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Saturday, January 22, 2011

ज़मीन पर तैराकी-हिन्दी व्यंग्य (zamih par tairaki-hindi vyangya-hindi vyangya)

टीवी पर प्रसारित एक समाचार को देख सुनकर यह विचार नहीं बन पाया कि उस पर व्यंग्य लिखें कि चिंतन! खबर यह थी कि झारखंड में राष्ट्रीय खेलों में भाग लेने वाले तैराकों को जमीन पर तैराकी का प्रशिक्षण दिया जा रहा है क्योंकि पानी का प्रबंध नहीं हो पाया। समाचार के साथ प्रसारित दृश्यों में बाकायदा खिलाड़ियों को जमीन पर तैराकी जैसे हाथ पांव मारते दिखाया गया। उसे देखकर तो यही लगा कि जैसे कि वह योग साधना जैसा कुछ कर रहे हैं। अब हम सोच रहे थे कि इस पर हंसे कि रोऐं! हंसें तो व्यंग्य लिखना पड़ता और रोऐं तो चिंतन! मगर यह खबर तो ऐसा स्तब्ध किये दे रही थी कि लगने लगा कि इस पर तो हिन्दी में कोई विद्या लिखने लायक तो है ही नहीं-कम से कम अपनी बुद्धि में तो नहीं।
यह समाचार हास्य कविता जैसा भी नहीं था क्योंकि उस पर हंसी नहीं आती। व्यंग्य जैसा लिखें तो लगता है कि प्रस्तुति दर्दनाक बन जायेगी। मित्र लोग हास्य कविता लिखना पसंद नहीं करते। शायरियां लिखना हमें आता नहीं। हास्य व्यंग्य देखकर लोग कह देते हैं कि यह तो चिंतन जैसा बन गया। लोग गंभीर चिंतन लिखने के लिये कहते हैं पर जब दर्द असहनीय हो जाये तो एक ही रास्ता है कि हास्यासन किया जाये।
जमीन पर तैराकी का प्रशिक्षण अपने आपमें एक अजूबा है जो शायद अपने ही देश में संभव है। युवा पीढ़ी को आगे लाने के दावे रोज सुनते हैं पर इस सवाल का जवाब कौन देगा कि घर में ही जब पानी का अकाल हो तो बाहर कौन जाकर शेर जैसी तैराकी करेगा। मगरमच्छ कागज का बांध बनाकर पानी को रोक लें तो आम आदमी मछली जैसे भी कहां तैर पायेगा।
बहुत हास्य व्यंग्य लिखे और पढ़े पर लगता है कि बेकार रहा। शरद जोशी, हरिशंकर परसाईं और श्रीलाल शुक्ल हिन्दी भाषा में हास्य व्यंग्य लिखने के लिये जाने जाते हैं। उन जैसे रचनाकारों का हिन्दी साहित्य में बहुत बड़ा स्थान है। श्री शरद जोशी का एक वाक्य तो भूलाये नहीं भूलता कि ‘हम इसलिये अब तक जिंदा हैं क्योंकि हमें मारने के लिये किसी के पास फुर्सत नहीं है।’
उनका आशय यही था कि चूंकि लुटने पिटने के लिये बहुत सारे धनी मानी लोग हैं पर लूटने वाले कम हैं। इसलिये अपना नंबर तो आने से रहा। बहरहाल अब तो देश में ऐसी ऐसी घटनायें होने लगी हैं कि कहना पड़ता है कि बड़े बड़े व्यंग्यकार भी ऐसी कल्पना क्या कर पायें? जब कोई रचनाकार व्यंग्य लिखता है तो समाज में व्याप्त अंर्तविरोधों में अपनी कुछ कल्पना शक्ति का भी सहारा लेता है। ऐसी रचना कोई शायद कोई नहीं कर पाया कि नयी पीढ़ी को जमीन पर तैराकी का प्रशिक्षण देकर उनसे पदक लाने की आशा की जायेगी। कागजी बांध इतने शक्तिशाली हो जायेंगे कि पानी की एक बूंद का निकलकर जमीन पर आना भी संभव नहीं होगा।
हां कई व्यंग्य पढ़ने को मिले पर ऐसा नहीं! कुंऐं कागज पर खुद जमीन पर लापता हो गये। सार्वजनिक उद्यान फाईलों में हरियाली से लहलहाते रहे पर वहां कचड़ा घर दिखता रहा। सड़कें किसी फिल्मी हीरोईन के गाल की तरह चिकनी बनकर कागज पर चमकती रहीं पर उन पर पैदल चलना भी दूभर रहा है। ऐसा कई बार पढ़ा और सुना। संभव है कि कहंीं तैराकी का तालाब बनाकर वहां प्रशिक्षण भी कागजों पर दिया गया हो। मगर यहां तो सचमुच प्रशिक्षण दिया जा रहा है। मतलब आधा हास्य और आधा व्यंग्य! अवाक खड़े होकर देखने के बाद चिंतन क्या काम करेगा?
नयी पीढ़ी के लड़के लड़कियों के साथ किया गया यह क्रूर मजाक इराक की याद दिलाता है। जहां सद्दाम के बेटे पर आरोप लगाया कि अपनी फुटबाल टीम के हारने पर उसने उसके सदस्यों की हत्या कर दी थी। यहां दैहिक हत्या नहीं की गयी पर जवान पीढ़ी के उत्साह की हत्या का पाप मौजूद है। आदमी की देह हत्या और उसके सपने की हत्या एक समान ही है क्योंकि सपना टूटने पर आदमी मृतक समान ही हो जाता है।
हैरानी की बात यह है किसी को खौफ नहीं है। इस बात की चिंता नहीं है कि कहीं प्रचार माध्यमों की नज़र इस पर न पड़ जाये। बच्चों को जमीन पर छाती रगड़ने के लिये कहना वह भी तैराकी के खेल के प्रशिक्षण के नाम पर! यह भारत है जहां खेलों के विकास के नाम पर करोड़ों फूंके जा रहे हैं और खिलाड़ियों को फालतू की चीज माना जा रहा है। वैसे हमारे अनेक खिलाड़ी खेलोें के विकास की बात करते हैं पर बताईये उनका भी कहीं विकास होता है। खेलों से तो आदमी का विकास होता है वह भी तब जब अपने खिलाड़ियों को सुविधायें दें। क्रिकेट के एक महान धुरंधर उस दिन कह रहे थे कि ‘आईपीएल से भारत में क्रिकेट का विकास हुआ है!’
क्रिकेट का विकास चाहिये या क्रिकेट से देश की युवा पीढ़ी का! जहां तक देश की युवा पीढ़ी का क्रिकेट से विकास करने की बात है तो उसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि यह खेल बच्चे बच्चे में अपनी जड़ें जमा चुका है। ऐसे में जब कोई क्रिकेट खेल के विकास की बात कर रहा है तो वह ढोंगी है और अपने धंधे का जुगाड़ कर रहा है। अभी कॉमनवेल्थ हुए। एक दो दिन तक प्रचार माध्यम उसकी कमियों का रोना रोते रहे पर जैसे ही अपना मतलब बना सभी उसे देश में खेलों के विकास से उसे जोड़ने लगे। दिल्ली में हुए इन खेलों से देश के खिलाड़ियों में क्या सुधार आया पता नहीं पर चीन में हुए एशियाड में असलियत उजागर हो गयी। दिल्ली में खेल सुविधायें बनने से देश में खेल का स्तर नहीं सुधर सकता। अगर भारत को खेल में अपना नाम ऊंचा करना है तो उसे शहरों की बजाय गांवों में अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। खासतौर से आदिवासी इलाकों में। शहर वाले केवल क्रिकेट खेलने की कुब्बत रखते हैं क्योंकि उसमें फिटनेस अधिक जरूरी नहीं है। झारखंड आदिवासी इलाका है और वहां अच्छे खिलाड़ियों के मिलने की पूरी संभावना है पर वहां सुविधाओं का यह हाल है तब अंतर्राष्ट्रीय खेलों में हमें ज्यादा आशा नहींे करना चाहिए। सच बात तो यह है कि हमारे यहां के आर्थिक सामाजिक तथा प्रतिष्ठित शिखरों पर बैठ महापुरुषों को खेल चाहिये नाम और नामा कमाने के लिये न कि खिलाड़ी। खेलों के आयोजन से उनका कमीशन बनता है और अखबारों में प्रचार होता है सो अलग! खिलाड़ी तो खाना मांगता है और वह भी अच्छा!
खाने पर याद आयी उतरांचल की एक खबर! वहां बर्फ पर खेले जाने वाले खेल के लिये विदेश से खिलाड़ी आये जिसमें पाकिस्तानी भी शामिल थे। सभी को जमीन पर बैठकर हल्का खाना खिलाया गया और आयोजन से जुड़े पदाधिकारी टेबलों पर बैठकर ऊंचा खाना खाते रहे। मतलब यह कि जिन पर खेलों का जिम्मा है उनको खाने से मतलब है खिलाड़ी से नहीं इसलिये ही वह खेलों के विकास की बात करते हैं जो कभी हो ही नहीं सकता क्योकि खेलों से एक स्वस्थ और उत्साही मनुष्य का निर्माण होता और यही इनके आयोजन का मतलब होता है। खेलों के नाम जो भी शीर्ष पुरुष सक्रिय हैं उनको खेल चाहिये न खिलाड़ी! उनको स्वस्थ समाज नहीं चाहिये क्योंकि उसमें चेतना होती है और वहां ज़मीन पर तैराकी का प्रशिक्षण देना संभव नहीं है। इसलिये उन्होंनें जड़ समाज की सरंचना को ही महत्व दिया है कहने को दावे कुछ भी करते रहें।
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Friday, January 7, 2011

लालबत्ती-हिन्दी व्यंग्य (lalbatti or red light-hindi satire article)

लालबत्ती वाली गाड़ियों को देखते ही आम आदमी की आंखें फटी और कान खड़े हो जाते हैं। इसका मतलब यह है कि कोई विशिष्ट व्यक्ति उस वाहन में है जिसका मार्ग रोकना या बाधा डालना खतरे से खाली नहीं है। आधुनिक राजशाही में यह लालबत्ती विशिष्टता का प्रतीक बन गयी है। आजकल के युवा वर्ग न पद देखते है न वेतन बस उनकी चाहत यही होती है कि किसी तरह से लालबत्ती की गाड़ी में चलने का सौभाग्य मिल जाये। कुछ लोग तो मजाक मजाक में कहते भी हैं कि‘अमुक आदमी पहले क्या था? अब तो लालबत्ती वाली गाड़ी में घूम रहा है।’
मगर कुछ यह कुदरत का नियम ऐसा है कि सपने भले ही सभी के एक जैसे हों पर भाग्य एक जैसा नहीं होता। अनेक लोग लालबत्ती की गाड़ी की सवारी के योग्य हो जाते हैं तो कुछ नहीं! मगर सपना तो सपना है जो आज की राजशाही जिसे हम लोकतंत्र भी कहते हैं, यह अवसर कुछ लोगो को सहजतना से प्रदान करती है।
उस दिन एक टीवी चैनल पर लालबत्ती के दुरुपयोग से संबंधित एक कार्यक्रम आ रहा था। पता लगा कि ऐसे अनेक लोग अपनी गाड़ियों पर लालबत्ती लगाते हैं लालबत्ती लगी गाड़ियों का दुरुपयोग कर रहे हैं जिनको कानूनन यह सुविधा प्राप्त नहीं है। यहां यह बात दें कि लालबत्ती का उपयोग केवल सरकारी गाड़ियों में ही किया जाता है जो कि संविधानिक पदाधिकारियों को ही प्रदान की जाती हैं। मगर लालबत्ती का मोह ऐसा है कि अनेक लोग ऐसे भी हैं जो अपनी गाड़ियों पर बिना नियम के ही इसको लगवा रहे हैं। ऐसे लोग भी हैं जिनको लालबत्ती लगाकर चलने का अधिकार तभी है जब वह कर्तव्य पर हों पर वह तो मेलों में अपने परिवार को लेकर जाते हैं। अनेक जनप्रतिनिधियों को लालबत्ती के उपयोग की अनुमति नहीं हैं पर जनसेवा के लिये वह उसका उपयोग करने का दावा करते हैं।
चर्चा मज़ेदार थी। एक पूर्व पुलिस अधिकारी ने बताया कि सीमित संवैधानिक पदाधिकरियों को ही इसका अधिकार है। सामान्य जनप्रतिनिधियों को इसके उपयोग का अधिकारी नहीं है। ऐसे में कुछ जनप्रतिनिधियों से जब इस संबंध में सवाल किया गया तो उनका जवाब ऐसा था कि उस पर यकीन करना शायद सभी के लिये संभव न हो। उनका कहना था कि
‘‘जिस तरह एंबूलैंस को लालबत्ती लगाने का अधिकार है उसी तरह हमें भी है। आखिर हमारा चुनाव क्षेत्र है जहां आये दिन परेशान लोगों की सूचना पर हमें जाना पड़ता है। ऐसी आपातस्थिति में ट्रैफिक में फंसने के लिये लालबत्ती का होना अनिवार्य है।’’
एक ने कहा कि
‘‘इससे सुरक्षा मिलती है। इस समय कानून व्यवस्था की स्थिति खराब है और आम आदमी पर खतरा बहुत है। लालबत्ती देखकर कोई उस वक्र दृष्टि नहीं डालता। फिर टेªफिक में फंसने पर समय खराबा होगा तो हम जनसेवा कब करेंगे?’’
एक अन्य ने कहा कि
‘‘हम जनप्रतिनिधि हैं और लालबत्ती हमारी इसी विशिष्टता का बयान करती है।’
पूर्व पुलिस अधिकारी ने इस हैरानी जाहिर करते हुए कहा कि‘‘चाहे कुछ भी हो जनप्रतिनिधि को कानून का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। अगर वह जरूरत समझते हैं तो ऐसे नियम क्यों नहीं बना लेते जिससे उन पर उंगली न उठे।’’
बात लाजवाब थी। अगर जनप्रतिनिधियों को लालबत्ती का अधिकार चाहिए तो वह अपने मंचों पर जाकर अपनी बात क्यों नहीं रखते? वह कानून बनाने का हक रखते हैं तब कानून क्यों नहीं बनवाते?
मगर अपने देश की स्थिति यह है कि विशिष्ट होने या दिखने की चाहत सभी में है पर उसके दायित्वों का बोध किसी को नहीं है। जब विशिष्ट हो गये तो कुछ करने को नहीं रह जाता। बस, अपने मोहल्ले, रिश्तेदारों और मित्रों में विशिष्ट दिखो। लोग वाह वाह करें! करना कुछ नहीं है क्योंकि विशिष्ट बनते ही इसलिये हैं कि आगे कुछ नहीं करना! मेहनत से बच जायेंगे! कानून क्यों बनवायें? वह तो वह पैसे ही इशारों पर चलता है! भला विशिष्ट कभी इसलिये बना जाता है कि दायित्व निभाया जाये? विशिष्ट होने का मतलब तो अपने दायित्व से मुक्त हो जाना है बाकी काम तो दूसरे करेंगे! कानून बनाने का काम तो तभी करेेंगे जब कोई दूसरा सामने रखेगा। मगर रखेगा कौन? सभी तो विशिष्टता का सुख उठा रहे हैं। जब सुख ऐसे ही मिल रहा है तो उसके लिये कानून बनाने की क्या जरूरत?
मगर लालबत्ती का शौक ऐसा है कि अनेक लोग तो ऐसे ही लगवा लेते हैं। लालबत्ती का खौफ भी ऐसा है कि दिल्ली में एक डकैत गिरोह के लोग पकड़े गये जो लालबत्ती लगी गाड़ी का उपयोग पड़ौसी शहर से आने के लिये करते थे। लालबत्ती देखकर उनको कहीं रोका नहीं जाता था। पकड़े जाने पर पुलिस के कान खड़े हुए पर फिर भी यह संभव नहीं है कि कोई किसी लालगाड़ी लगी गाड़ी को रोकने का साहस कर सके। सरकारी हो या निजी लोग लालगाड़ी पर सवार होने के बाद विशिष्टता की अनुभूति साथ लेकर चलते हैं। सरकारी आदमी तो ठीक है पर निजी लोग तो रोकने पर ही कह सकते हैं-‘ए, तुम मुझे जानते नहीं। अमुक आदमी का अमुक संबंधी हूं।’
मुद्दा यह है कि आदमी की विशिष्टता केवल लालबत्ती के इर्दगिर्द आकर सिमट गयी है। हम कहीं भी सिग्नल पर लालबत्ती देखकर रुक जाते हैं क्योंकि अपने आम आदमी होने का अहसास साथ ही रहता है। यह अहसास ऐसा है कि अगर खुदा न खास्ता कहीं लालगाड़ी वाली गाड़ी में बेठने लायक योग्यता भी मिल जाये तो अपने चालक से-अपुन को गाड़ी न चलाना आती है न सीखने का इरादा है-सिग्नल पर लाल बत्ती देखकर कहेंगे कि ‘रुक जा भाई, क्या चालाना करवायेगा?’
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Tuesday, December 28, 2010

उपवास और भूख-हिन्दी शायरी

रोटी की तलाश में
आंखें फैलाये इंसान को
कभी पशु न समझो,
जब तुम्हारा पेट खाली होगा
तुम भी ऐसे ही नज़र आओगे।
दरियादिल बनकर देखो
उपवास और भूख के अंतर को
तभी समझ पाओगे।
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Friday, December 24, 2010

प्याज पुराण-लघु हिन्दी व्यंग्य (pyaj puran-laghu hindi vyangya)

प्याज के महंगे होने के लेकर हमारे देश के प्रचार माध्यम खूब छोड़ मचा रहे हैं। स्पष्टतः विज्ञापनों के बीच में प्रसारण में उनको इस विषय पर खूब सामग्री मिल रही है। सवाल यह है कि प्याज़ का महंगा होना क्या वाकई उतनी बड़ी समस्या है जितनी प्रचारित की जा रही है। संभव है देश के महानगरों में इसका असर हो पर छोटे शहरों में इसका कोई प्रभाव नहीं दिखाई दे रहा है।
एक मज़दूर से इस लेखक की चर्चा हुई।
उससे लेखक ने कहा-‘प्याज़ वाकई महंगी है।’
मज़दूर ने कहा कि‘नहीं, आज सुबह एक ठेले वाले से पूछा तो उसने पैंतीस रुपये किलो बताई।’-
लेखक ने कहा‘-वाकई बहुत महंगी है। अब देखो जो गरीब लोग सब्जी नहीं खरीद पाते उनके लिये प्याज ही सब्जी के रूप में बचती है।’
उस मज़दूर ने कहा-‘हमेशा तो नहीं खाते पर कभी कभी मिर्ची के साथ प्याज का सलाद बनाकर खा लेते हैं। बाकी महंगी तो सारी सब्जियां हो रही हैं। वैसे भी प्याज और लहसून कौन सभी लोग खाते हैं।’
जब प्याज़ के महंगे होने की बात आती है तो कहा जाता है कि गरीब लोग सब्जी की जगह इसका उपयोग कच्चे सलाद के रूप में ही करते हैं। हमारे देश में गरीब और मज़दूर की समस्याओं का रोना लेकर हिट होने का एक आसान फार्मूला है। ऐसे में जब किसी ऐसे विषय पर लिखा जाये जो वाकई संवेदनशील होने के साथ गरीब से भी जुड़ा हो तो कुछ प्रमाणिकता के साथ स्वयं भी जुड़ना चाहिए। हमने एक नहीं दो दिहाड़ी मज़दूरों को टटोला। महंगाई तथा अन्य समस्याओं से पीड़ित उन लोगों ने केवल प्याज़ की महंगाई को लेकर कोई अधिक बयान नहीं दिया।
हमारी जानकारी में यह दूसरा अवसर है जब प्याज़ की महंगाई की चर्चा हुई है। पहले चर्चा हुई तो पता चला कि उससे उस दौरान हुए राज्य विधानसभा चुनावों के परिणाम प्रभावित हुए। अब पता नहीं आगे क्या होगा?
जहां तक प्याज और लहसून का सवाल है तो इनका उपयोग सभी लोग नहंी करते। अनेक लोग तो इनका खाना ही अपराध समझते हैं। मनुस्मृति में प्याज़ को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया पर लहसून के सेवन के लिये मना किया गया है जो कि संभवतः प्याज की प्रजाति की ही उत्पति है। अनेक लोग तो प्याज खाने वालों को किराये पर मकान देने से मना कर देतें हैं और देते भी हैं तो न खाने की शर्त के साथ! लहसून को तो तामस पदार्थ माना गया है।
ऐसे में प्याज की कीमतें बढ़ने की चर्चा सीमित वर्ग को प्रभावित करतीं दिखती है वह भी केवल बड़े शहरों के बुद्धिमान नागरिकों को! प्रचार माध्यम इस पर प्रायोजित आंसु बहा रहे हैं। ऐसा लगता है कि उनको देश की बहुत फिक्र हैं। जबकि सच यह है कि प्याज़ के बढ़ने के समाचारों वजह से अन्य सब्जियां महंगी हो रही हैं।
चूंकि सारे टीवी चैनल महानगरों में है तो प्याज की महंगाई पर रोने के लिये वह लाते भी ऐसे ही लोग हैं जो धनी या मध्यम वर्ग के हैं। वह प्याज हाथ में लेकर उसकी महंगाई का रोना लेते हैं। हवाला इस बात का दिया जाता है गरीब इससे रोटी खाते हैं। ऐसे लोगों को देश की स्थिति का आभास नहीं है। इस देश में तो कई जगह ऐसी स्थिति है कि प्याज क्या लोग घास खाकर भी गुजारा करते हैं। जिनके पास पैसा नहीं है वह रोटी खाने के लिये प्याज क्या खरीदेंगे उनके पास तो रोटी भी नहीं होती। मुश्किल वही है कि गरीब के लिये रोते रहो और अपना चेहरा लोगों की आंखों पर थोपे रहो-इस फार्मूले पर काम करते रहने से प्रचार माध्यमों में अपना निरंतर रूप से चलाया जा सकता है।
वैसे भी प्याज़ को भोजन की कोई आवश्यक वस्तु नहीं माना जाता। ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी बिना प्याज़ खाये निकाली है। फिर भी जिन लोगों को गरीबों की चिंता है वह प्याज़ न खायें तो मर नहीं जायेंगे। इसलिये हमारी तो सलाह यह है कि जिन लोगों के पास अन्य सब्जियां खरीदने की शक्ति है वह तब तक प्याज का सेवन न करें जब तक वह सस्ता न हो जाये। ताकि गरीबों के लिये रोने वालों का प्रलाप हमारे सामने न आये। टीवी चैनलों पर अच्छी साड़ियां पहने महिलायें या जोरदार पैंट शर्ट पहने चश्मा लगाये पुरुष जब प्याज़ की महंगाई का रोना रोते हैं तो अफसोस होता है यह देखकर कि उनकी सहशीलता कम हो गयी है। जिस प्याज़ के बिना उनके ही देश के अनेक लोग जिंदा रह जाते हैं उसे वह एक महीने के लिये नहीं छोड़ सकते। बहरहाल या प्याज की महंगाई का पुराण भी एक प्रचार माध्यमों का ढकोसला है जिनको विज्ञापन के बीच अपना काम चलाना है।
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Friday, December 10, 2010

प्रकृति और घोटाले-हिन्दी हास्य कविता (prakruti aur ghaotale-hindi hasya kavita)

शिक्षक ने बच्चों से कहा
‘‘हमारे देश पर प्रकृति की
बहुत बड़ी कृपा है,
यहां बरसात भी होती समय पर
तो सूरज भी तपा है,
एक तरफ हिमालय देता है पहरा,
तीन तरफ हिमालाय बांधे है सहरा,
सुरक्षा है चारों तरफ
इसलिये हमेशा ही यहाँ जन जन ने
भगवान का नाप जपा है।’’

सुनकर एक बालक बोला,
‘‘मगर मास्टर जी
मेरे दादाजी, पिताजी से कह रहे थे
कि 'पहले तो होते थे देश में घोटाले
पर अब तो चारों तरफ  उनमें फंसा है,
देखो,
जो करते हैं नैतिकता की बात कलमकार
वही रोते हैं भ्रष्टाचार पर
हम  जैसे आम लोग उनके
शब्दों से नहीं  दलाली के काम  पर खफा हैं,
देश में बढ़ गया है पाप, चारों तरफ
तभी तक कोई  आदमी  ईमानदार दिखाई देता
जब तक घोटालों में नहीं नपा है,।"
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Monday, December 6, 2010

भक्ति की आड़ में मनोरंजन बेचने का प्रयास-हिन्दी व्यंग्य (bhakti aur manoranjan-hindi vyangya)

गुजरात के एक शहर में एक दिलचस्प समाचार टीवी चैनल पर देखने को मिला। वहां एक मंदिर निर्माण में धन जुटाने के लिये नृत्य और संगीत का कार्यक्रम आयोजित किया गया ताकि उससे मिलने वाली राशि से सर्वशक्तिमान को अनुग्रहीत किया जा सके। खबर देखकर तो हंसी आ गयी। वहां कार्यक्रम देखने के लिये अनेक लोग आये पर वह इतनी कम देर चला कि उससे अपने को ठगा अनुभव कर रहे अनेक दर्शक नाराज हो गये और उन्होंने कुर्सियां तोड़ डाली। इस धर्म और मनोरंजन के बीच रिश्ता देखकर बहुत सारे ख्याल मन में आये।
कार्ल मार्क्स की बहुत सारी बातें हमारे समझ में नहीं आती पर उसने जो कहा है कि धर्म एक अफीम की तरह है उसमें कोई शक नहीं है। मगर कार्ल मार्क्स ने कहा है कि दुनियां का सबसे बड़ा सच रोटी है, यही कारण है कि उसका कोई चेला इस बात पर यकीन नहीं करता कि जिसने पेट दिया है वह भोजन भी देता है। इसलिये सभी गरीबों और मज़दूरों को रोटी दिलाने में लगे हैं। मगर सत्य रोटी नहीं जीवन है जो कि अपनी गति से इस धरती पर विचरण करता है भले ही जीव पैदा होने के साथ ही मरते हैं भी हैं पर सभी भूखे नहंी मरते।
अलबत्ता अगर कार्ल मार्क्स भारत आया होता तो वह अनेक अन्य सत्य भी जान जाता। इस देश में रोटी के साथ ही स्वाद भी बड़ा सत्य है। लोग रोटी से अधिक स्वाद पर अपना ध्यान रखते हैं। रोटी पेट भरने के लिये नहीं पेट भरने को ही जीवन मानते हैं। पेट भर कर उनका मन मनोरंजन की तरह भागता है और यह मनोरंजन भी कहीं इतना बड़ा सत्य बन जाता है कि रोटी को भी आदमी भूलकर उसमे मस्त रहता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि गरीबी से जूझ रहे इस देश में भूख से कम बल्कि भरपेट और गंदा खाने से लोग अधिक बीमार पड़ने के साथ ही मरते भी हैं। यही कारण है कि कार्ल मार्क्स के शिष्य तथा अनुयायी बरसों तक इस पूरे देश में भूखों और गरीबों के सहारे सत्ता का स्वाद चखने का सपना पाले रहे पर चंद इलाकों के अलावा कुछ हाथ नहीं आता। धर्म को अफीम मानने वाले इस गुरु के चेले आज की धर्मनिरपेक्षता का स्वांग रच रहे हैं और उसमें अब उनको अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच अपना सपना साकार होता दिखता है। इनमें कई तो सर्वशक्तिमान के एक दरबार ढहने पर अपना विलाप हर साल करते हैं। वैसे रोटी का सत्य ही केवल सत्य नहीं है। रोटी का स्वाद भी सत्य नहीं है। मनोरंजन भी सत्य नहीं है। उनके लिए सत्य केवल धर्मनिरपेक्षता है। बहुसंख्यक समाज के कुछ टुकड़े गरीबी, भुखमरी तथा बेकारी के नाम पर तो वैसे ही उनके साथ हो जाते हैं अब समूचा अल्पसंख्यक समाज भी हाथ आ जाये तो ही उनके सपने पूरे होंगे। यह अलग बात है कि बाबा रामदेव, आसाराम बापू तथा श्री रविशंकर जैसे संगठित धर्म प्रवर्तकों की धारा उसे पूरा होने देगी या नहीं क्योंकि देखा जा रहा है कि अपने धर्मों के पाखंड से उकताये भारतीय लोग एक नयी रौशनी योग तथा भारतीय अध्यात्म में ढूंढ रहे हैं।
इधर इन कार्ल मार्क्स के चेलों का सामना भारतीय धर्म रक्षकों से भी होता रहता है। शक है कि यह सब फिक्सिंग के तहत ही होता है। यह धर्म रक्षक भी वह हैं जो केवल मंदिरों के बनाने तक ही अपना अभियान रखते हैं। उनके लिए मंदिर बनाना ही धर्म निभाना है। ऐसा इसलिये कि मंदिर बनाने में ईंट, पत्थर, सीमेंट, लोहा, लकड़ी तथा अन्य सामान लगता है और उसकी खरीद में कमीशन बनने के साथ ही बाद में चढ़ावा भी आता है। गुजरात में तो धर्म की प्रवृत्ति बहंुत ज्यादा है। हमारे अध्यात्म के आधार स्तंभ भगवान श्रीकृष्ण ने वहीं अपना निवास बनाया था। आज भी अनेक बड़े संत वहीं के हैं। प्रसंगवश हम अनेक बार यह कह चुके हैं कि जिस तरह कमल कीचड़ में और गुलाब कांटों के बीच पनपता है उसी तरह हमारा अध्यात्म ज्ञान इसलिये ही सटीक है क्योंकि हमारे देश में अज्ञान का बोलबाला अधिक रहा है। दुष्टता में रावण और कंस जैसे प्रतापी शायद ही कहीं हुए जिनकी वजह से हम भगवान श्रीकृष्ण के साथ ही भगवान श्रीराम का नायकत्व हम अकेले ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लोग पहचान पाये। लोगों के मन में अज्ञान, लोभ, लालच तथा काम का ऐसा वास है कि वह उससे विरक्त होने पर अध्यात्म शांति के लिये भी उतनी तेजी से भागते हैं और फिर देश के चालाक धार्मिक ज्ञानी उनका दोहन करते हैं। ऐसा भी कहीं विश्व में अन्यत्र होता नहीं दिखता। जिस भारतीय योग को पूरा विश्व बरसों से मान रहा है उसकी मान्यता अब कहीं जाकर बाबा रामदेव के आकर्षण से बड़ी है। कोई येागी भी बिना युद्ध के महान बन सकता है, यही सोचकर योग की तरफ आम लोग आकर्षित हुए हैं। नतीजा यह है कि कहीं, हॉट योग, कहीं सैक्सी योग, कहीं नग्न योग तो कहीं हास्य योग भी होने लगा है। उसे एक नयी शैली में विक्रय वस्तु बना दिया है। मतलब धर्म कहीं न कहीं अफीम या व्यसन की तरह बिकने का काम करता ही है।
गुजरात में जिस जगह मंदिर बनाने के लिये आयोजन किया गया होगा उनकी ईमानदारी या बेईमानी पर हम सवाल नहीं उठा रहे बल्कि उनके चिंतन के तरीके पर ही अपनी राय रख रहे हैं जिसमें यह मान लिया गया है कि जिस तरह इस दुनियां में बिना गलत राह चले बड़ा आदमी नहीं बना जा सकता वैसे ही भगवान का मंदिर बनना भी संभव नहीं है।
हैरानी की बात है कि लोग दान देने की बजाय नृत्य और गीत के लिये पैसा खर्च कर आये-यकीनन उन्होंने सोचा होगा कि इस तरह हम धर्म का काम कर रहे हैं। अब दान लेना भी आसान नहीं रहा न! पहले अनेक स्थानों पर मंदिर बनाने या नवरात्रि और गणेश प्रतिमाओं की स्थापना को लेकर जबरदस्ती चंदा लेने के आरोप लगते थे। अब तो इस देश मे धर्मनिरपेक्षता मय वातावरण बना दिया गया है तो धार्मिक व्यवसायियों ने नृत्य और गीत के माध्यम से धन जुटाने के प्रयास शुरु किये हैं। कहीं गणेशोत्सव और नवरात्रि पर बाकायदा ऐसे कार्यक्रम हुए जिनमें भक्ति दिखावे की थी जिस पर मनोंरजन का लेबल चिपका दिया गया। मतलब भक्तों को अब दर्शक और श्रोता को चोला भी पहनाया जा रहा है।
हम यहां केवल इसके लिये शिखर पुरुषों को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। आम लोग भी कम नहीं है। वह भी चाहते हैं कि हम दर्शक और श्रोता की तरह लुत्फ उठायें पर दिखें भक्त की तरह! अध्यात्मिक ज्ञान के बिना यह समाज भटकाव की तरफ जा रहा है।
हम अगर भारतीय अध्यात्म ज्ञान की बात करें तो उसे समझने वाले यहां कितने हैं, यह तय करना कठिन है! वजह यह है कि आदमी के अंदर स्वयं अभिव्यक्त होने की भावना उसे अहंकार की तरफ ले जाती है और अहंकार नैतिक पतन की तरफ! बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि योगसाधना भी अगर नियमित की जाये तो वह व्यसन की तरफ चिपक जाती है यह अलग बात है कि वह खतरनाक नहीं है। ध्यान लगाने का अभ्यास हो जाये तो सारी दुनियां में चल रहे घटनाक्रम में स्वयं को देखने की इच्छा से आदमी विरक्त हो जाता है। मगर इससे यह फायदा होता है कि आपको कोई दूसरा संचालित नहंी कर सकता। भटकाव इसलिये नहीं होता क्योंकि अपना लक्ष्य हमेशा अपने पास रहता है जिसे हम कहते हैं मन की शांति! मनोरंजन कभी शांति नहीं देता बल्कि अपने साथ विकारों का ऐसा पिटारा ले आता है कि रात की नींद और दिन का चैन नहीं रह जाता। योग साधक भीड़ में इस बात का अहसास नहीं होने देता कि वह उससे अलग है पर होता तो है। धार्मिक तथा मनोंरजन के व्यवसायी इस कदर चालाक होते हैं कि वह आम इंसानों का अस्तित्व ही उससे अलग कर देते हैं पर योग साधक पर उनका जादू नहीं चलता। यही कारण है कि मनोरंजन और भक्ति को प्रथक रखने की कला वही जानते हैं। यह अलग बात है कि वह भक्ति में ही मनोरंजन करते हैं और बिना अध्यात्मिक ज्ञान के मनोरंजन को वह एक घटिया काम मानते हैं भले ही उसें सर्वशक्तिमान के लिये ढेर सारे निवेदन वाले गीत शामिल हों।
निष्कर्ष यही है कि जिस तरह इस संसार में कार्ल मार्क्स के अनुसार दो ही जातियां हैं एक अमीर और दूसरी गरीब! उसी तरह अपने देश में भी दो प्रकार के मनुष्य रहते हैं एक तो वह सच्चे भक्त हैं और दूसरे महा पाखंडी। मुश्किल यह है कि धर्म की ठेकेदारी अब विशुद्ध रूप से पाखंडियों के हाथ में आ गयी है जिनसे बचने की आवश्यकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय अध्यात्म के मूल तत्व अत्यंत प्रभावी हैं पर इसके लिये यह जरूरी है कि हम अपने धर्म ग्रंथों का स्वयं अध्ययन करें।
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Friday, December 3, 2010

नाम में वाकई कुछ नहीं रखा है-हिन्दी कवितायें (naam men khuchh nahin rakha hai-hindi kavitaen)

आदर्श होने का दावा
बाहर से लगता है
मगर उसके अंदर छिपे ढेर सारे दाग हैं,
रावण और कंस जैसे
नाम रखकर कोई कातिल बने
यह जरूरी नहीं है
देवताओं का मुखौटा लगाकर
उजाड़े कई लोगों ने बहुत सारे बाग हैं।
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नाम में वाकई कुछ नहीं रखा है,
दैत्यों ने भी कलियुग का अमृत चखा है,
अब उनको मरने का डर नहीं लगता
देवताओं के मुखौटे पहने लोग अब उनके सखा है।
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Tuesday, November 30, 2010

कौन मानेगा कि भूख इंसान को गद्दार बनाती है-हिन्दी लघु व्यंग्य (bhookh aur gaddari-hindi laghu vyangya)

प्रगतिशील और जनवादी कवियों की सामाजिक तथा राजनीतिक कविताओं पर वाहवाही कितनी भी मिलती हो पर तार्किक रूप से उनका कोई आधार नहीं होता। खासतौर से जब वह भूख, गरीबी और लाचारी से त्रस्त लोगों से क्रांति की आशा करते हैं। इतिहास के उद्धरण देकर सोये समाज को जगाने के लिये मज़दूर और गरीब को नायक बनने के लिये प्रेरित करते हैं। संभव है कुछ लोग इस बात पर नाराज हो जायें पर हमारे देश के बुद्धिजीवियों, लेखकों और अंग्रेजी शिक्षा से पढ़े लोगों ने आधुनिक युग के कुछ महानायक गढ़ लिये हैं उनके रास्ते पर चलने का दावा करते हैं। उनकी कवितायें खोखली तो निबंध कबाड़ हैं। यह बात गुस्से या निराशा में लिखी गयी हैं पर इस भय से मुक्त होकर कि जब बेईमानी और भ्रष्टाचार इस तरह खुलेआम हो रहा है और यह बुद्धिजीवी अभी भी अपनी लकीर पीट रहे हैं तब हमारा क्या कर लेंगे? इतिहास खोद रहे हैं जबकि वह एक भूलभुलैया है। दरअसल यह बात लिखने से पहले कवि नीरज की काव्यात्मक पंक्तियां दिमाग में आयी थीं जिसे शैक्षणिक पाठ में एक निबंध में पढ़ा और जिसे परीक्षा में उत्तरपुस्तिका में भी लिखा था। जहां तक हमारी स्मरण शक्ति जाती है उस पंक्ति के बाद ही लिखने के लिये कलम उठाई थी। आज उस कविता का आधा हिस्सा झूठ लगता है और लिखने के लिये ऐसी उत्तेजना पैदा हो रही है कि लगता है कि हिन्दी का आधुनिक और उत्तर आधुनिक काल केवल भ्रमवश ही चलता रहा है। याद्दाश्त के आधार पंक्तियां यह हैं।
तन की हवस मन को गुनाहगार बना देती है,
बाग को उजाड़ बना देती है,
ओ भूखे को देशभक्ति का उपदेश देने वालों
भूख इंसान को गद्दार बना देती है।
कवि नीरज की यह कविता उस समय बहुत अच्छी लगी थी।
एक अन्य कविता की पंक्तियां है जो शायद रघुवीर सहाय या राजेन्द्र यादव की हो सकती है जिसने हम पर बहुत प्रभाव डाला था।
हमसे तो यह धूल ही अच्छी
जो कुचले जाने पर प्रतिरोध तो करती है।
यहां बात कवि नीरज जी काव्यात्मक पंक्तियों की करें। तन की हवस मन को गुनाहगार बना देती है। यह सच लगता है मगर भूख इंसान को गद्दार बना देती है, इन पर एतराज है।
हम पिछले कई दिनों से देश के साथ गद्दारी करने के आरोप में पकड़े गये लोगों की बात करते हैं। इनमें से कोई भूखा नहीं है। एक तो पाकिस्तान में ही विदेश सेवा में कार्यरत एक महिला पकड़ी गयी जो वहां के सैन्य अधिकारी से प्रेम की पीगें बढ़ा रही थी। संभव है तन की हवस ने गुनाहगार बनाया हो पर उसने भी वहां पैसा कमाया जो शायद उसका मुख्य उद्देश्य था। हालांकि अब भी यह कहना कठिन है कि तन की हवस ने ऐसा किया या पैसे की लालच ने। मगर वह रोटी की भूखी नहीं थी। कम से नीरज जी की यह पंक्तियां वहां ठीक नहीं बैठती। अभी एक भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी (आई. ए. एस.) भी एक अधिकारी पकड़ा गया। वह भी कौन? जिस पर देश की आंतरिक सुरक्षा का महत्वपूर्ण दायित्व था। वह भी लड़कियों की मांग करता था। लगता है जैसे कि तन की हवस ने गुनाहगार बनाया मगर उसने पैसा भी कमाया और यही उसका ध्येय था। शारीरिक भूख से अधिक पैसे की लालच ने ही उसे देश की गद्दारी करने के लिये प्रेरित किया। पैसा हो तो शारीरिक हवस मिट ही जाती है इसलिये यह कहना बेकार है कि उन्होंने केवल यौन लाभ के लिये यह सब किया। इससे पहले भी एक अधिकारी पकड़ा गया जिस पर गोपनीय दस्तावेज लीक करने का आरोप लगा।
कोई बतायेगा कि किसी रोटी के भूखे ने देश से गद्दारी की हो। जरा, कोई बतायेगा कि किसी ने रोटी के लिये किसी का कत्ल किया हो! माओवाद के नाम पर चल रही हिंसा का समर्थन करने वाले वहां के क्षेत्रों की भूख और बेकारी की समस्याओं की बहुत आड़ लेते हैं। वह बताते हैं कि भूख की वजह से पूर्व में लोग हथियार उठा रहे हैं। जब उनसे कहा जाता है कि हथियार उठाने वाले तो भूखे नहीं है तो जवाब मिलता है कि वह भूखे नंगों को बचाने के लिये प्रेरित हुए हैं इसलिये हथियार उठाये हैं।
कौन बताये कि हमारे धर्मग्रंथों में एक सीता जी भी हुईं हैं जिन्होंने अपने पति भगवान श्रीराम को बताया था कि हथियार रखने से मन में हिंसा का भाव स्वतः आता है।
उन्होंने भगवान श्री राम को एक किस्सा सुनाया। एक तपस्वी की तपस्या से देवराज इंद्र विचलित हो गये तब उन्होंने उसके पास जाकर उससे कहा कि ‘मेरा यह खड्ग अपने पास धरोहर में रूप में रख लो कुछ दिन बाद ले जाऊंगा।’
तपस्वी ने रख लिया। चूंकि देवराज इंद्र बहुत प्रतिष्ठित थे इसलिये वह तपस्वी उस खड्ग की रक्षा मनोयोग से करने लगा। धीरे धीरे उसका मन तपस्या से अधिक उस खड्ग में लग गया और अंततः वह तपस्वी से हिंसक जीव बन गया। इससे तो यही आशय निकलता है कि जब हथियार रखने भर से ही तपस्वी का हृदय बदल गया तो जो यह आम माओवादी बंदूकें या बम होने पर देवता बने रह सकते हैं। तय बात है कि इससे वह वहीं अपने ही लोगों को आतंकित करते होंगे।
प्रगतिशील और जनवादियों ने भूख पर बहुत लिखा है। भूख में क्रांति की तलाश करते हुए इन लोगों पर अब तरस आने लगा है। उन पर ही नहीं अपने पर भी अब नाराजगी होने लगी है कि क्यों उनसे प्रभावित हुए। भूखा आदमी तो धीरे धीरे शारीरिक रूप से कमजोर हो जाता है और मानसिक रूप से उसकी स्थिति यह हो जाती है कि पत्थर भी उसको रोटी लगती है। इतना ही नहीं वह घास भी खाने लगता है। वह इतना अशक्त हो जाता है कि चोरी करना और कत्ल करने की सोचना भी उसके लिये मुश्किल हो जाता है। हालांकि हमारे बुजुर्ग कहते थे कि भूख आदमी शेर से भी लड़ जाता है पर अब उस पर यकीन नहीं होता।
देश में बरसों से भूख, गरीबी, बेरोजगारी और शोषण दूर करने का अभियान चल रहा है मगर उसका प्रभाव नहीं दिखता और अनेक बुद्धिजीवी इस पर रोते गाते हैं। यह अलग बात है कि इस पर इनाम के लिये वह राज्य और पूंजीपतियों से उनको सम्मान मिलता है-वह पूंजीपति जिन पर देश के गरीब रहने का आरोप लगाते हैं। ऐसे लोग केवल झूठ बेचते हैं। भूख से गद्दारी पैदा होने का भ्रम अब दिखने लगा है। जिनके पेट भरे हैं, जिनके पास सारे सुविधायें पहले से ही हैं। रोजगार की दृष्टि से ऐसे पद कि बेरोजगार ही नहीं बल्कि बारोजगारों के लिये भी एक क सपना हो। ऐसे में वह गद्दारी कर रहे हैं। तब कौन कहता है कि भूख इंसान को गद्दार बनाती है और कौन इसे मानेगा?
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Saturday, November 20, 2010

फासले-हिन्दी शायरी (fasle-hindi shayri)

फरिश्ते दिखने की चाहत में
खास इंसानों ने आम लोगों से
फासले जितना बढ़ा दिया है,
अपने लुटने और मरने का खौफ
अपने दिमाग पर उससे ज्यादा चढ़ा लिया है।
------------
अपनी ख्वाहिशें पूरी करने के लिये
वह आसमान में उड़े जा रहे हैं,
दौलत और शौहरत के तारे तोड़कर
इस जमीन में जिन पर करनी है हुकुमत
उनसे होते दूर होकर,
अनजाने खौफ और खतरे से जुड़े जा रहे हैं।
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Tuesday, November 16, 2010

ब्लागर की आभासी दुनियां-हिन्दी हास्य व्यंग्य (blogger ki aabhasi duniya-hindi hasya vyangya)

दो हिन्दी ब्लाग लेखक आपस में मिले। बुलाया तो तीसरा भी था मगर वह छद्म नाम के साथ लिखने और चेहरा छिपाने वाला था। दोनों का सम्मेलन शुरु हुआ।
एक ब्लाग लेखक ने कहा-‘यार, टीवी और समाचार पत्र पत्रिकाओं की तरह कुछ सनसनीखेज लिखो।’
दूसरे ने कहा-‘पर यहां अपने को पढ़ता कौन है, इस तकनीकी युग में सभी मौन हैं।’
पहले ब्लाग लेखक ने कहा-‘ऐसी कवितायें मुझे मत सुनाओ। अच्छी छापो भले ही कहीं से चुराओ।’
दूसरे ने कहा-‘जब भी लिखूंगा, मौलिक ही दिखूंगा।’
पहले ने कहा-‘छोड़ो यार, यह कव्वाली टाईप बहस लेकर बैठ गये। अब हम कोई अच्छा सब्जेक्ट चुने और उस पर लिखें।’
दूसरे ने कहा-‘यह हिन्दी अखबारनुमा भाषा मेरे सामने मत कहो। इसी भाषा से बचने के लिये यहां लिखता हूं। भले ही हास्य कविता लिखते जोकर जैसा दिखता हूं। तुम सीधे कहो कि हमें कोई अच्छा, शुद्ध और पवित्र विषय चुनना है।’
पहले ने कहा-‘यार, तुम यहां अपना अध्यात्मिकनुमा प्रवचन मत दो। सीधी सी बात यह है कि हम कोई विषय चुने। जैसे तुम घोटालों के विषय पर लिखो तो मैं यौन जैसे लोकप्रिय विषय पर लिखता हूं।
दूसरे ने कहा-‘मुझे फंसा रहे हो। घोटालों पर लिखने से तो मेरे बहुत सारे दुश्मन बन जायेंगे। मुझे यौन पर लिखने दो, इस बुढ़ापे में कुछ जवान दिखने दो।
पहले ने कहा-‘ठीक है, मैं घोटालों पर लिखूंगा और तुम यौन पर लिखना।
दोनों के बीच शिखर सम्मेलन समाप्त हुआ और घोषणा पर सहमति हो गयी।
दोनों ने अलग अलग राह पकड़ी। छिपकर देखने वाले तीसरे ब्लाग लेखक भी जाने वाला था पर अचानक उसे विचार आया कि जब यहां आया हूं तो बिना कारिस्तानी के कैसे चला जाऊं।
उसने दूसरे ब्लाग लेखक को जाकर रोका और कहा-‘मित्र, मेरा नाम और ब्लाग का पता मत पूछना क्योंकि इतने नामों से इतने ब्लाग पर लिखता हूं कि मुझे भी याद नहीं रहते। फिर कभी कभी चोरी कर भी छाप देता हूं इसलिये शंका है कि कहीं तुम्हारी रचना भी न चुराई हो।’
दूसरा ब्लाग लेखक उसकी बात सुनकर अपनी कमीज की आस्तीन चढ़ाने लगा और बोला-‘यह विवरण मत दो। यकीनन तुम ही वह चोर हो जिसने मेरी बैचेन रहने की आदत चुरा ली थी। आज तुम्हारे गाल पर अपना पंजा और पीठ पर घूंसा टंकित करता हूं।’
वह तीसरे ब्लाग लेखक की तरफ बढ़ा तो वह बोला-‘यार, यह क्या मामूली लोगों की तरह लड़ते हो। मैं पैदाइशी बैचने रहने की आदत का मालिक हूं। तुम्हारी बैचेन रहने की आदत कैसे चुरा सकता हूं।’
दूसरा ब्लाग लेखक बोला-‘अबे, वह मेरी कविता का शीर्षक है।’
तीसरा ब्लाग लेखक बोला-‘नहीं, मैने वह रचना नहीं चुराई। पहले मेरी बात सुना यह जो तुम्हारे साथ पहला ब्लाग लेखक था न! उसने चुराई है। दरअसल वह बहुत चालाक है। वह घोटालों पर खुद लिखना चाहता था इसलिये पहने तुम्हें उसका प्रस्ताव दिया उसे मालुम था कि ब्लाग लेखक होने के कारण तुम उल्टी बात करोगे। घोटालों पर वह क्या लिखेगा? जहां भी कमीशन दिखेगा, वह जाकर बिकेगा। तुम यौन पर लिखोगे, आवारा जैसे दिखोगे। अभी हास्य कविताओं में जोकराई करते हुए ठीक लगते हो पर जब आवारा जैसी छवि बन जायेगी तब तुम्हारी अपनी इज्जत से ही ठन जायेगी।’
दूसरा ब्लाग लेखक बोला-‘अबे कमबख्त, मेरी नकल करेगा। इस तुकबंदी पर मेरा सर्वाधिकार सुरक्षित है।’
तीसरा ब्लाग लेखक बोला-‘अच्छा ठीक है, मैं नहीं बोलूंगा। हां, इस पहले ब्लाग लेखक से बचकर रहना। तुम घोटालों पर लिखो उसे यौन पर लिखने के लिये कहो।’
दूसरा ब्लाग लेखक बोला-‘पर मुझे लिखना नहीं आयेगा।’
तीसरा बोला-‘उसकी चिंता मत करो। इस मामले में मैं उस्ताद हूं। कहीं से भी उठाकर तुम्हारे पास ईमेल से भेज दूंगा।’
दूसरा बोला-‘पर यह शिखर सहमति जो हुई उसका क्या करें?’
तीसरा बोला-‘काहेकी शिखर सहमति? ऐसी पता नहीं मैं कितनी कर तोड़ चुका हूं।’
दूसरा ब्लाग लेखक बोला-‘ठीक है, वैसे तुम्हारी बात यकीन करने लायक है। उसने मेरी बैचेन रहने की आदत चुराई है उसका बदला लेने का यही अवसर है।’
तीसरा ब्लाग लेखक बोला-‘हां, अब हुई न यह बात!
दूसरे ब्लाग लेखक ने कहा-‘ठीक है, मैं तुम्हारी बात मान गया। आज से तुम और मैं दोस्त हुए। अब तुम अपना असली नाम और ब्लाग बता दो।’
दूसरा ब्लाग अचकचाकर उसे देखने लगा और फिर बोला-‘अरे बाप रे, मैं भी अपना असली नाम भूल गया। अब तो मुझे अपने किसी ब्लाग का नाम तक याद नहीं आ रहा। जाकर घर पर कंप्यूटर खोलकर सबसे पहले अपना अस्तित्व ढूंढना पड़ेगा। वैसे इस इंटरनेट की आभासी दुनियां में सच किसी से पूछो न तो अच्छा ही है क्योंकि लोग अपना चेहरा तक भूल जाते हैं’
ऐसा कहकर वह गायब हो गया। अब दूसरे ब्लाग लेखक की भी स्थिति अज़ीब हो गयी। वह सोचने लगा कि वाकई तीसरा ब्लाग लेखक वहां आया था या केवल आभास था।
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Sunday, November 14, 2010

बाबा रामदेव क्या नया महाभारत रच पायेंगे-हिन्दी लेख (baba ramdev aur naya mahabharat-hindi lekh)

बाबा रामदेव और किरणबेदी ने मिलकर भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। कुछ लोग उनके प्रयासों पर निराश हैं तो कुछ आशंकित! इस समय देश के जो हालात हैं वह किसी से छिपे नहीं हैं क्योंकि भारत का आम आदमी अज़ीब किस्म की दुविधा में जी रहा है। स्थिति यह है कि लोग अपनी व्यथाऐं अभिव्यक्ति करने के लिये भी प्रयास नहीं कर पा रहे क्योंकि नित नये संघर्ष उनको अनवरत श्रम के लिये बाध्य कर देते हैं।
बाबा रामदेव के हम शिष्य नहीं है पर एक योग साधक के नाते उनके अंतर्मन में चल रही साधना के साथ ही विचारक्रम का कुछ आभास है जिसे अभी पूरी तरह से लिखना संभव नहीं है। यहां एक बात बता दें कि आम बुद्धिजीवी चाहे भले ही उनके समर्थक हों इस बात का आभास नहीं कर सकते कि बाबा रामदेव की क्षमता कितनी अधिक है। उनके कथन और दावे अन्य सामान्य कथित महान लोगों से अलग हैं। वही एक व्यक्ति है जो परिणामोन्मुख आंदोलन का नेतृत्व कर सकते हैं और वह भी ऐसा जिसका सदियों तक प्रभावी हो। इससे भी आगे एक बात कहें तो शायद कुछ लोग अतिश्योक्ति समझें कि अगर बाबा रामदेव इस पथ पर चले तो एक समय अपने अंदर भगवान कृष्ण के अस्तित्व का आभास करने लगेंगे जो कि एक पूर्ण योगी के लिये ही संभव है। ऐसा हम इसलिये कह रहे हैं कि परिणाममूलक अभियान का सीधा मतलब है कि हिंसा रहित एक आधुनिक महाभारत का युद्ध! जब वह सारथी की तरह अपने अर्जुनों-मतलब साथियों-के रथ का संचालन करेंगे तब अनेक तरह से वार भी होंगे। यह एक ऐसा युद्ध होगा जिसे कोई पूर्ण योगी ही जितवा सकता है।
हां, एक अध्यात्मिक लेखक के रूप में हमें यह पता है कि अनेक भारतीय विचाराधारा समर्थक भी बाबा रामदेव को एक योग शिक्षक से अधिक महत्व नहीं देते और इसके पीछे कारण यह कि वह स्वयं योग साधक नहीं है। हम भी बाबा रामदेव को योग शिक्षक ही मानते हैं पर यह भी जानते हैं कि योग माता की कृपा से कोई भी शिक्षक महायोगी और महायोद्धा बन सकता हैं।
जो लोग या योग साधक नित बाबा रामदेव को योग शिक्षा देते हुए देखते हैं हैं वह उनके चेहरे, हावभाव, आंखें तथा कपड़ों पर ही विचार कर सकते हैं पर जो उनके अंदर एक पूर्णयोग विद्यमान है उसका आभास नियमित योग साधक को ही हो सकता है।
अब आते हैं इस बात पर कि आखिर बाबा रामदेव जब भ्रष्टाचार के विरुद्ध हिंसा रहित नया महाभारत रचेंगे तब उन पर आक्रमण किस तरह का होगा? उनका बचाव वह किस तरह करेंगे?
हम बाबा रामदेव से बहुत दूर हैं और किसी प्रत्यक्ष सहयोग के नाम पर अगर कुछ धन देना पड़े तो देंगे। कुछ लिखना पड़ा तो लिख देंगे। भारत को महान भारत बनाने के प्रयासों का सदैव हृदय से समर्थन करेंगे पर उनके साथ मैदान में आने वाले कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को यह बता दें कि उनके विरोधियों के पास अधिक हथियार नहीं है-शक्ति तो नाम की भी नहीं है। कभी न बरसने पर हमेशा गरजने वाले बादल समूह हैं भ्रष्टाचार को सहजता से स्वीकार करने वाले लोग! मंचों पर सच्चाई की बात करते हैं पर कमरों में उनको अपना भ्रष्टाचार केवल अपनी आधिकारिक कमाई दिखती है।
अभी तो प्रचार माध्यम उनके आधार पर अपनी सामग्री बनाने के लिये प्रचार खूब कर रहे हैं पर समय आने पर यही बाबा रामदेव के विरुद्ध विष वमन करने वालों को निष्पक्षता के नाम पर स्थान देंगे।
इनमें सबसे पहला आरोप तो पैसा बनाने और योग बेचने का होगा। उनके आश्रम पर अनेक उंगलियां उठेंगी। दूसरा आरापे अपने शिष्यों के शोषण का होगा। चूंकि योगी हैं इसलिये हिन्दू धर्म के कुछ ठेकेदार भी सामने युद्ध लड़ने आयेंगे। पैसा बनाने और योग बेचने के आरोपों का तो बस एक ही जवाब है कि योगी समाज को बनाने और बचाने के लिये माया को भी अस्त्र शस्त्र की तरह उपयोग करते हैं। माया उनकी दासी होती है। समाज उनको अपना भगवान मानता है। जहां तक करों के भुगतान करने या न करने संबंधी विवाद है तो यहां यह भी स्पष्ट कर देना चाहिए कि वह तो धर्म की सेवा कर रहे हैं। अस्वस्थ समाज को स्वस्थ बना रहे हैं जो कि अनेक सांसरिक बातों से ऊपर उठकर ही किया जा सकता-मतलब कि योगी को तो केवल चलना है इधर उधर देखना उसका काम नहीं है। लक्ष्मी तो उसकी दासी है, और फिर जो व्यक्ति, समाज या संस्थायें भ्रष्टाचार को संरक्षण दे रही है वह किस तरह नैतिकता और आदर्श की दुहाई एक योगी को दे सकती हैं?
आखिरी बात यह है कि सच में ही समाज का कल्याण करना है तो धर्म की आड़ लेना बुरा नहीं है। बुरा तो यह है कि अधर्म की बात धर्म की आड़ लेकर की जाये। चलते चलते एक बात कहें जो किसी योगी के आत्मविश्वास और ज्ञान का प्रमाण है वह यह कि बाबा रामदेव के अनुसार भ्रष्टाचार के विरुद्ध किसी एक मामले पर प्रतीक के रूप में काम करना शुरुआत है न कि लक्ष्य! अगर आप योग साधक नहीं हैं तो इस बात का अनुभव नहीं कर सकते कि योग माता की कृपा से ही कोई ऐसी दिव्य दृष्टि पा सकता है जो कि छोटे प्रयासों से संक्षिप्त अवधि में बृहद लक्ष्य की प्राप्ति की कल्पना न करे।
वैसे बाबा रामदेव को भी यह समझना चाहिए कि अगर कुछ जागरुक और सक्रिय लोग उनका समर्थन करने के लिये आगे आयें हैं तो वह उनका सही उपयोग करें। उनका आना वह योगमाता की कृपा का ही परिणाम है जो सभी योग साधकों को नहीं मिलती। योग से जुड़े भी दो प्रकार के लोग होते हैं-एक तो पूर्ण निष्काम योगी जो समाज के लिये कुछ करने का माद्दा रखते हैं दूसरे योग साधक जो केवल अपनी देह, मन तथा विचारों के विकारों के विसर्जन के अधिक कुछ नहीं करते। ऐसे में हम जैसा एक मामूली नियमित योग साधक केवल उनकी लक्ष्य प्राप्ति के लिये योग माता से अधिक कृपा की कामना ही कर सकता है। देखेंगे आगे आगे क्या होता है? बहरहाल उनके समर्थकों के साथ ही आलोचकों को भी बता दें कि एक योगी के प्रयास सामान्य लोगों से अधिक गंभीर और दूरगामी परिणाम देने वाले होते हैं। समर्थकों से कहेंगे कि वह योग साधना अवश्य शुरु करें और आलोचकों से कहेंगे कि पहले यह बताओ कि क्या तुम योग साधना करते हो। अगर नहीं तो यह अपने आप ही तय करो कि क्या तुम्हें उनकी आलोचना का हक है? भारत का नागरिक और योग साधक होने के नाते हमारी बाबा रामदेव के ंव्यक्तित्व और कृतित्व में हमेशा रुचि रही है और रहेगी।
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Saturday, November 13, 2010

धणीसांईं-हिन्दी शायरी (dhanisai-hindi shayri)

शहर लुटता रहा
मगर देखने वाला कौन है?
सुना है स्तंभों की तरह खड़े थे
बड़े बड़े ओहदे
जिन पर पहरेदार भी जमे थे,
मगर शहर का धणीसांईं कौन है,
इस पर हर आदमी मौन हैं।
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कोई नहीं धणीसांईं
इसलिये ओहदेदारों को ही
मान लेते हैं,
लुटता है शहर,
आतंक बरसाता है कहर,
इसे सर्वशक्तिमान की इच्छा
समझकर
उसकी लीला जान लेते हैं।
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Friday, November 12, 2010

वीर जवानों का देश-हिन्दी व्यंग्य क्षणिका (vir javonao ka desh-hindi vyangya kavita

पहले एक बयान
फिर दूसरा बयान
कहीं शब्द भी युद्ध का रूप ले जाते हैं,
कहीं पत्थर भी एक दूसरे पर
उड़ाये जाते हैं,
कभी यह देश था वीर जवानों का
अब तो कुछ लोग बादलों की तरह गरज कर दिखाते हैं,
कुछ अपनों पर गुबार निकालकर
अपनी ताकत जताते हैं।
वीर और जवानों के  नाम
बस, इतिहास में पाये जाते हैं।
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Thursday, November 11, 2010

घर की बात दिल में ही रहे-हिन्दी व्यंग्य और शायरी (ghar ki baat dil mein rah-hindi vyangya aur shayri)

टीवी पर सुनने को को मिला कि इंसाफ नाम का कोई वास्तविक शो चल रहा है जिसमें शामिल हो चुके एक सामान्य आदमी का वहां हुए अपमान के कारण निराशा के कारण निधन हो गया। फिल्मों की एक अंशकालिक नर्तकी और गायिका इस कार्यक्रम का संचालन कर रही है। मूलतः टीवी और वीडियो में काम करने वाली वह कथित नायिका अपने बिंदास व्यवहार के कारण प्रचार माध्यमों की चहेती है और कुछ फिल्मों में आईटम रोल भी कर चुकी है। बोलती कम चिल्लाती ज्यादा है। अपना एक नाटकीय स्वयंवर भी रचा चुकी है। वहां मिले वर से बड़ी मुश्किल से अपना पीछा छुड़ाया। अब यह पता नहीं कि उसे विवाहित माना जाये, तलाकशुदा या अविवाहित! यह उसका निजी मामला है पर जब सामाजिक स्तर का प्रश्न आता है तो यह विचार भी आता है कि उस शादी का क्या हुआ?
बहरहाल इंसाफ नाम के धारावाहिक में वह अदालत के जज की तरह व्यवहार करती है। यह कार्यक्रम एक सेवानिवृत महिला पुलिस अधिकारी के कचहरी धारावाहिक की नकल पर बना लगता है पर बिंदास अभिनेत्री में भला वैसी तमीज़ कहां हो सकती है जो एक जिम्मेदार पद पर बैठी महिला में होती है। उसने पहले तो फिल्म लाईन से ही कथित अभिनय तथा अन्य काम करने वाले लोगों के प्रेम के झगड़े दिखाये। उनमें जूते चले, मारपीट हुई। गालियां तो ऐसी दी गयीं कि यहां लिखते शर्म आती है।
अब उसने आम लोगों में से कुछ लोग बुलवा लिये। एक गरीब महिला और पुरुष अपना झगड़ा लेकर पहुंच गये या बुलाये गये। दोनों का झगड़ा पारिवारिक था पर प्रचार का मोह ही दोनों को वहां ले गया होगा वरना कहां मुंबई और कहां उनका छोटा शहर। दोनों ने बिंदास अभिनेत्री को न्यायाधीश मान लिया क्योंकि करोड़ों लोगों को अपना चेहरा दिखाना था। इधर कार्यक्रम करने वालों को भी कुछ वास्तविक दृश्य चाहिये थे सो बुलवा लिया।
जब झगड़ा था तो नकारात्मक बातें तो होनी थी। आरोप-प्रत्यारोप तो लगने ही थे। ऐसे में बिंदास या बदतमीज अभिनेत्री ने आदमी से बोल दिया‘नामर्द’।
वह बिचारा झैंप गया। प्रचार पाने का सारा नशा काफूर हो गया। कार्यक्रम प्रसारित हुआ तो सभी ने देखा। अड़ौस पड़ौस, मोहल्ले और शहर के लोग उस आदमी को हिकारत की नज़र से देखने लगे। वह सदमे से मरा या आत्महत्या की? यह महत्वपूर्ण नहंी है, मगर वह मरा इसी कारण से यह बात सत्य है। पति पत्नी दोनों साथ गये या अलग अलग! यह पता नहीं मगर दोनों गये। घसीटे नहीं गये। झगड़ा रहा अलग, मगर कहीं न कहीं प्रचार का मोह तो रहा होगा, वरना क्या सोचकर गये थे कि वहां से कोई दहेज लेकर दोबारा अपना घर बसायेंगे?
छोटे आदमी में बड़ा आदमी बनने का मोह होता है। छोटा आदमी जब तक छोटा है उसे समाज में बदनामी की चिंता बहुत अधिक होती है। बड़ा आदमी बेखौफ हो जाता है। उसमें दोष भी हो तो कहने की हिम्मत नहीं होती। कोई कहे भी तो बड़ा आदमी कुछ न कहे उसके चेले चपाटे ही धुलाई कर देते हैं। यही कारण है कि प्रचार के माध्यम से हर कोई बड़ा बनना या दिखना चाहता है। ऐसे में विवादास्पद बनकर भी कोई बड़ा बन जाये तो ठीक मगर न बना तो! ‘समरथ को नहीं दोष, मगर असमर्थ पर रोष’ तो समाज की स्वाभविक प्रवृत्ति है।
एक मामूली दंपत्ति को क्या पड़ी थी कि एक प्रचार के माध्यम से कमाई करने वाले कार्यक्रम में एक ऐसी महिला से न्याय मांगने पहुंचे जो खुद अभी समाज का मतलब भी नहीं जानती। इस घटना से प्रचार के लिये लालायित युवक युवतियों को सबक लेना चाहिए। इतना ही नहीं मस्ती में आनंद लूटने की इच्छा वाले लोग भी यह समझ लें कि यह दुनियां इतनी सहज नहीं है जितना वह समझते हैं।
प्रस्तुत है इस पर एक कविता
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घर की बात दिल ही में रहे
तो अच्छा है,
जमाने ने सुन ली तो
तबाही घर का दरवाज़ा खटखटायेगी,
कोई हवा ढूंढ रही हैं
लोगों की बरबादी का मंजर,
दर्द के इलाज करने के लिये
हमदर्दी का हाथ में है उसके खंजर,
जहां मिला अवसर
चमन उजाड़ कर जश्न मनायेगी।
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Wednesday, November 10, 2010

बड़ा और छोटा कद-हिन्दी शायरी (bada aur chota kad-hindi shayri)

उनका कद ऊंचा देखकर
हमने अपनी उम्मीद का आसमान
उनके कंधे पर टिका दिया,
मगर उनकी चाल
मतलब के दायरों में ही सिमट गयी
जिसने उनकी सोच का
छोटा कद दिखा दिया।
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हमसफर जब भी मिले
मतलब की दूरी तक ही साथ चले,
वादा करते रहे
हमेशा साथ देने का
अपनी मंजिल का पता दिया नहीं
जो मतलब निकल गया
वह भी मुंह फेरकर, छुड़ा हाथ चले।
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Monday, November 1, 2010

लिपस्टिक और पति पत्नी-हिन्दी हास्य कविता (lipistic and pati patni-hindi hasya kavita)

टीवी पर चल रही थी खबर
एक इंजीनियरिंग महाविद्यालय में
छात्रों द्वारा छात्राओं को होठों पर
लिपस्टिक लगाने की
तब पति जाकर उसकी बत्ती बुझाई।
इस पर पत्नी को गुस्सा आई।
वह बोली,
‘क्यों बंद कर दिया टीवी,
डर है कहीं टोके न बीवी,
तुम भी महाविद्यालय में मेरे साथ पढ़े
पर ऐसा कभी रोमांटिक सीन नहीं दिया,
बस, एक प्र्रेम पत्र में फांस लिया,
उस समय अक्ल से काम नहीं किया,
एक रुखे इंसान का हाथ थाम लिया,
कैसा होता अगर यह काम हमारे समय में होता,
तब मन न ऐसा रोता,
तुम्हारे अंदर कुंठा थी
इसलिये बंद कर दिया टीवी,
चालू करो इसमें नहीं कोई बुराई।’’

सुनकर पति ने कहा
‘देखना है तो
अपनी अपनी आठ वर्षीय मेरे साथ बाहर भेज दो,
फिर चाहे जैसे टीवी चलाओ
चाहे जितनी आवाज तेज हो,
अभी तीसरी में पढ़ रही है
लिपस्टिक को नहीं जानती,
अपने साथियों को भाई की तरह मानती,
अगर अधिक इसने देखा तो
बहुत जल्दी बड़ी हो जायेगी,
तब तुम्हारी लिपस्टिक
रोज कहीं खो जायेगी,
पुरुष हूं अपना अहंकार छोड़ नहीं सकता,
दूसरे की बेटी कुछ भी करे,
अपनी को उधर नहीं मोड़ सकता,
ऐसा कचड़ा मैं नहीं फैलने दे सकता
अपने ही घर में
जिसकी न मैं और न तुम कर सको धुलाई।’’
पत्नी हो गयी गंभीर
खामोशी उसके होठों पर उग आई।
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Friday, October 29, 2010

आदर्श समाज सेवा समिति-हिन्दी हास्य कविता (adarsh samaj seva samiti-hindi hasya kavita)

आया फंदेबाज और बोला
‘‘दीपक बापू मेरे बेरोजगार भतीजे को
समाज सेवा करने का ख्याल आया है,
यह ज्ञान उसने जेल में बंद अपने गुरु से पाया है,
उसने बताया कि
वह एक सहायता समिति बनायेगा,
अब जनता में अपनी समाज सेवक की तरह छायेगा,
अभी दीपावली के अवसर पर
नकली खोये और
गंदी बनी मिठाईयां खाकर
बहुत लोग बीमार पड़ेंगे,
कुछ पटाखों से घायल होकर
अस्पताल का रुख करेंगे,
उनको वह सहायता प्रदान करेगा,
इसके लिये वह जनता से
पैसा लेकर
हताहतों के जख्म भरेगा,
बस,
समस्या यह है कि वह
उस संस्था का नाम क्या रखे
इसको लेकर विचार कर रहा है,
आया था मेरे पास पूछने
पर अपनी संस्था के काम का प्रचार कर रहा है,
आप ही बताओ कोई शुभ नाम,
कर दो बस, इतना काम,
मेरा भतीजा हमेशा आपका आभार जतायेगा।’’

सुनकर कहैं दीपक बापू
‘‘कमबख्त तुम्हारें कुनबे ने भी
कभी समाज सेवा की है,
जहां मिला वही मेवा की लूट की है,
जहां तक नाम का सवाल है,
उस पर यह कैसा बवाल है,
आदर्श या चरित्र निर्माण जैसा नाम रखकर,
मिठाई का टुकड़ा चखकर,
शुरु कर दो समाज सेवा का काम,
बस,
एक बात याद रखना,
सारा चंदा स्वयं ही चखना,
तुम्हारे कुनबे का भला क्या दोष,
ज़माना आदर्श के नाम पर लूट रहा
इसलिये आम इंसानों में है रोष,
बात जितनी आदर्श की बढ़ती जा रही है,
उतनी ही नैतिकता नीचे आ रही है,
बन गया है भ्रष्टाचार,
ताकतवार आदमी का शिष्टाचार,
आदर्श बनकर कर रहे हैं
वही समाज का चरित्र निर्माण,
जिनमें नहीं है पवित्रता का प्राण,
कोई फर्क नहीं पड़ेगा
अगर तुम्हारा भतीजा
आदर्श समाज सेवा समिति बनायेगा,
चलो एक बेरोगजार काम पर लग जायेगा,
जिनके पास दौलत है
वही आम इंसान को लूट रहे हैं,
अपराध से सराबोर हैं
वही निर्दोष कहलाकर छूट रहे हैं,
सर्वशक्तिमान ने चाहा तो
तुम्हारा भतीजा किसी घोटाले फंसकर
किसी बड़े पद पर चढ़ जायेगा।’’
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Sunday, October 24, 2010

भारतीय योग कभी न्यूड योग भी बनेगा, सोचा न था-हिन्दी आलेख (indian yoga sadhana and neud yog of sara jean-hindi article)

सारा जीन के न्यूड योग पर अमेरिका में रहने वाले हिन्दुओं ने नाराज़गी जाहिर की है। उनका मानना है कि यह एक तरह से हिन्दू धर्म और योग का अपमान है। भारतीय अध्यात्म का मुख्य स्त्रोत योग साधना है और पूरा विश्व उसके परिणामों से चमत्कृत है इसलिये यह स्वाभाविक है कि सभी लोग इसके प्रति आकर्षित हों। फिर इधर बाबा रामदेव ने जिस तरह योग शिक्षक के रूप में लोकप्रियता अर्जित की है उसे ब़ाजार और उसका प्रचार तंत्र बेचना चाहता है। बाबा रामदेव इस समय प्रचार माध्यमों में छाये हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि बाज़ार या उसका प्रचार तंत्र उससे प्रभावित है बल्कि इससे बाज़ार अपने सामान बेचने के लिये ग्राहक ढूंढता है तो प्रचार माध्यम अपने विज्ञापन के बीच में कुछ ऐसा प्रसारण और प्रकाशन चाहते हैं जिससे दर्शक या पाठक मनोरंजन ले सकें और ऐसे में बाबा रामदेव का फोटो और उनके बयान बहुत काम के होते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि बाबा रामदेव उनके लिये एक ऐसा चेहरा है जिसके सहारे वह अपना काम चला रहे हैं फिर उनकी योग शिक्षा एक ऐसा विषय भी है जिससे वह अपनी प्रसारण प्रकाशन सामग्री बना लेते है।
सारा जीन के न्यूड योग के जो दृश्य हमने देखे उसमें कुछ आपत्तिजनक नहीं लगा। यह अलग बात है कि इससे इंटरनेट, टीवी, तथा अखबार वालों को अधोवस्त्र पहने एक सुंदरी के फोटो दिखाने के साथ ही छापने के लिये मिल गये। कुछ लोगों को लिखने का अवसर मिल गया तो कुछ लोगों को बहस अवसर मिल जायेगा। जो लोग सारा जीन के न्यूड योग का विरोध कर रहे हैं न वह स्वयं योग करते हैं और न जानते हैं। योग साधना उनके लिये एक शब्द या नारा भर है।
बाबा रामदेव योगसनों के साथ प्राणायाम सिखाते हैं। उससे अनेक लोगों को लाभ हो रहा है। सच बात तो यह है कि उन्होंने एकदम पाश्चात्य दिशा में जा रहे देश को पूर्व की तरफ मोड़ा है। हम उनके प्रयास को योग साधना जैसे विषय को सामान्य जन में लोकप्रिय बनाने के लिये सराहते हैं तो कुछ लोग इसमें बाज़ार के साथ उसके प्रचार तंत्र को आर्थिक रूप से फलदायी बनाने की बात भी कहते हैं। स्थिति यह है कि बाबा रामदेव और हिन्दू धर्म के आलोचक भी उनके प्रयास की आलोचना नहंी करते।
योग का जनसामान्यीकरण हो जाने के पीछे वह आसन हैं जो प्रातः किये जाने पर मनुष्य को लाभ देते हैं। सुबह योग साधक अपनी देह की ऐसी सक्रियता देखकर प्रसन्न होता है। मजे की बात यह है कि योग साधना के प्रवर्तक पतंजलि योग तथा श्रीमद्भागवत गीता में कहीं भी आसनों की चर्चा नहीं मिलती। पतंजलि योग साहित्य में योग के महत्व का विशद वर्णन है पर उसमें प्राणायाम की प्रधानता है। श्रीमदभागवत गीता में तो प्राणायाम पर ही अधिक प्रकाश डाला गया है। अगर योग साधना के लिये कहा जाये कि ‘प्राणवायु तथा अपानवायु को सम रखना ही योग है’तो भी पर्याप्तं है। प्राणवायु को सम रखने का मतलब है कि सांस अंदर लेकर उसे अपनी निर्धारित शक्ति के अनुसार रोकना। उसी तरह अपानवायु सम रखने का मतलब है कि सांस बाहर छोड़कर फिर अपने सामर्थ्यानुसार रुकना। इस दौरान भृकुटि यानि नाक के ठीक ऊपर ध्यान रखना आवश्यक है। महर्षि पतंजलि तथा भगवान श्रीकृष्ण ने योग साधना की कोई अधिक विधि नहीं बताई पर उसका महत्व अधिक प्रतिपादित किया है। इससे हम एक बात समझ सकते हैं कि योगासन कोई कठिन या विशद विषय नहीं है। अगर संकल्प लिया जाये तो इसी संक्षिप्त विधि से भी योग साधना की जा सकती है। प्राचीन समाज श्रम के आधार पर जीवित था इसलिये संभव है महर्षि पतंजलि तथा भगवान श्रीकृष्ण ने प्राणायाम, ध्यान तथा मंत्रजाप का ही महत्व प्रतिपादित किया हो। कालांतर में जैसे सुविधाभोगी समाज होने लगा तब कुछ अन्य महर्षियों और योगियों ने आसनों की खोज की हो।
एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि चाहे पश्चिमी पद्धति वाले शारीरिक व्यायाम हों या भारतीय योगासन मनुष्य शरीर में स्फूर्ति पैदा करते हैं। यह स्फूर्ति मनुष्य को तात्कालिक लाभ देती है इसलिये ही लोग आसनों की तरफ आकर्षित होते है। बाज़ार और प्रचारतंत्र का ध्यान भी उसकी तरफ आकर्षित होता है क्योेंकि उनका आसानी से नकदीकरण हो जाता है। इसके विपरीत प्राणायाम तथा ध्यान में मनुष्य की देह सक्रिय नहीं होती। योगासन पर फिल्म में पात्र के हाथ पांव चलते हैं इसलिये उस पर फिल्म बनाना ठीक रहता है क्योंकि दर्शक का आकर्षण बना रहता है जबकि प्राणायम या ध्यान में पात्र बैठा रहता है और इससे दर्शक को उकताहट होती है। यही कारण है कि योगासन बिक रहे हैं और चर्चा भी उसकी हो रही है। जबकि मन और विचारों के स्वस्थ बनाने वाले प्राणायाम और ध्यान एक उपेक्षित विषय हो गया है।
योगासनों के नाम पर अनेक नाम प्रचलित हो गये हैं। लोगों ने योगासन सिखाने के नाम पर उसके अनेक नाम गढ़ लिये हैं-‘जैसे न्यूड योग या सैक्स योग।
सारा जीन के योग के फुटेज देखने पता लगता है कि उसकी देह में लोच है और इस कारण उसे योग का अभिनय करने में सुविधा हुई होगी। वैसे वह अपने शरीर को इतना लोचदार बनाये हुए है इसके लिये वह प्रशंसा के योग्य है। यह लोच पाश्चात्य पद्धति के व्यायाम से भी हो सकती है। इसका मतलब यह है कि जरूरी नहीं है कि वह प्रतिदिन भारतीय योग पद्धति से साधना करती हो। वैसे यह उसका निजी विषय है पर चूंकि उसे लेकर भारतीय योग पद्धति की चर्चा हुई इसलिये उसकी इस बात के लिये भी प्रशंसा करना चाहिए कि कम से कम उसने वह आसन कर दिखाये। वह पूर्ण योग साधक नहीं है या फिर अभी सीख रही है, यह इसलिये कह रहे हैं कि योगासन करते हुए अगर अपनी आंखें बंद रख कर ध्यान अपने शरीर के आठों चक्रों पर रखा जाये तब उसका पूर्ण लाभ मिलता है। ध्यान कभी आंख खोलकर नहीं लगता और दूसरी बात यह कि भारतीय योगासन करते समय हर आवृति पर ध्यान अपने चक्रों पर रखना होता है। जैसे जांघशिरासन के समय स्वाधिष्ठान और हलासन के समय सहस्त्रात चक्र पर ध्यान रखना होता है। सूर्य नमस्कार के समय आठों चक्र पर बारी बारी से ध्यान ज़माना चाहिए। एक बात याद रखना चाहिए कि अंततः ध्यान ही वह शक्ति है जो योगसन का पूर्णता प्रदान करती है।
अमेरिका में रह रहे भारतीय सारा जीन के योग का विरोध यह कहकर कर रहे हैं कि उसमें वस्त्र कम पहने है तो यह कहना पड़ता है कि उनको स्वयं ही योग का ज्ञान नहीं है। अपने यहां तो परंपरा है कि स्त्रियां और पुरुष अलग अलग योग साधना करते हैं। योग के समय अपनी देह में मौसम के अनुसार वस्त्र पहनना चाहिए। गर्मी में अधिक वस्त्र पहनने से निरर्थक पसीना नहीं बहाया जाता। सारा जीन के योग प्रचार पर नाराजगी या क्रोध जताने वाले स्वयं ही अज्ञानी है। अगर ज्ञानी होते तो ललकार कहते कि ‘यह योग नहीं है’ और करके बताते कि हमारा योग ऐसा होता है। एक बात याद रखे कि योग शब्द पर भारत का अधिकार नहीं है पर योग ज्ञान उसकी ऐसी संपत्ति है जिसे कोई छीन नहीं सकता। न्यूड योग एकदम अपूर्ण है और उसका विरोध करने वाले तो योगज्ञान में शून्य लगते हैं। मतलब यह कि सारा जीन कम से कम अपने व्यायाम को ही योग मानकर कर तो रही है और विरोध करने वाले तो उससे भी दूर लगते हैं। शायद भारतीय धर्म के भक्त होने के लिये प्रचार होने का उनका यह दिखावा भी हो सकता है। वैसे यह देखकर हंसी आती है कि भारतीय योग से कभी ‘न्यूड येाग’ भी पैदा होगा यह किसी ने सोचा नहीं था।
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Friday, October 15, 2010

भाषा में स्ट्रांग रहना-लघु हास्य व्यंग्य (hindi news pepar and megazine-laghu hasya vyangya(

‘पापा, यह कांफिडेंस क्या होता है।’ 14 साल के बच्चे ने अपने पास ही चाय पी रहे पिताजी से पूछा।’
उन्होंने जवाब दिया-‘बेटा, अंग्रेजी के कांफिडेंस शब्द का हिन्दी में मतलब होता है, आत्म विश्वास।’
बेटा बोला-‘ यह तो मुझे भी पता है पर हिन्दी में यह कांफिडेंस क्या होता है? आप देखो अखबार में लिखा है कि हर समय कांफिडेंस रखना चाहिये।’
पिताजी ने कहा-‘अरे, ऐसे ही लिख दिया होगा। आजकल हिन्दी में अखबार यही करने लगे हैं।
थोड़ी देर बात फिर बेटे ने पूछा-‘यह गुड लुक क्या होता है।’
पिताजी ने कहा-‘बेटा, यह भी अंग्रेजी भाषा का शब्द है जिसका मतलब है अच्छा दिखना।’
बेटा बोला-‘यह तो मुझे भी पता है पर यह हिन्दी में क्या होता है? इस अखबार में लिखा है कि हमेशा गुड लुक रहें।’
पिताजी ने कहा-‘ऐसे ही लिख दिया होगा।’
थोड़ी देर बाद फिर बेटे ने कहा-‘पापा, यह बी केअरफुल मस्ट ड्यूरिंग प्रिगनैंसी का क्या मतलब होता है।’
पिताजी ने कहा-‘बेटा आप अखबार में वही शब्द पढ़ो जो हिन्दी में समझ में आता हो, बाकी छोड़ दो।’
बेटा बोला-‘ठीक है पापा, अब मैं अखबार में वही पढ़ूंगा जो समझ में आये पर इसमें कोई भी ऐसा छपा नहीं मिल रहा है तो क्या करूं।
पिताजी ने कहा-‘तुम समाचार पढ़ो यह लेख मत पढ़ो।’
बेटा बोला-‘समाचारों में भी ऐसे ही शब्द लिखे हैं जो हिन्दी में न होने के कारण समझ में नहीं आते। मैं जब हिन्दी पढ़ता हूं तो हिन्दी याद रहती है और जब अंग्रेजी पढ़ता हूं तो वही याद रहती है।
पिताजी चुप हो गये।
थोड़ी देर बाद फिर बेटे ने पूछा-‘यह ‘सैक्सी सीन’ क्या होता है। इस अखबार एक समाचार में लिखा है कि इंटरनेट पर ‘सैक्सी सीन’ ज्यादा देखे जाते हैं।
पिताजी के समझ में कुछ नहीं आया तब वह बोले-‘बेटे, अगर अपनी हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में एक ही जैसे ‘स्ट्रांग’ रहना चाहते हो तो हिन्दी अखबार पढ़ना छोड़ दो। यह भी बता देता हू कि स्ट्रांग अंग्रेजी का शब्द है जिसका मतलब है ‘मजबूत’।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Sunday, October 3, 2010

नये ज़माने के फरिश्ते-हिन्दी कविता (naye zamane ke farishte-hindi poem)

सबको रोटी दिलाने का वादा कर
वह शिखर पर चढ़ जाते हैं,
जब चलाना है ज़माना,
जारी रखते हैं अपना कमाना,
फिर खाली समय
खेल तमाशों में बिताते हैं,
फरिश्तों की तरह देकर बयान
अपने जश्न में ही
दुःखी लोगों को
खुशियां मनाना सिखाते हैं,
खाली पेट तरसते रहें रोटी को
फिर भी वह बादशाहों की सूची में
वह अपना नाम लिखाते हैं।
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