत सुन्दर रचना है बधाई।
अपने ही लगाये नारों ही भूल गये
भलाई के सौदागर तो कर गये अपना काम
बिके थे बाजार में सौदे की तरह
वह इंसान अपने हाथ मलते रहे
एक अच्छी कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद
वीनस केसरी
वह तो पा गये सिंहासन
भूल गये अंधेर घरों को
उनके घर पर चमक बिखरी थी
अंधेरे उनसे दूर डरे लगते रहे
yahi aaj ki haqikt hai
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