पर और बोला
‘‘जल्दी जलेबी बना दो
कुछ कचौड़ी या पकौड़ी भी खिला दो
भूख लगी है
पानी भी पिला देना
पेट भर लूं तो दिमाग शांत हो जायेगा
उसके बाद ही लिखूंगा कविता
भूखे पेट और प्यासे दिल से
मैं कुछ भी नहीं लिख पाता’’
हलवाई बोला
‘‘कमाल है
अभी यहां एक कवि बैठा लिख रहा था
भूखा प्यासा दिख रहा था
मेरी पुरानी जान पहचान वाला था
इसलिये दया आयी
मैंने उसके पास कचैड़ी और जलेबी भिजवाई
उसने मुझे वापस लौटाई
और बोला
‘चाचा, भरे पेट और खुश दिल से भला
कभी कविता लिखी जाती है
वह तो भावविहीन शब्दों की
गठरी बनकर रह जाती है
कविता का भ्रुण तो भूख प्यास की कोख में पलता है
तभी दिल कहने के लिये मचलता है
अगर पेट भर जायेगा
तो काव्य एक अर्थहीन शब्दों का
पिटारा नजर आयेगा
आज तो सारा दिन भूख रहना है
लिखने की प्यास बुझाने के लिये यह सहना है
कविता में दर्द तभी आता’
वह तो चला गया कहकर
मुझे उसका एक एक शब्द याद आता
देर इसलिये हो रही यह सब बनाने में
क्योंकि मेरा हाथ इधर से उधर चला जाता’’
उसकी बात सुनकर घबड़ा गया कवि
‘भूल जाओ यह सब बातें
घबड़ाओगे दिन में तो डरायेंगी रातें
बिना दर्द की कविताओं का ही जमाना है
भूख से भला किसे रिश्ता निभाना है
यह सही है कि
भूख और प्यास की कोख में जो भ्रुण पलता है
वही कविता के रूप में चलता है
अगर रह सकते हो ऐसे तो
तुम भी कर लो कविताई
फिर नहीं रहोगे हलवाई
पर पहले मेरा पेट भर दो
कैसी भी बनती है लिखूंगा कविता
मुझसे ऐसे नहीं लिखा जाता
..................................
दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
2 comments:
जन्माष्टमी की बहुत बहुत वधाई
बहुत ही बढिया बन पड़ा है ये व्यंग्य-
चाचा, भरे पेट और खुश दिल से भला
कभी कविता लिखी जाती है
वह तो भावविहीन शब्दों की
गठरी बनकर रह जाती है
कविता का भ्रुण तो भूख प्यास की कोख में पलता है
तभी दिल कहने के लिये मचलता है
कुछ कुछ सहमत, पर खाली पेट भजन कहां।
सवालों के जवाब नहीं दिए आपने।
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