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Saturday, August 16, 2008

उल्टा झंडा, सीधा झंडा-लघुकथा

सुबह सुबह वह घर के बाहर अखबार पढ़ते हुए बाहर लोगों के सामने चिल्ला रहे थे-‘अरे, मैंने अभी टीवी पर सुना वहां पर उल्टा झंडा फहरा दिया। आज लोगों की हालत कितनी खराब हो गयी है। जरा, भी समझ नहीं है। सब जगह पढ़े लिखे लोग हैं पर अपनी मस्ती में इतने मस्त हैं कि उल्टे और सीधे झंडे को ही नहीं देख पाते। जिसे देखो अपनी स्वार्थ सिद्धि में लगा पड़ा है। सब जगह भ्रष्टाचार है। किसी को देश की परवाह नहीं है तभी तो उल्टा झंडा लगाते हैं।’

वहां से उनकी जानपहचान का ही एक आदमी निकल रहा था जो अपने साथ लिफाफे में स्कूल में पंद्रह अगस्त को झंडा फहराने के लिये ले जा रहा था। वह रुका और उनकी बात सुन रहा था। अचानक उसने अपने लिफाफे से झंडा निकाला और बोला-महाशय, अच्छा हुआ आप मिल गये वरना मुझे भी पता नहीं उल्टा और सीधा झंडा कैसे होता है। जरा आप बता दीजिये।’

अब उनके चैंकने की बारी थी। वह थोड़ा सकपकाये पर तब तक उस आदमी ने अपने हाथ मेंं पकड़े लिफाफे से नये कपड़े के बने अपने झंडे को निकालकर पूरा का पूरा खोलकर उनके सामने खड़ा कर दिया। उसने भी झंडा उल्टा ही खडा+ किया था। तब वह सज्जन बोले-हां, ऐसे ही होता है सीधा झंडा।
तब तब उनका पुत्र भी निकलकर बाहर आया और बोला-‘पापा, यह आपका मजाक उड़ा रहा है इसने भी उल्टा झंडा पकड़ रखा है।’
फिर उनके पुत्र ने उस आदमी से कहा-‘मास्टर साहब, अपनी जंचाओ मत। तुम्हें पता है कि उल्टा और सीधा झंडा कैसे होता है और नहीं पता तो मैं चलकर तुम्हारे स्कूल में बता देता हूं कि उल्टा और सीधा झंडा कैसे होता है।’
दोनों का मूंह उतर गया। वह आदमी अपना झंडे का कपड़ा लिफाफे में पैक फिर अपने झोले में डालकर ले गया। उन महाशय ने भी अपने वहां मौजूद किसी आदमी से अपनी आंख नहीं मिलाई और अंदर चले गये।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

1 comment:

Anil Kumar said...

आज़ादी में मिली रोटियां और बोटियाँ चबाते हुए किसे पड़ी है तिरंगे की? बहुत सुंदर कटाक्ष!

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